Book Title: Sramana 1993 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 15
________________ आचार्य हरिभद्र और उनका योग 8. परा दृष्टि -- यह दृष्टि समाधिनिष्ठ, आसक्ति दोषों से रहित और जागरूक चित्त वाली होती है। इसमें चित्त में प्रवत्ति करने की कोई वासना नहीं रहती है। इसमें परमतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है और साधक आत्मभाव से रमण करता है। इस दृष्टि में साधना अतिचारों ( दोषों) से निर्दोष होती है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय तथा अन्तरायकर्म क्षीण हो जाते हैं। आत्मा सर्वज्ञ परमात्मा बन जाती है। इसमें अष्टांग योग का आँठवा अंग समाधि सध जाता है।४६ इस प्रकार आध्यात्मिक योग साधना के द्वारा साधक शनैः-शनैः आत्मोत्क्रांति करता हुआ मोक्ष एवं निर्वाण पद को प्राप्त कर लेता है। पातंजल योग वर्णित समस्त अष्टांग योग इन आठ योग दृष्टियों में समाहित हो जाता है। इन दृष्टियों में सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का सार निहित है। ___ धर्मशास्त्रों में बताई गई विधि के अनुसार गुरुजनों की सेवा करना, उनसे तत्त्वज्ञान सुनने की उत्कंठा, क्षमतानुसार विधि-निषेधों का पालन करना व्यवहार योग है।४७ जैन परम्परा में आध्यात्मिक विकास की सूचक 14 भूमिकायें गुणस्थान के नाम से जानी जाती हैं। आचार्य हरिभद्र ने इन आध्यात्मिक विकास की 14 भूमिकाओं को निम्न पाँच योग भूमिकाओं में समाहित किया है : योग की पाँच भूमिकायें -- १. अध्यात्मयोग -- जैन परम्परा में मोक्षाभिलाषी आत्मा को अध्यात्म-योग से युक्त होने की प्रेरणा दी गई है, क्योंकि चारित्र की शुद्धि के लिये अध्यात्म योग का अनुष्ठान मुमुक्षु, आत्मा के लिये विशेष महत्त्व रखता है। इसमें साधक अपने सामर्थ्य के अनुसार अणुव्रतों और महाव्रतों को स्वीकार करके प्रमोद, मैत्री, करुणा, माध्यस्थ आदि चार भावनाओं का चिन्तन-मनन करता है।४८ २. भावना योग -- प्राप्त हुये अध्यात्म तत्त्व को निष्ठापूर्वक निरन्तर स्मरण करना भावना योग है। इसमें अशुभ कर्मों की निवृत्ति होती है, सदभावना तथा समताभाव की वृद्धि होती है, चित्त समाधियुक्त हो जाता है। ___ आगमों में भी भावनायोग के महत्त्व को बताते हुये कहा गया है कि साधक भावनायोग से जन्ममरण के दुःखों से छुटकारा पाकर शान्ति का अनुभव करता है। ३. ध्यान योग -- वित्त को बाह्य विषयों से हटाकर किसी एक सूक्ष्म पदार्थ में एकाग्र करना ध्यान योग है। शुभ प्रतीकों का आलम्बन लेकर चित्त का स्थिरीकरण ध्यान कहा जाता है। कह दीपक की स्थिर लौ के समान ज्योतिर्मय एवं निश्चल होता है, सूक्ष्म तथा अन्तःप्रविष्ट चिन्तन से समायुक्त होता है। प्रश्नव्याकरण में निश्चल दीपशिखा के समान अन्य विषयों के संचार से रहित एक ही विषय पर धारावाही प्रशस्त सूक्ष्म बोध को ध्यान कहा गया है।३ ४. समता योग -- विवेच्य ज्ञान की उत्पत्ति से आत्मा में विचार-वैषम्य का लय और सम भाव का परिणमन होने लगता है। वस्तु स्वरूप का यथार्थ बोध होने पर समता का भाव आ जाता है, Jain Education International For Private 3ersonal Use Only www.jainelibrary.org

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