________________
स्वसमरानन्द । मुकाबले में थी अब यहां हास्य, रति, मति शोक, भय, जुगुप्सा इन छह प्रकारकी सेनाओंने अपनी प्रमाद अवस्था कर ली है, केवल १६ ही दल सन्मुख हैं । यद्यपि मोह-राजाके चक्रव्यूहके क्षेत्र में भब भी १९२ दलोंका ही अस्तित्व है। अंतर्मुहूर्तके समयके अंदर ही इस भात्मवीग्ने अपने पराक्रम और शुक्ल ध्यानमई दलोंके प्रतापसे मोहके प्रबल योहा कोध, मान, माया, लोभ और वेदोंकी सेनाओंको विहुल और निर्बल कर दिया है । सम्यग्ज्ञान द्वारा पचनसे प्रेरित वीतराग चारित्ररूपी ध्यानकी ममिको निस समय यह आत्मवीर प्रज्वलित करता है एकाएक कर्मोके दक शिथिलताको प्राप्त हो जाते हैं । जितनी २ ढिलाई कोफे दलोंमें होती है उतनी २ पुष्टता मामवीरकी शुद्ध परिणामरूपी सेनाओंमें होती जाती है। इस समय भात्मवीरकी सेनामोंमें अपूर्व मानन्द है। अपने साहसके उमंगसे डूबी हुई अपनी सेनाको देखकर यह आत्मवीर परमसंतोषित हो रहा है, भव-कीचड़से मानो आपको निकला हुमा मान रहा है, जगतके जंजालोंसे मानो प्रथक हो रहा है। यद्यपि यह वीर निजस्वरूपानुभवमें लीन है और बुद्धिपूर्वक विकल्पोंसे पृथक् है तथापि विकल्पमें ग्रसित तत्त्व- खोनी पुरुषोंके लिये इस आत्मवीरकी अवस्था अनेक प्रकारंसे मनन करनेके योग्य है। वास्तवमें जिन जीवोंको मोहके फंदोंका पत्ता लग जाता है और जो जिन विधिका कुछ भी ठिकाना पा लेते हैं तथा अपने विश्रामपदकी श्रद्धा तन्मय हो जाते हैं वे जीव मोहसे समर करने में किसी प्रकार नहीं हटते और कमर बांधकर जब फर्मदलके भगानेको उद्यत हो जाते हैं तब अपने