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डॉ. ईश्वरदयाल कृत 'जैन निर्वाण : परम्परा और परिवृत्त' लेख में 'आत्मा की माप-जोख' शीर्षक के अन्तर्गत उठाये गये प्रश्नों के उत्तर :
- पुखराज भण्डारी
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी से प्रकाशित ‘लाला हरजसराय स्मृति ग्रन्थ के पृष्ठ 107 से 115 में डॉ. ईश्वरदयाल का उपर्युक्त लेख प्रकाशित हुआ है। इस लेख में लेखक ने "मोक्ष" व "निर्वाण" की सुस्पष्ट व्याख्या की है। आपने कर्मों के सम्पूर्ण क्षय को "परिणति" और "निर्वाण" को "स्थिति" की संज्ञा दी है, और इस तरह मोक्ष और निर्वाण की पतली भेदरेखा को चित्रित किया है। आपने सुन्दर ढंग से "पारंगमा", "तीरंगमा" तथा ओघंतरा" को "मोक्ष" और "ण इत्थी, ण पुरिसे, ण अन्नहा" को मुक्तात्मा की अवस्था, अर्थात् "निर्वाण" कहकर आगमों की भाषा में समझाया है।
पृष्ठ 111 में आपने सिद्धात्मा के विषय में निम्नलिखित बातें लिखी हैं :1. पुद्गल द्रव्य के निकल जाने से आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में रह जाती है। 2. इससे खाली प्रदेशों को आत्मद्रव्य से भरने के बाद उसका आकार शरीर का दो तिहाई
रह जाता है। 3. वह ( मुक्तात्मा ) ऊपर उठती है और लोकाग्र तक जाकर सिद्धशिला पर ठहर जाती है। 4. धर्मद्रव्य उपस्थित न होने के कारण उसकी अलोकाकाश में गति नहीं हो सकती। 5. सिद्धों में परस्पर अवगाहन होता है। जहाँ एक सिद्ध होता है, वहाँ एक दूसरे में प्रवेश
पाकर अनन्त सिद्धात्माएँ स्थित हो जाती हैं। जैसे दग्ध बीजों में अंकुर नहीं फूट सकते, वैसे ही मुक्त जीव फिर जन्म धारण नहीं
करते। 7. सिद्धात्माएँ अद्वितीय सुखमय होती हैं।
इस वर्णन के बाद पृष्ठ 113 पर "आत्मा की माप जोख" शीर्षक के अन्तर्गत लेखक ने निम्न प्रश्न उठाये हैं, जिनके प्रश्नों के उत्तर देना ही हमारा उद्देश्य है। आत्मा की माप-जोख
1. पारम्परिक जैन मान्यता यह है कि निर्वाण के समय आत्मा पूर्व शरीर के ही दो तिहाई आकार में होती है। क्योंकि कर्म-परमाणुओं के निकल जाने पर खाली हुए प्रदेशों को भर कर
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