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खसमरानन्द ।
फौज दी
कि वे
उदयसे यह आत्मा चित्तकों ऐसा साहसी नहीं करता जो संयम घारे अपनी शक्ति प्रगट करने में हिचकता है, अप्र० लोभके उदयसे यह आत्मा विषयोंके अनुरागको इतना कम नहीं करसक्ता कि जिससे पंचमगुणस्थान में जासके । इस प्रकार अपनी शक्तिकी व्यक्तता में रोके जाने के कारण इस वीरको अब कोष आगया है और इसको तत्त्वज्ञानने ऐसी दृढ़ विशुद्ध परिणामकी है कि जिस सेनाके बलसे इसने ऐसे तीक्ष्ण बाण चलाए चारों योद्धा युद्धस्थल में खड़े न रह सके और भागकर मोहकी सेनाके पड़ाव में दुबक रहे । इन चारोंका साम्हने से हटना कि आत्म वीरको देशसंयमसे भेट होना और पंचमगुणस्थानकी भूमिकामें पहुंच जाना, इस भूमिका में जाते ही इस वीरकी एक मंजिल फतह होती है और यह इस जगह ग्यारह प्रतिमाओंकी दृढ़ सेनाओंको धीरे २ अपने हाथमें करता हुआ कर्म शत्रुओं से भिड़ रहा है, इस भिड़ाव में जो आनन्द इसको होरहा है, वह वचन अगोचर है । जो जीव आलस्य त्याग निजानुभवके रसिक होते हैं वे ऐसे ही स्वसमरानंदकी प्रवृत्ति कर भव आकुलताको विनाश स्वमुखका प्रकाश करते हैं ।
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निन शक्तिके प्रकाश में परमादरसे उद्योग करनेवाला आत्मा अपनी शुद्धिकी बुद्धिमें स्वयंबुद्ध होता हुआ तथा मुक्त - तियाके अर्थ किये हुए घोर समर में अपनी वीरता से अपनी विजयके आनंदको लेता हुआ पंचम गुणस्थान में पहुंच अपने मित्र विद्याधर द्वारा भेजे हुए बारह व्रतरूप बारह दृढ़ योद्धाओं की सहायता से