Book Title: Sramana 1993 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 41
________________ दिनेश चन्द्र चौबीसा शैव धर्मावलम्बी बौद्धों पर भी हावी थे, इनमें दया, परोपकार, त्याग, तप, अहिंसा की भावना लुप्त होती जा रही थी। सामाजिक बुराइयों से ग्रसित संकुचित - समाज असाध्य रोग से पीड़ित दरिद्र रोगी के समान संज्ञाशून्य हो गया था। लोग लोभी, पाखण्डी, धूर्त तथा चोर होते जा रहे थे। न्याय व्यवस्था चरमरा गयी थी। न्यायालयों की निष्पक्षता पर प्रश्न अंकित थे। न्यायाधीशों का चरित्र सन्दिग्ध था। निर्दोष व्यक्ति लूटा जाने पर भी न्यायालय के शरण में जाना नहीं चाहता था। रिश्वत व घूसखोरी बहुत अधिक बढ़ गयी थी। अतः जन सामान्य के लिए न्यायालय के पट बन्द हो चुके थे। इस पर धनी-मानी व्यक्तियों का प्रभुत्व था। द्रष्टव्य-- पाशुपत -- मैं इस व्यवहार का निपटारा नहीं कर सकता। इसलिए हम न्यायालय में जायेंगे। देवसोमा -- "महाराज ऐसी बात है तो कपाल को नमस्कार अर्थात् ऐसे कपाल की मुझे आवश्यकता नहीं है। यह शाक्यभिक्ष अनेक विहारों से धन का संग्रह करने वाला है तथा न्यायालय के कर्मचारियों के मुख को घूस-रिश्वत देकर बन्द कर देने के लिए समर्थ है। लेकिन हम जैसों के लिए जो सांप के केचुल मात्र विभव वाले दरिद्र कापालिक की परिचारिकाएँ हैं, न्यायालय में प्रवेश पाने के लिए धन कहाँ है।"24 निष्कर्ष इस प्रकार मत्तविलास में विभिन्न धर्मों की चर्चा हुई है, इस समय शेन कापालिक, पाशुपत, बौद्ध तथा कर्मकण्डियों में मिथ्या आडम्बर घर कर गये थे। एक मात्र जैनधर्म मानव धर्म की व्याख्या करता हुआ अपना स्वतन्त्र स्थान बनाये हुए था। इस धर्म ने मनसा, वाचा और कर्मणा स्वधर्म पालन में शुद्ध आचार-विचारों को अत्यन्त महत्त्व दिया है। दिनेश चन्द्र चौबीसा, कनिष्ठ शोध-अध्येता (यू.जी. सी. ), संस्कृत विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर (राजस्थान)। Jain Education International For Private & Besonal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66