Book Title: Sramana 1993 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 35
________________ डॉ. ईश्वरदयाल कृत 'जैन निर्वाण: परम्परा और परिवृत्तं' 4. कर्मद्रव्य के अभाव में आत्मा शून्य प्रदेशों को नहीं भरता, वह अपने स्वाभाविक रूप में काया का दो तिहाई होता है । आत्मा में शून्य प्रदेश होता ही नहीं है। असीम आकार ग्रहण कर लेने की कल्पना अनुचित है। 5. आत्मा अपने संकोच-विस्तार रूप स्वशक्ति से ही सूक्ष्मनिगोद में भी और हाथी जैसे बड़े जीव के शरीर में भी संपूर्ण रूप से स्थित रहती है अपनी उस जन्म की आयु तक । यह शारीरिक अवगाहन शक्ति है । सिद्धों का परस्पर अवगाहन जीव के शुद्ध, बुद्ध, मुक्त होने पर होता है। 6. कर्म से ही जीव की सारी गति नहीं होती। कर्म मुक्त होते ही जीव अपने स्वगुण से ऊर्ध्वगमन करता है। यह ध्यान में रखने योग्य है कि गति की अपेक्षा से कर्म की अधोगति है और (मुक्त) जीव की ऊर्ध्वगति । जैसे एक तुंबे को घनी मिट्टी से 6-7 बार आवेष्टित करने पर वह जल में डूब जाता है और मिट्टी साफ हो जाने पर वही तुंबा जल के ऊपर आ जाता है । यह मात्र एक लाक्षणिक उदाहरण है। आत्मा की ऊर्ध्वगति को किसी उदाहरण की अपेक्षा नहीं है। 7. आत्मा के खाली प्रदेश नहीं होते। अजीव द्रव्य (कर्म) के निकलने पर उन्हें भरने की आवश्यकता नहीं होती । सिद्धों की परस्पर अवगाहना जीव के अपने अव्याबाध गुण की आभारी है। 8. शरीर से मुक्त होने का अर्थ है पुद्गलजन्य आकृति से मुक्त होना । जीव का अपना आकार है, जो पुद्गलजन्य नहीं है। मुक्त अवस्था में अन्तिम शरीर का दो तिहाई आकार जीव का रहता है, जो मात्र केवलिगम्य है । मुक्तावस्था में भी जीव निःसीम नहीं है, उसका ज्ञानदर्शन निःसीम है। आत्मा की अनेकता तो हम शुरू में ही सिद्ध कर चुके हैं। सिद्ध भी अनन्त हैं। एक से हैं, परन्तु एक नहीं । 9. शरीर के गुण पुद्गल के गुण हैं। जीव के अपने गुण हैं ज्ञान, दर्शन, उपयोग, वीर्य, अरूपित्व, सुख आदि । अलग-अलग सिद्धात्माओं में ये ही गुण हैं, लेकिन वे एक नहीं होतीं। I है । 10. पार्थक्य का आधार जैसे शरीर और मन के साथ व्यक्तिगत भिन्नता है, वैसे अपनी शुद्ध अवस्था में जीव का पार्थक्य भिन्न-भिन्न चेतनस्वरूप से है । सिद्धावस्था में शरीर, मन, कर्म, पुद्गल आदि का अस्तित्व या आधार रहता ही नहीं है और सिद्ध जीव अभिन्न, एक या निर्गुण नहीं होते, जैसा कि ऊपर सिद्ध किया जा चुका 11. डॉ. ईश्वरदयाल ने आचारांग - प्रथम श्रुतस्कन्ध 1-5-6 के सूत्र 176 'सव्वे सरा णियट्टन्ति...' को उद्धृत किया है, यह वर्णन मुक्तात्मा का है, और पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामी ने किया है। वास्तव में यही भगवान महावीर ने कहा है, पर, लेखक ने निर्वाण की स्थिति का जो चित्र प्रस्तुत किया है, उसको अद्वैत और शून्य बतलाया है - यह बात जैन दर्शन को मान्य नहीं है। निराकार और शून्य का प्रश्न ही नहीं है। आत्माएँ (संसारी और सिद्ध दोनों अवस्थाओं में ) अलग-अलग हैं और कर्ममुक्त होने पर ऊर्ध्वगमन जीव का अपना स्वभाव है 1 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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