Book Title: Sramana 1993 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 20
________________ डॉ. कमल जैन ___ योग साधना से साधक को स्थिरता, प्रतिभा, अन्तः स्फुरणा, धीरज, श्रद्धा, मैत्री, अन्तर्ज्ञान, लोकप्रियता, मृत्युज्ञान, सन्तोष, क्षमाशीलता, सहनशीलता, सदाचार, सुख-शान्ति, गौरव, यथासमय अनुकूल बाह्य परिस्थितियां पैदा हो जाना, जैसे अनेक सुख प्राप्त होते हैं। योगाभ्यास द्वारा आत्मा के क्लेशात्मक परिणामों का उपशम एवं क्षय होता है। योग जन्म-मरण की परम्परा को नष्ट करता है। दुखों का नाशक है, मृत्यु को भी जीत लेता है। योग द्वारा आत्मा क्रमशः विकास करती हुई उत्कर्षमय अवस्था प्राप्त करती है तत्त्वतः वही मुक्ति है।८४ आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि जब चित्त योग रूपी कवच से ढका रहता है तो काम के तीक्ष्ण अस्त्र जो तप को भी छिन्न-भिन्न कर देते हैं कुण्ठित हो जाते हैं। योग रूपी कवच से टकराकर वह शक्ति-शून्य हो जाते हैं। योग मोक्ष का हेतु है वह शुद्ध ज्ञान और अनुभव पर आधृत है। आत्मकल्याणेच्छु प्रज्ञाशील पुरुषों को इसका अनुसन्धान करना चाहिये।८६ अज्ञानता, अविद्या द्वारा अशुद्ध आत्मा योग रूपी अग्नि पाकर शुद्ध निर्मल हो जाती है। आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि योग उत्तम कल्पवृक्ष है, उत्तम चिन्तामणिरत्न है, वह साधक की समस्त इच्छाओं को पूर्ण करता है। योग ही जीवन की चरम सफलता का हेतु है। योग न केवल सांसारिक सुखों से अपितु जन्ममरण के दुःखों से भी छुटकारा दिला कर निर्वाण की प्राप्ति कराता है। लोक तथा शास्त्र से जिसका अविरोध हो जो अनुभव संगत तथा शास्त्रानुगह हो वही योग अनुसरणीय है। मात्र जो जड़ श्रद्धा पर आधृत है विद्वज्जन उसे उपादेय नहीं मानते।। जैन योग का केन्द्रबिन्द आत्मस्वरुप उपलब्धि है। जहाँ अन्य दर्शनों में जीव का ब्रहम में लीन हो जाना योग का ध्येय निश्चित किया है। वहाँ जैन दर्शन आत्मा की पूर्ण स्वतंत्रता और पूर्ण विशुद्धि के योग का ध्येय निश्चित करता है। जैन दृष्टि के अनुसार योग का अभिप्राय सिर्फ चेतना का जागरण ही नहीं है वरन् चेतना का ऊर्ध्वारोहण है। योग का वास्तविक फल मुक्तावस्था स्वरूप आनन्द है जो ऐकान्तिक, अनुत्तर और सर्वोत्तम है ? | योग विद्या आध्यात्मिक विज्ञान है। अधिकारी जहाँ इसके महत्त्वपूर्ण प्रयोग द्वारा असीम लाभ उठा सकते हैं वहाँ अनाधिकारी हानि उठा लेते हैं। जैन योग और आत्म विकास अध्यात्म की साधना का आधार आत्मा को कर्म से मुक्त करना है। कर्मशास्त्रीय परिभाषा में प्रवृत्ति या योग से कर्मों का आकर्षण या आस्रव होता है। हमारा चैतन्य कर्म पुद्गलों से आवृत हो जाता है। तपोयोग के द्वारा उसे कर्मावरण से अनावृत किया जा सकता है। जिस प्रकार बीज के सर्व जल जाने से उसमें अंकुरण की क्षमता नहीं होती उसी प्रकार कर्म रूपी बीज के जल जाने से संसार रूपी अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती।३ आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि काल से है फिर भी दोनों के स्वभाव एक दूसरे से भिन्न हैं।८४ कर्म में आत्मा के परिणामों के अनुरूप परिणत होने की योग्यता है इसी कारण आत्मा का कर्मों पर कर्तृत्व घटित होता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग के साहचर्य से कर्म आत्मा के साथ सम्बन्धित होते हैं। फिर भी तप-साधना के द्वारा इनका पार्थक्य सम्भव है। Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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