Book Title: Sramana 1993 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 17
________________ आचार्य हरिभद्र और उनका योग यह पाँच प्रकार का योग निश्चय दृष्टि से उसी को सधता है जो चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम से अंशतः या सम्पूर्णतया चारित्र सम्पन्न होता है। जब योग योगी के सम्पर्क में आने वाले अन्य लोगों को भी उत्प्रेरित एवं प्रभावित करे तब इसे सिद्धि योग कहा जाता है।६२ तात्त्विक दृष्टि से योग के भेद६३ -- ___ पाँच प्रकार के शुभ योग कहे गये हैं -- 1. प्रणधि-- अपने आचार-विचार में स्थिर रहते हुये, सभी जीवों पर समता भाव रखते हुये निश्चल मन से कर्तव्य का संकल्प करना प्रणधि है। इसमें परोपकार करने की इच्छा और हीन गुणी पर भी दया भाव रहता है। 2. प्रवृत्ति -- इसमें साधक निर्दिष्ट योग साधनाओं में मन को प्रवृत्त करता है अर्थात् धार्मिक व्रत अनुष्ठानों को सम्यक्तया पालन करता है। 3. विघ्नजय -- योग साधना के यम नियमों का पालन करते हुये अनेक प्रकार की मोहजन्य बाहय या आंतरिक कठिनाइयां आती हैं। उन पर विजय पाये बिना साधना पूर्ण नहीं हो सकती। अतः अन्तरायों की निवृत्ति करने वाला शुद्ध आत्म परिणाम विघ्नजय है। 4. सिद्धि -- समता भावादि की उत्पत्ति से साधक की कषायजन्य सारी चंचलता नष्ट हो जाती है। वह अधिक गुण वाले के प्रति बहुमान और हीन गुणवालों के प्रति दया और उपकार की भावना रखने लगता है। 5. विनियोग -- सिद्धि के उपरान्त साधक का उत्तरोतर आत्मविकास होता जाता है उसकी धार्मिक वृत्तियों में दृढ़ता, क्षमता, ओज और तेज आ जाता है। उसकी साधना ऊर्जस्वी हो जाती है। साधक की धार्मिक वृत्तियों का उत्तरोत्तर विकास होने लगता है। परोपकार कल्याण आदि वृत्तियों का विकास हो जाता है।६४ यह सब योग की क्रमिक विकासोन्मुख स्थितियां हैं। चारित्रिक विकास तथा योग साधना हेतु साधकों के लिये कुछ आवश्यक नियम, उपनियम तथा क्रियाओं को करने का विधान है क्योंकि उनके बिना योग सिद्धि संभव नहीं है। हरिभद्र ने उत्साह, निश्चय, धैर्य, सन्तोष, तत्त्वदर्शन तथा जनपद त्याग (परिचित क्षेत्र से दूर रहना) लौकिक जनों द्वारा स्वीकृत जीवनक्रम का परिवर्जन -- ये योग साधने के हेतु कहे हैं। हरिभद्र ने योग अनुष्ठानों को पाँच भागों में विभक्त किया है।६६ योगिक अनुष्ठान 1. विष अनुष्ठान -- इस अनुष्ठान को करते समय साधक की इच्छा सांसारिक सुख भोगों की ओर होती है। यश, कीर्ति, इन्द्रिय सुख, धन आदि की प्राप्ति ही उसका परम लक्ष्य होता है। राग आदि भावों की अधिकता के कारण यह अनुष्ठान विष अनुष्ठान है। Jain Education International For Private & Fogonal Use Only www.jainelibrary.org

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