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डॉ. कमल जैन
सूक्ष्म कर्मों का क्षय होने लगता है। समता योगी चामत्कारिक शक्तियों का प्रयोग नहीं करता। उसकी आशाओं-आकांक्षाओं के तन्तु टूटने लगते हैं। ५. वृतिसंक्षययोग -- आत्मा में मन और शरीर के संसर्ग से उत्पन्न होने वाली विकल्प रूप तथा चेष्टारूप वृत्तियों का जो निरोध किया जाता है और उन्हें पुनः उत्पन्न नहीं होने दिया जाता उसे वृतिसंक्षय योग कहा जाता है। वृतिसंक्षय से सर्वज्ञता, शैलेशी अवस्था, मानसिक, कायिक, वाचिक प्रवृत्तियों का सर्वथा निरोध, मेरुवत् अप्रकम्प अडोल स्थिति तथा निर्बाध आनन्द प्रात होकर अन्ततः मोक्ष की प्राप्ति होती है। अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, वृत्तिसंक्षय इन पाँच में अष्टांग योग के आठ अंगों का समावेश हो जाता है। अध्यात्म और भावना में यम, नियम, आसन, प्रत्याहार का तथा धारणा और ध्यान समता एवं वृत्तिसंक्षय में समाधि का समावेश हो जाता है। आचार्य हरिभद्र ने धर्मशास्त्रों में बताई हुई विधि के अनुसार गुरुजनों की सेवा करना, उनसे तत्त्व ज्ञान सुनने की इच्छा रखना, क्षमतानुसार शास्त्रोक्त विधि निषेधों का पालन करना व्यवहार योग कहा है।६ व्यवहार योग का अनुसरण करते-करते सम्यग्ज्ञान, सम्यादर्शन और सम्यक्चारित्र में जो विशेष शुद्धि आ जाती है उसे निश्चय योग कहा
साधना की दृष्टि से योग के भेद
आचार्य हरिभद्र ने साधना की दृष्टि से योग के 5 भेद किये है :1. स्थान -- स्थान का अभिप्राय आसन से है जिस सुखासन पर योगी अधिक देर तक चित्त
और शरीर को स्थिर रखता हुआ ध्यानस्थ रह सके वही आसन या स्थान उत्तम है। 2. ऊर्ण -- प्रत्येक क्रिया समवाय के साथ जो सूत्र का उच्चारण किया जाता है उसे ऊर्ण योग कहा जाता है। इनमें स्वर, मात्रा, अक्षर आदि का ध्यान रखकर उपयोगपूर्वक शुद्ध उच्चारण किया जाता है। 3. अर्थ-- सूत्रों के अर्थ को समझना ही अर्थ योग है। 4. आलम्बन -- ध्यान में रूपात्मक बाह्य विषयों का आश्रय लेना आलम्बन कहा जाता है। 5. अनावलम्बन -- ध्यान में बाह्य विषयों का आश्रय न लेकर शून्य में ही ध्यान को केन्द्रित करना अनावलम्बन योग है। महावीर स्वलंबन और निरलम्बन दोनों प्रकार की ध्यान साधना करते थे, वे प्रहर तक अनिमेष दृष्टि से ध्यान करते थे, मन को एकाग्र करने के लिये दीवार का अवलम्बन लेते थे। ध्यान के विकास-काल में उनकी त्राटक साधना बहुत देर तक चलती थी।
अनावलम्बन योग के सिद्ध हो जाने पर 'क्षपक श्रेणी शुरु हो जाती है। फलतः ऐसा साधक परम निर्वाण की प्राप्ति करता है। इसमें साधक के संस्कार इतने दृढ़ हो जाते हैं कि योग प्रवृत्ति करते समय शास्त्र का स्मरण करने की कोई अपेक्षा ही नहीं रहती। समाधि की अवस्था प्राप्त हो जाती है। इसकी तुलना पांतजल योग के 'समाधि अंग से की जा सकती
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