________________
पुखराज भण्डारी
स्थान, जिस पर सिद्ध जीव सादि-अनन्त काल तक निवास करता है -- वह सिद्धशिला है, जिसका वर्णन प्राचीनतम जैन साहित्य से लेकर परवर्ती ग्रन्थों तक में मिलता है। अलोकाकाश में धर्मद्रव्य न होने से जीव की गति नहीं है, यह डॉ. ईश्वरदयाल अपने लेख में पृष्ठ 111 पर स्वीकार कर चुके हैं। उपसंहार
__ 1. जैन दर्शन की मान्यतानुसार-आत्मा अपनी मुक्तावस्था में न तो निःसीम है, न शून्य है, न गुणातीत है और न ही अद्वैत है। जैसे दीपक के बुझ जाने पर उसके पुद्गल आकाश में बिखर जाते हैं, समाप्त नहीं हो जाते। वैसे ही जीव अपने शुद्ध रूप में समाप्त या शून्य नहीं हो जाता। अपने अनन्त-चतुष्टय गुणों के साथ वह सदैव उपस्थित रहता है।
2. जीव शुद्ध रूप में ऊर्ध्वगति के साथ सिद्धशिला के ऊपर जाकर सादि-अनन्त काल तक सत-चित-आनन्द के साथ स्थित हो जाता है।
3. शरीर और मन के पार भी शुद्धात्मा/चेतनद्रव्य की सत्ता अपने स्वरूप और गुणों के साथ अवस्थित है। पर द्रव्य से सर्वथा वह मुक्त है, इसीलिए मुक्तात्मा/सिद्ध कहलाता है। स्वद्रव्य के गुण तो सदा जीव के साथ ही रहते हैं।
- पुखराज भण्डारी, पो. बागरा, 343025, जिला- जालौर (राजस्थान)
Jain Education International
For Private & Peyonal Use Only
www.jainelibrary.org