Book Title: Sramana 1991 07 Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 6
________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ सरि ने वीर निर्वाण सं०७२ में इस सूत्र की रचना की, ऐसा ऐतिहासिक दृष्टि से प्रतीत होता है।' उपर्युक्त विवेचन से कुछ मन्तव्य हमारे सम्मुख आते हैं जो इस प्रकार हैं१. प्रवाद अर्थात् पूर्वो के आधार पर दशवैकालिक की रचना होने की स्थिति में 'नमुक्कारेण पारेत्ता करेत्ता जिण संथवं' यह भी पूर्व से ही उद्धृत होना चाहिये था । २. यदि यह गणिपिटक द्वादशांगी से भी उद्धृत हो तो सूत्र रूप से इसे गणधर भगवन्तों द्वारा ग्रथित माना जा सकता है। ३. दशवैकालिक में 'नमुक्कारेण पारेत्ता' द्वारा नमस्कार मन्त्र के उद्धरण से स्पष्ट है कि शय्यंभव सरि के समय तक मंत्र का विकास हो चुका था। ४. इस ग्रंथ की रचना के समय वीर निर्वाण सं० ७५ में निर्वाण प्राप्त करने वाले जम्बूस्वामी के शिष्य प्रभव स्वामी भी विद्यमान थे। इन्होंने पंचम गणधर सुधर्मा स्वामी के पट्टधर अन्तिम केवली जम्बूस्वामी के साथ ही प्रव्रज्या ग्रहण की थी। इस प्रकार सुधर्मा से ही जम्बूस्वामी तथा प्रभवस्वामी ने तथा प्रभवस्वामी से शय्यंभवसूरि ने परम्परागत श्रुत ग्रहण किया था। इस स्थिति में उस समय तक मन्त्र अपना वर्तमान स्वरूप पंचपरमेष्ठि न भी ग्रहण किया होगा तो भी इसका प्रथम पद अस्तित्व में आ चुका था। अन्य मूल सूत्र आवश्यक के अन्तर्गत 'अन्नत्थ सूत्र' में भी निर्देश प्राप्त होता है कि- 'जाव अरिहन्ताणं भगवंताणं णमोक्कारेणं ण पारेमि ताव....२"। जब तक अरिहन्त भगवन्तों को नमस्कार न कर लँ तब तक। यहाँ भी अरिहन्त भगवन्त को नमस्कार का संकेत हमें प्राप्त होता है । चूर्णिकार इस मन्तव्य को अधिक स्पष्ट करते हैं--- "जथा सामाइए अरहंता जथा नमोक्कारे भगवंतो जथा पेढियाए पूजावचनमेतत् नमोक्कारो पुव्ववण्णितो, पारणितं वा पालणंति वा पारगमणंति वा एगहा, तस्स परिमाणे असमत्ते जदि उस्सारेति ण पालितं. १. दश० हारिभद्रीय वृत्ति-पत्र ११ १२. २. आवश्यक सूत्र, भाग-२ पत्र २५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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