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स्वस मेरानंन्द !
दबाता है कि आत्मवीर के सारे सहायक योद्धा हट जाते हैं और उसको चौथे से पहलेमें आ जाना पड़ता है। तब मिथ्यात्व भूमिमें पहले के समान आकर संसारी अरुचिवान होकर पूर्णतया मोहके पंजे में दब जाता है और यहां विषयोंकी अन्ध-श्रद्धा चित्तको आकुलित कर लेती है । तब इस विचारेको स्वसमरानन्दका सुख मिलना बन्द हो जाता है। हा कष्ट ! कहाँ अमृतको पान और कहां विषका स्वाद । अचंभा नहीं ।
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(२३)
जो आत्माराम विद्याधर गुरुकी असीम कृपासे एक महामोहके कारागारसे निकल भागा था वह फिर पहले किसी दशा में होकर अतिशय हीनदीन हो गया है। विषयोंकी तृष्णाने उसके चित्तको आकुलित कर दिया है । चित्तमें अनेक प्रकारकी चाहनाएँ उठती हैं, किन्तु पूरी होती नहीं, इस कारण यह आत्माराम अतिशय दुखी हो रहा है । यह यकायक एक उपवनमें जाता है और एक जनरहित शून्य वट वृक्ष की छायामें बैठ जाता है । उस समय अपनी हालतको इससे पहलेकी दशासे मिलान करता है, तो अपनेको मन और तन दोनोंमें अति क्लेशित पाता है । अपने भावोंकी अशुभताको सोच २ कर रह १ जाता है कि इसका कारण क्या है जो मेरेमें ऐसी गन्दगी आ गई है, मेहरी सारी वीरता मुझसे जुदी हो गई है, निर्बलताने दबा लिया है; क्या करूं । किधर जाऊं ? इतना विचार आते ही चट कषायकी तीव्र कृष्णलेश्या एक ऐसा थप्पड़ मारती है कि तुरंत ही किसी इन्द्रीके विषयकी चाह से मोहित हो 'उसी चाहसे तंनमनको. नळाने लग
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