Book Title: Sramana 1993 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 40
________________ पल्लवनरेश महेन्द्रवर्मन "प्रथम" कृत मत्तविलासप्रहसन में वर्णित दो-- स्त्री-सहवास और मदिरापान को जोड़कर संसार में बुद्ध के उपदेशों का प्रचार करते हुए संघ का उपकार करना चाहिए। सामाजिकों की दृष्टि से बचकर बौद्ध भिक्षु शराब पीते थे।17 धन का लालच देकर, निम्नवर्ग की स्त्रियों से यौन सम्बन्ध स्थापित कर उनके साथ रमण ( रति-क्रिया ) में रत रहते थे -- तां क्षौरिकस्य दासी मम दयितां चीवरान्तदर्शितया। आकर्षति काकण्या बहुशी गां ग्रासमुष्टयैव ।।18 अर्थात् - उस नाई की दासी को जो मेरी प्रिया है, चीवर के भीतर रखी हुई कौड़ी से अपनी ओर वैसे ही आकर्षित करना चाहता है जैसे कोई व्यक्ति मुट्ठी में लिए (घास) से गाय को आकर्षित करता है। बौद्ध-धर्म के जन-कल्याणकारी मार्ग अर्थात् प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित थे-- 1. आपत्ति में पड़े हुए की सेवा करना।19 2. जो वस्तु नहीं दी गई है उसे न लेना, 3. झूठ से अलग रहना, 4. ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करना, 5. जीव हिंसा न करना, 6. असामयिक भोजन से अलग रहना, 7. बुद्धि की शरण में जाना -- "बुद्धं शरणं गच्छामि।"20 विभिन्न सम्प्रदायों में आचार तथा विचारगत मतभेद विद्यमान थे। धार्मिक-कर्मकाण्डों का प्रचार-प्रसार था। कर्मकाण्डों में धार्मिक पाखण्डों का बाहुल्य परिलक्षित होता है, जिसे कापालिक निम्न दृष्टि से देखता है-- "प्रिये, देखो, यह मधुशाला यज्ञस्थान की शोभा का अनुकरण कर रहा है क्योंकि यहाँ की ध्वजा का स्तम्भ यज्ञीय पशु को बाँधने के खूटे के रूप में है, सुरा ही सोमरस है, मतवाले पियक्कड़ ही पुरोहित हैं, चसक-- सुरापान का पात्र ही चम्मच का काम करता है, लोहे की छड़ में गुंच कर आग में भुने हुए मांस आदि चीखना ही श्रेष्ठ हविष्य है, पियक्कड़ों का प्रलाप ही यजुर्वेद है और उनके गान सामवेद हैं, उदंग (जिसमें पीने वाले मदिरा पीते हैं) सुवा हैं और पीने की भूख ही अग्निदेव है, मद्यशाला का मालिक ही यजमान है।"21 भिन्न सम्प्रदायी परस्पर एक दूसरे के नीति सिद्धान्तों की खिल्ली उड़ाया करते थे। बौद्ध धर्म के प्रणेता भगवान् बुद्ध को कापालिक चोर कहता है और शाक्यभिक्षु द्वारा "नमो बुद्धाय" कहने पर, उसे "खरपटाय नमः" कहने को कहता है, वह खरपट (चोर ) से भी बुद्ध को बढ़ा-चढ़ा मानता है।22 इसका कारण बताता है कि बुद्ध ने "वेदान्तशास्त्र और महाभारत से अर्थों को ग्रहणकर ब्राह्मणों के देखते-देखते ही अपने कोश को भर लिया है, अर्थात् जिस तरह कोई व्यक्ति डाका डालकर किसी से धन को ग्रहण कर मालदार बन जाता है उसी प्रकार बुद्ध ने भी दूसरों की शब्दार्थ राशि को चुराकर ग्रन्थ-राशि को इकट्ठा कर लिया।"23 Jain Education International For Private & Personal Use Only ३८ www.jainelibrary.org

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