Book Title: Sramana 1993 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 22
________________ डॉ. कमल जैन निर्जरा१०४ करके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को प्राप्त करता है। तप की आराधना गृहस्थ एवं श्रमण दोनों के लिये आवश्यक है। कर्म रोग को मिटाने के लिये तप अचूक औषधि हैं,१०५ तप से मन, इन्द्रिय और योग की रक्षा होती हैं।०६। अनिदान पूर्वक किया गया तप सुख का प्रदाता है।१०७ तप आत्मशक्ति को प्रकटीकरण करने की क्रिया और साधना है।१०८ कषायों का निरोध, ब्रह्मचर्य का पालन, जिनपूजा, अनशन आदि तप के रूप कहे गये हैं।१०६ तप के दो भेद हैं। बाह्य तप और अभ्यन्तर तप, बाह्य तप का उद्देश्य शारीरिक विकारों को नष्ट करना तथा इन्द्रियों पर जय प्राप्त करना है इसके 6 भेद हैं१० :1. अनशन -- विशिष्ट अवधि तक आहार का त्याग करना। योगबिन्दु में चाँद्रायण, कृच्छ __ मृत्युंजय, पापसूदन आदि तपों का उल्लेख हुआ है।१११ 2. ऊनोदरी -- भूख से कम खाना। 3. वृत्ति-परिसंख्यान -- भोग्य पदार्थों की मात्रा और संख्या का कम करना। 4. रस-परित्याग -- दूध, दही, घी, मक्खन आदि रसों का त्याग। 5. विविक्तशय्यासन (संलीनता) -- बाधा रहित एकान्त स्थान में वास करना। 6. कायक्लेश -- विविध आसनों का अभ्यास करते हुये, सर्दी-गर्मी को सहना एवं देह के प्रति ममत्व का त्याग करना। __बाह्य तप से शरीर, मन और वृत्तियों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। मानसिक शक्तियों में वृद्धि होती है। तपोयोगी साधक बाह्य तपों की आराधना से आन्तरिक शुद्धि की ओर अग्रसर होता है। बाह्य तप अभ्यंन्तर तप के पूरक हैं। इससे कषाय, प्रमाद आदि विकारों का शमन किया जाता है। अभ्यंतर तप के छः भेद हैं१२ -- 1. प्रायश्चित्त -- चित्त शुद्धि के लिये दोषों की आलोचना करके पापों का छेदन करता११३ 2. विनय -- गुरु अथवा आचार्य को सम्मान देना तथा उनकी आज्ञा का पालन करना। विनय से अहंकार विगलित होता है, हृदय कोमल बन जाता है। मन में समर्पण एवं भक्ति का अंकुर प्रस्फुरित होता है। 3. वैयावृत्य तप -- निःस्वार्थ भाव से गुरु, वृद्ध, रोगी, ग्लान आदि की सेवा-शुश्रूषा करना। 4. स्वाध्याय -- ज्ञान प्राप्ति के लिये अप्रमादी होकर प्रयास करना। वाचना, पृच्छना, __ परिर्वतना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा इसके पाँच भेद कहे गये हैं।१४ 5. व्युत्सर्ग -- देह एवं वस्तुओं के प्रति ममत्व बुद्धि का त्याग करना। भगवान महावीर ने भी 12 वर्ष उत्कष्ट तप की साधना की थी। इस दीर्घ कालावधि में उन्होंने केवल 359 दिन आहार ग्रहण किया था।११५ फलाकांक्षा से रहित किया गया, तप संसार क्षय का कारण और निर्वाण प्राप्ति का अचूक साधन है।११६ दान -- परमार्थ की सिद्धि के लिये दान, शील, भावना और तप ये चार प्रमुख करण बताये गये हैं।११७ आचार्य हरिभद्र ने दान और परोपकार रहित सम्पत्ति को लोकविरुद्ध कहा है।११८ Jain Education International For Private & Per 20 al Use Only www.jainelibrary.org

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