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आचार्य हरिभद्र और उनका योग
सुपात्र को दिया हुआ दान उसी प्रकार फलदायक होता है जैसे गाय को दिया हुआ तण दूध में बदल जाता है। १८ दान से व्यक्ति के महानतम लक्ष्य परमार्थ की सिद्धि तो होती ही है दान से यश का संवर्धन होता है, लोकप्रियता मिलती है, दारिद्रय और क्लेश का नाश होता है।१२० कार्य करने में अक्षम, अन्ध, दुःखी, रोग-पीडित, निर्धन और जिनकी जीविका का कोई सहारा नहीं है ये सब दान के अधिकारी हैं।१२१ अनुकम्पा जन्य दान प्रशस्त चित्त का जनक, ममत्व का नाशक और शुद्ध पुण्य के अभ्युदय में प्रधान कारण है।१२२ शुद्ध दान देने वाला मनुष्य शाश्वत सुख-सम्पत्ति को प्राप्त करता है।१२३ आचार्य हरिभद्र ने तीन प्रकार के दानों का उल्लेख किया है -- 1. ज्ञान दान 2. अभय दान 3. धर्मोपग्रह दान । ज्ञान-दान सब दानों में श्रेष्ठ माना गया है।१२४ आचार्य ने अपने पोष्यवर्ग के लिये कोई असुविधा न पैदा करते हुये तथा अपने हितों का भी ध्यान रखते हुये दीन-दुखी लोगों को दान देने की सलाह दी है। इस प्रकार उन्होंने दान के संदर्भ में व्यावहारिकता और दूरदर्शिता का परिचय दिया है। व्यक्ति के दान से आश्रित जन, परिजन और भृत्य वर्ग को कष्ट न हो यह बड़ी महत्त्वपूर्ण बात उन्होंने कही है। कुछ पुण्य- लोभी भावुक दानी होते हैं। वे स्वयं तो दानी बनते हैं किन्तु उनके आश्रित जन असुविधायें झेलते हैं। आचार्य हरिभद्र ने ऐसे दान को प्रशंसनीय नहीं माना है। मनुस्मृति में भी अपने आश्रित परिवार को पीड़ित कर केवल सुख की इच्छा से दान देने वाले को दुःख का भागी कहा है।125 ___ मन, वचन, काया से परिशुद्ध तथा जैनाचार के अनुकूल धार्मिक जनों को दिया गया अशन, पान, वस्त्र, औषधि आदि धर्मोपग्रहदान है। 25 जप -- योग की प्रारम्भिक अवस्था में जप का विशेष महत्त्व है। जप अध्यात्म है, जप देवता के अनुग्रह का अंग है। जैसे मन्त्र-प्रयोग से सर्प आदि का विष दूर हो जाता है उसी प्रकार मन्त्र जप से आत्मा से पाप दूर हो जाते हैं। किसी मन्त्र का बार-बार चिंतन-मनन करना जप कहा जाता है। उत्तम मन्त्र ही जप का विषय है। आचार्य हरिभद्र कहते हैं -- गुरु तथा देव की साक्षी में पदमासन में स्थित होकर चिंतनीय विषय में मन लगा कर दंश आदि उपद्रव को सहता हुआ साधक जप करे।१२७
मनीषियों ने शान्त एवं एकान्त-स्थल जप के लिये उत्तम कहे हैं। इसके लिये शुद्ध जलयुक्त नदी, सरोवर, कूप, वापी आदि का तट और लताओं के मण्डप आदि उत्तम स्थान कहे गये हैं।२८ जप के लिये हाथ का अंगूठा, अंगुलियों के पोरों पर अथवा मनकों पर चलता है, दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर स्थित रहती है तथा अन्तरात्मा में प्रशांत भाव या चित्त वृत्ति से जप के विषय, अक्षर एवं तद्गत अर्थ-आलम्बन के साथ जप किया जाता है।१२६ जप से मोह, इन्द्रिय-लिप्सा, काम-वासना तथा कषायों का शमन होता है, कर्मों की निर्जरा होती है और शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है। प्रतिज्ञा पूर्वक जप करने वाले के व्यक्तित्व में ऐसी पवित्रता आ जाती है कि किसी समय अगर वह जप नहीं भी करता, तो भी उसकी अन्तर्वत्ति जप पर ही केन्द्रित रहती है।३० जप के फलस्वरूप भाव धर्म, अन्तः शुद्धिमूलक, अध्यात्म धर्म
निष्पन्न होता है।१३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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