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आचार्य हरिभद्र और उनका योग
जीव और कर्म पुद्गलों के संयोग से संसार-भ्रमण होता है। जीवन और कर्म पुद्गलों के वियोग से मुक्ति होती है।६७ हिंसा आदि पापाचरणों से अशुभ कर्मों का, अहिंसादि पुण्याचरणों से शुभ कर्मों का बोध होता है। कुछ तार्किक कहते हैं कि सुख का कारण शुभ कर्म नहीं है क्योंकि संसार में पापाचरण वाले व्यक्ति को भी सुख की प्राप्ति होते देखा जाता है। आचार्य हरिभद्र कहते हैं ऐसे व्यक्ति का अन्तिम परिणाम दुःख रूप ही होता है वह सुख जो उसे प्राप्त हो रहा है वह किसी पूर्व जन्मकृत धर्माचरण का ही फल है। आचार्य हरिभद्र का कहना है कि पूर्व बद्ध कर्मों का क्षय, तप, संवर, निर्जरा द्वारा समय से पूर्व ही किया जा सकता
है।१००
आत्मा और कर्म का सम्बन्ध प्रवाह की दृष्टि से अनादि है। प्राणी अनादि काल से इस कर्म- प्रवाह में पड़ा हुआ है।१०१ जीव पुराने कर्मों का विपाक भोगते समय नवीन कर्मों का उपार्जन करता रहता है किन्तु जब तक उसके समस्त कर्म नष्ट नहीं हो जाते उसकी भव-भ्रमण से मुक्ति नहीं होती। प्राणी को स्वोपार्जित कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। जैन परम्परा में कर्मों की आठ मूल प्रकृतियाँ कही गई हैं। पहली 4 प्रकृतियाँ घाती कहलाती हैं इनमें आत्मा के चार मूल गुण ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति का घात होता है :1. ज्ञानावरण -- आत्मा में रहने वाले ज्ञान गण को प्रकट न होने देना। 2. दर्शनावरण -- आत्म बोध रूप दर्शन गुणों को प्रकट न होने देना। 3. वेदनीय -- वेदनीय कर्म के प्रभाव से सुख-दुःख की अनुभूति होती है। 4. मोहनीय -- मोहनीय कर्म हमारी जीवन दृष्टि और जीवन व्यवहार को दूषित बनाता है। 5. आयु -- कर्म के प्रभाव से जीव की आयु निश्चित होती है। यह आत्मा को शरीर से बांधे
रखता है। 6. नाम -- जो शरीर एवं इन्द्रिय रचना का हेतु हो, यह व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्धारक
होता है। 7. गोत्र -- जिसके प्रभाव से उच्च अथवा नीच कुल में जन्म होता है या अनुकूल या प्रतिकूल
परिवेश की उपलब्धि होती है। 8. अन्तराय -- यह कर्म हमारी प्राप्तियों या उपलब्धियों में बाधक बनता है।
कर्मों से मुक्ति के लिये दो प्रकार की क्रियायें आवश्यक मानी जाती हैं -- 1. नवीन कर्मों के उपाजन का निरोध, इसे संवर भी कहते हैं। 2. पूर्वोपार्जित कर्मों का क्षय, इसे निर्जरा कहते हैं।
इन दोनों की पूर्णता से ही मुक्ति होती है। नवीन कर्मों का निरोध-संवर, व्रत, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, चारित्र की साधना से होता है और तप के द्वारा पूर्वबद्ध कर्म की निर्जरा होती है। तय -- सुसुप्त शक्तियों को जागृत करने के लिये, मन को एकाग्र तथा इन्द्रियों का निग्रह करने
के लिये जैन योग साधना में तप को बड़ा महत्त्व दिया गया है।१०३ तप से ही योगी कर्मों की Jain Education International For Private & Personal Use Only
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