Book Title: Sramana 1993 01 Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 6
________________ आत्मोपलब्धि की कला : ध्यान करो। आंखें खुली हों -- सामने की ओर। जैसे ही पीछे झांका, चूक जाओगे, अतीत की याद और अतीत के सपने साधना के मार्ग पर सबसे बड़ी फिसलन है। कुंदकुंद, आत्म द्रष्टा हैं। अतीत वे भी जी चुके हैं, पर भविष्य में अतीत की पुनरावृत्ति नहीं करना चाहते। वे वर्तमान अनुपश्यी हैं। उनकी अनुप्रेया, वर्तमान से जुड़ी है। वे वर्तमान को इतना उज्ज्वल बना लेना चाहते हैं कि भविष्य की ऊंची संभावनाएँ, वर्तमान में ही साकार हो जायें। बाहर से हटो अन्तर में लौटो और "परमात्मस्वरूप में तल्लीन हो जाओ", यही कुंदकुंद का अध्यात्म है। उनका सूत्र है -- तिपयारो सो अप्पा, परमंतर बाहिरो हु देहीणं। तत्थ परो झाइज्जइ, अंतोवाएण चइवि बहिरप्या।। "आत्मा तीन प्रकार की है -- अंतरात्मा, बहिरात्मा और परमात्मा। अन्तरात्मा के उपाय द्वारा बहिरात्मपन को छोड़कर परमात्मा का ध्यान करना चाहिये। आत्मा के तीन रूप हैं --बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। जो बाहर है वह बहिरात्मा है। जो अन्दर है वह अन्तरात्मा है। परमात्मा, बाहर और भीतर के द्वैत से मुक्ति है। बहिरात्मा संसारी है। अन्तरात्मा संन्यासी है। परमात्मा संबुद्ध है। बहिरात्मा के फूल बिखरे हैं, अन्तरात्मा ने पिरो रखे हैं। परमात्मा फूलों का इत्र है। परपदार्थ में सत्व को नियोजित करने वाला बहिरात्मा है। स्वयं की ओर लौटना अन्तरात्मा है। परमात्मा, कैवल्य स्वरूप में स्थितप्रज्ञ होना है। जो मूछित है, वह बहिरात्मा है। जाग्रत पुरुष अन्तरात्मा है। परमात्मा स्वयं की परास्थिति है। जो स्वयं को पूछता है कि मैं कौन हूँ, अन्तरात्मा वही है। अन्तरात्मा, वस्तुतत्त्व का ज्ञाता है, निजत्व का साक्षी है, जिसे स्वयं से कुछ पड़ी ही नहीं है। प्रतिबिम्ब को ही बिम्ब मान रखा है, वही बहिरात्मा है। परमात्मा तो स्वयं की समग्रता का स्वयं में अधिष्ठान है। कंदकंद कहते हैं कि अन्तरात्मा के उपायों द्वारा बहिरात्मपन को छोडो। पता है, बहिरात्मपन का सम्बन्ध किससे है ? किससे छोड़ोगे इसे ? मन, वचन और काया से बहिरात्मपन को छोड़ो और अन्तरात्मा में आरोहण करो। परमात्मा का ध्यान तभी सध पायेगा। परमात्मा का ध्यान तो अंतिम चरण है। बहिरात्मपन को छोड़ना पहली शर्त है और अन्तरात्मा में आरोहण करना दूसरी शर्त। बाहर के रास भी रचाते रहो और आत्मजगत् का कार्य भी साधना चाहो तो कैसे संभव होगा ? एक पंथ दो काज वाली उक्तियाँ जीवन-विज्ञान में लागू नहीं होती। यहाँ तो एक पंथ और एक काज होता है। दोनों में रस लोगे, तो न इधर के रहोगे न उधर के। अजीब खिचड़ी बन जायेगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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