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डॉ. कमल जैन
4. निष्पन्न योगी जिसकी मोक्ष साधना निष्पन्न हो चुकी है वह निष्पन्न योगी है। ऐसा योगी सिद्धि के अति निकट होता है। उसकी प्रवृत्ति सहज रूप में ही धर्ममय हो जाती है।
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योग के अधिकारी
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जीवन के अनादि प्रवाह में विविध कारणों से कर्ममल क्षीण होते रहते हैं और एक ऐसा समय आता है जब जीवन की वृत्ति भोगाभिमुख न होकर योगाभिमुख होने लगती है, राग-द्वेष की तीव्रता भी मंद हो जाती है। वह नये कर्मसंस्कारों का निर्माण करे तो भी उसके संसार में दीर्घकाल तक रहने की संभावना नहीं होती ऐसे काल को जैन परिभाषा में चरमावर्त कहा गया है | १६ आचार्य ने योग के अधिकारियों की चर्चा करते हुये कहा है कि जो साधक 'अचरमावर्त में रहता है, विषय वासना और कामभोगों में आसक्त बना रहता है, वह साधक योग मार्ग का अधिकारी नहीं हो सकता। कुछ लोग तो केवल लोक व्यवहार के कारण ही इसकी साधना करते हैं, आचार्य ने ऐसे लोगों को भवाभिनन्दी कहा है। ये लोग योग के लिये अनाधिकारी माने जाते हैं। १७ भवाभिनन्दी जीव दुःखमय संसार में करणीय, अकरणीय को भूल कर हिंसा, परिग्रह, भोग आदि अकृत्यों में प्रवृत्त रहते हैं उसी में सुख मानते हैं, जो जीव चरमावर्त में रहता है, जिसने मिथ्यात्व ग्रन्थि का भेदन कर लिया है, जो शुक्ल पक्षी है, वही मोक्ष साधना का अधिकारी है, ऐसा साधक शीघ्र ही अपनी साधना से भवभ्रमण का अंत कर देता है, सात्विक मन, सद्बुद्धि, सम्यग्ज्ञान की उत्तरोत्तर विकासोन्मुखता के कारण वह मुक्ति परायण होता है । १६ जैनत्व जाति से, अनुवंश से अथवा किसी प्रवृत्ति - विशेष से नहीं माना गया है, परन्तु यह आध्यात्मिकता की भूमिका के ऊपर निर्भर करता है। प्रथम सोपान में दृष्टि मोक्षाभिमुख होती है जिसका पारिभाषिक नाम अपुनर्बन्धक है, मोक्ष के प्रति सहज श्रद्धा और यथाशक्ति दूसरा सोपान है। जब श्रद्धा आंशिक रूप से जीवन में उतरती है तो देशविरति तीसरा सोपान होता है, जब सम्पूर्ण चारित्र की कला विकसित होती है, तो चौथा सोपान सर्वविरति होता है। हरिभद्र ने योगबिन्दु में योग के अधिकारियों को चार भागों में विभक्त किया है 20 :
1. अपुनर्बन्धक ऐसा साधक जो मिथ्यात्व दशा में रहता हुआ भी सद्गुणों की प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील रहता है, जिसमें मोक्ष के प्रति श्रद्धा और रुचि पैदा हो जाती है और राग-द्वेष एवं कषायों का तीव्र बल, घट जाता है, फिर भी वह आत्म-अनात्म ( जड़-चेतन) का विभेद सम्यक् प्रकार से नहीं कर पाता है । २१ आचार्य कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति को लोक-कल्याण का उपदेश देना चाहिये जैसे दूसरे के दुःख दूर करना, देव, गुरु तथा अतिथि की पूजा करना, दीन-दुखियों को दान आदि ।
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2. सम्यग्दृष्टि सांसारिक प्रपंचों में रहता हुआ भी, जो मोक्षाभिमुख होता है, जिसमें श्रद्धा-रुचि और समझ आंशिक रूप में आ जाती है धार्मिक तत्त्व सुनने की इच्छा, धर्म के प्रति अनुराग, आत्म-समाधि (आत्म-शांति), देव तथा गुरु की नियमपूर्वक सेवा करने की इच्छा जिसमें उत्पन्न हो जाती है, २३ ऐसे साधक को विशुद्ध आज्ञा योग के आधार पर अणुव्रत आदि को लक्ष्य में रखकर उपदेश देना चाहिये । २४
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