Book Title: Sramana 1993 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 33
________________ डॉ. ईश्वरदयाल कृत 'जैन निर्वाण : परम्परा और परिवृत्त "वह न तिक्त है, न कटुक, न कसैला, न खट्टा, न मीठा न कठोर, न कोमल, न भारी, न हल्का न स्निग्ध न रुखा"। "कोई शरीर नहीं है जिसका" "कभी जन्म नहीं होगा जिसका" "स्पर्श नहीं कर सकता जिसको कोई" "वह न स्त्री है, न पुरुष, अन्य कुछ भी नहीं" "वह ज्ञाता है, चेतन है" "कोई उपमा नहीं है उसकी" "अरूपी सत्ता है" "उस निर्विशेष की कोई विशेषता नहीं कही जा सकती" यह है निर्वाण की परम स्थिति जो गुणातीत है, शब्दातीत है, अद्वैत है। द्वैत रूप गुणात्मक होते हैं। शरीर के पार, मन के पार रूप-गुणों की सत्ता नहीं रहती। अतः द्वैत की सत्ता भी नहीं रहती। उसे शून्य कहें या सर्व, दोनों मात्र दो शब्द हैं। महाप्राण निराला ने लिखा है -- "शून्य को ही सब कुछ कहें या कुछ भी नहीं, दोनों एक ही चीज है" (शून्य और शक्ति) लोक-अलोक की सारी सीमाएँ उस ज्ञाता की परम सत्ता के समक्ष अदृश्य हो जाती हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में कहा है : आदा णाण पमाणं गाणं णेयप्पमाणमुदिळं। णेयं लोयालोयं तम्हा गाणं तु सव्वनयं ।। ज्ञाता ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है, तथा ओय है लोकालोक प्रमाण। अतः सर्वगत है ज्ञान, सर्वगत है ज्ञाता-आत्मा अपनी शुद्ध-बुद्ध सत्ता में। महावीर के शब्दों में आत्मा एक है--- एगे आया। इस एक को जो जानता है वह सब को जानता है -- जे एग जाणइ से सव्वं जाणइ । यही वेदान्त, बौद्ध, ताओ, कनफ्यूशियस, ईसाई, जरथुस्त्र -- दर्शन का मन्तव्य है। भेद है तो शब्दों के, जो देशकाल व परम्परा-सापेक्ष होते हैं। लेकिन अभेद है सत्य, एक है सत्य, भगवान् है सत्य -- सच्चं भगवं। जैनदर्शन सिद्धों के आठ गुण मानता है : 1. अनन्तज्ञान 2. अनन्तदर्शन 3. अनन्त-अव्याबाध सुखमय स्थिति 4. अनन्तचारित्र 5. अक्षय स्थिति 6. अरूपी 7. अगुरुलघु 8. अनन्तवीर्य इस लोक में आत्माएँ/जीव अनन्त हैं। अनादि निगोद से निकलकर, भवस्थिति परिपक्व होने पर, जीव अपने चरम जीवन में मनुष्य-जन्म पाकर कर्मों की निर्जरा करता है। संपूर्ण कर्मों का क्षय करके शुद्ध-बुद्ध और मुक्त होकर ऊर्ध्वगति के द्वारा, मात्र एक समय में वह, लोकाग्र Jain Education International For Private & Personal Use Only ३१ www.jainelibrary.org

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