________________
सार्धपूर्णिमागच्छ का इतिहास
- शिवप्रसाद
निर्गन्थ परम्परा के श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अन्तर्गत चन्द्रकुल [बाद में चन्द्रगच्छ] की एक शाखा वडगच्छ या बृहद्गच्छ से वि.सं. 1149 या 1159 में उद्भूत पूर्णिमागच्छ या पूर्णिमापक्ष से भी समय-समय पर विभिन्न उपशाखायें अस्तित्त्व में आयीं, इनमें सार्धपूर्णिमागच्छ भी एक है। विभिन्न पट्टावलियों में पूर्णिमागच्छीय आचार्य सुमतिसिंहसूरि द्वारा वि.सं.1236/ईस्वी सन् 1180 में अणहिल्लपुरपत्तन में इस शाखा का उदय माना गया है। विवरणानुसार श्वेताम्बर श्रमणसंघ में विभिन्न मतभेदों के कारण निरन्तर विभाजन की प्रक्रिया से खिन्न होकर चौलुक्यनरेश कुमारपाल [वि.सं. 1199-1229/ईस्वी सन् 1143-1173] ने नये-नये गच्छों के मुनिजनों का अपने राज्य में प्रवेश निषिद्ध करा दिया। वि.सं. 1236 में पूर्णिमागच्छीय आचार्य सुमतिसूरि विहार करते हुए पाटन पहुंचे। वहां श्रावकों द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने अपने को पूर्णिमागच्छीय नहीं अपितु सार्धपूर्णिमागच्छीय बतलाकर वहां विहार की अनुमति प्राप्त कर ली। इसी समय से सुमतिसूरि की शिष्य परम्परा सार्धपूर्णिमागच्छीय कहलायी। इस गच्छ के मुनिजन भी पूर्णिमागच्छीय मुनिजनों की भांति प्रतिमाप्रतिष्ठापक न होकर मात्र उपदेशक ही रहे हैं किन्तु ये संडेरगच्छ, भावदेवाचार्यगच्छ, राजगच्छ, चैत्रगच्छ, नाणकीयगच्छ, वडगच्छ आदि के मुनिजनों की भांति चतुर्दशी को पाक्षिक पर्व मनाते थे । यद्यपि इस गच्छ का उदय वि.सं. 1236 में हुआ माना जाता है, किन्तु इससे सम्बद्ध जो भी साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य आज मिलते हैं वे वि.सं. की 14वीं शती के पूर्व के नहीं हैं। अध्ययन की सुविधा के लिये सर्वप्रथम साहित्यिक और तत्पश्चात् अभिलेखीय साक्ष्यों का विवरण प्रस्तुत है : 1. शांतिनाथचरित -- वि.सं. 1412 में लिपिबद्ध की गयी इस कृति की प्रशस्ति में सार्धपूर्णिमागच्छ के आचार्य अभयचन्द्रसूरि का उल्लेख है। उक्त आचार्य किनके शिष्य थे, यह बात उक्त प्रशस्ति से ज्ञात नहीं होती। चूंकि सार्धपूर्णिमागच्छ से सम्बद्ध यह सबसे प्राचीन उपलब्ध साहित्यिक साक्ष्य है, इसलिये महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है। . 2. रत्नाकरावतारिकाटिप्पण -- वडगच्छीय आचार्य वादिदेवसूरि की प्रसिद्ध कृति प्रमाणनयतत्त्वावलोक [रचनाकाल वि.सं. 1181/ईस्वी सन् 11251 पर सार्धपूर्णिमागच्छीय गुणचन्द्रसूरि के शिष्य ज्ञानचन्द्रसूरि ने मलधारगच्छीय राजशेखरसूरि के निर्देश पर रत्नाकरावतारिकाटिप्पण [ रचनाकाल वि.सं. की 15वीं शती के प्रथम या द्वितीय दशक के आसपास] की रचना की' । यह बात उक्त कृति की प्रशस्ति से ज्ञात होती है।
Jain Education International
For Private & Penal Use Only
www.jainelibrary.org