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पुखराज भण्डारी
तक जाकर सिद्धशिला पर सादिअनन्तकाल तक अवस्थित हो जाता है। जीव संसार के जिस स्थान से मुक्त होता है, उसी सीधी रेखा में जाकर सिद्धशिला पर अनन्त सुखमय स्थिति में स्थित हो जाता है। इस बात को समझ लेना आवश्यक है। सिद्धों में परस्पर अवगाहन होने के कारण सिद्धशिला पर के एक प्रदेश में अनन्त सिद्ध वैसे ही समा जाते हैं, जैसे आकाश के एक प्रदेश में अनन्त पुद्गल-परमाणुओं का सघन स्कन्ध अपने घनत्व गुण के कारण समा जाता है। निर्वाण की परम अद्वैत स्थिति, जो वेदान्त-परम्परा का 'ब्रह्म है, और उसके साथ जैन- दर्शन मान्थ "सिद्ध" को मिलाने का जो प्रयत्न श्री ईश्वरदयाल ने किया है, वस्तुतः वह जैन दर्शन की मान्यता इसके एकदम विपरीत है। जैन दर्शन की अवधारणा है कि जैसे संसार में अलग-अलग जीव/आत्माएँ हैं, वैसे ही सिद्धशिला पर सिद्धात्माएँ भी अलग-अलग हैं। वे सिद्धजीव वहाँ अपने सम्पूर्ण अनावृत चैतन्य/पारिणामिक भाव के साथ अलग-अलग सत्ता में स्थित होते हैं। वहाँ भी द्वैत ही है, अद्वैत नहीं। वेदान्त तो एक ही ब्रह्म को संसार से निर्वाण तक प्रसारित मानता है। जैन दर्शन के साथ उसका यहाँ मूलभूत मतभेद है। हाँ, एक ही तरह के शुद्ध स्वरूप, चैतन्यमय, ज्योतिस्वरूप अनन्त सिद्धों को कोई एक रूप मान ले तो बाधित नहीं है।
"आत्मा की माप-जोख" ( देखिये पृष्ठ 113) के उत्तर :__ 1. जैन दर्शन की मान्यता है कि जीव (आत्मा) जो चेतन सत्ता है, उसमें संकोच-विस्तार का गुण अनादि से है। वह चींटी और हाथी में अपने सम्पूर्ण रूप में स्थित रहता है। यह नियम है कि जीव को संज्ञी-पंचेन्द्रिय मनुष्य के जन्म में ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह भी नियम है कि औदारिक (पौद्गलिक) मनुष्य शरीर के बाह्य आकार की अपेक्षा से जीव का आकार दो तिहाई होता है अर्थात् कायिक परमाणुओं की समग्रता से एक तिहाई कम। मुक्त होने पर जीव को खाली प्रदेशों को भरने की आवश्यकता नहीं होती। उसका स्वरूप तो शुद्ध रूप से अपनी अंतिम (चरम ) काया का दो तिहाई ही है।।
2. केवलि-समुद्घात जीव का असाधारण पुरुषार्थ है। वैसे जैनदर्शन जीव को जघन्यरूप से सूक्ष्मनिगोद और उत्कृष्ट रूप में केवलि-समुदघात के समय समग्र लोकाकाश-प्रमाण मानता ही है। जब केवलि के ज्ञान में मुक्ति का समय निकट आता है, तब केवलि समुद्घात करके मात्र आठ समय (काल का सूक्ष्मतम विभाग) में शेष समस्त अघाती कर्मों को झाड़कर (नाशकर) जीव अपने मूल स्वरूप (चरम-शरीर का दो तिहाई भाग ) में लौट आता है।
3. आत्मा अपना लोकव्यापी विस्तार अघाती कर्मों को नष्ट करने के लिए पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त करती है। जब तक देह है, तब तक कर्म शेष हैं अर्थात् केवलि-समुद्घात करके आठ समय में जीव देह प्रमाण हो जाता है -- तब भी देह रहता है। तेरहवें गुणस्थानक के अन्त में 'अ-इ-उ-ऋ-लू इन पाँच ह्रस्वाक्षरों के उच्चारण जितने अल्प समय में चरमदेह से भी मुक्त होकर जीव लोकाग्र में सिद्धशिला पर अवस्थित हो जाता है। संकोच-विस्तार गुण आत्मा का अपना है, वह कर्मों के आश्रित नहीं है।
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