Book Title: Swasamarananda athwa Chetan Karm Yuddha
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 74
________________ (६४) स्वसमरानन्द। मात्म प्रमुसे विलक्षण है-ऐसा जान ज्ञानोपयोग सर्व मिष्टादि रसोंका राग त्याग आत्म समुद्र में भरे हुए पूर्णानन्द रूपी निर्मल रसको लेता हुआ परम तृप्त रहता है और किसी भी शत्रुकी सेनाके बहकाने में नहीं पड़ता। घ्राण इन्द्रिय जइ वस्तुओंकी गंधके आधीन हो हर्ष विषाद करती है। इसकी यह परिणति वैभाविक है। मेरे स्वमावसे सर्वथा भिन्न है-ऐसा जान चेतनकी ज्ञान चेतना सर्व पर वस्तु ओंके सामान्य स्वभावको वीतरागतासे देखती हुई अपूर्व सुगधित निन आत्म रूपी कमलकी मनोहर स्वानुभूति रूपी गंधमें भ्रमरीकी तरह उलझकर लीन हो जाती है और पर पदार्थके गंधके मोहमें न पड़ शत्रुओंके आक्रमोंसे सदा बचती रहती है । चक्षु इंद्रिय पुद्गल परमाणुओंका संघट्ट है। अपनी पुद्गलमई परिणतिसे स्थूल पुद्गलोंको देख देख हर्ष विषाद करती हुई शत्रुओं को अपने पास बुलाती है-ऐसा जान ज्ञान दृष्टि सम्हलती है और न देखने योग्यकी परवाह न कर देखने योग्य अत्यन्त सुन्दर निन शुद्धात्म रूपको व अन्य आत्माओंके परम मनोहर शुद्ध स्वरूपको देखने में लीन होती हुई, अपूर्व आनन्द प्राप्त करती हुई ऐसी चौकनी रहती है कि इसकी सेनाके पहरेके सामने किसी भी शत्रुसेनाकी मनाल नहीं जो इस चेतन की रणभूमिमें प्रवेश कर सके। कर्ण इन्द्रिय स्वयं नई है । भाषा वर्गणामई जड़ शब्दोंको गृहण कर नाना प्रकार परिणति करती है । शत्रुओंको बुलाय कर चेतनकी हानि करती है, ऐसा जान भाव श्रुतज्ञान अपने अनुभव रूपी खड्गको लिए हुए मुस्तैद हो जाता है और ध्वनि सम्बन्धी

Loading...

Page Navigation
1 ... 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93