Book Title: Siddhachakra Aradhan Keshariyaji Mahatirth
Author(s): Jitratnasagar, Chandraratnasagar
Publisher: Ratnasagar Prakashan Nidhi

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Page 19
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पहुंची। महाराजा प्रजापाल ने एक दिन दोनों कन्याओं की परीक्षा लेने के लिये राजसमा बलवाई। __सभा खचाखच भरी थी महाराजा प्रजापाल ने अपनी राजकन्यानों से प्रश्न किया "पुण्येन किं किं लभ्यते ....?" सुरसुन्दरी बोल उठी ...."पिताजी प्रश्न का उत्तर पहले मैं दूगी...." पिता ने सुरसुन्दरी को उत्तर देने हेतु कहासुरसुन्दरी ने उत्तर देते हुवे कहा"रूपंच राज्यं सुभगं सुभा निरोग़ ग़ात्रञ्च पवित्र भोज्यम् । गानं च नृत्यं परिवार पूर्ण पुष्येन चेत सकलं लभेत् ॥" . . "पिताजी ..! पुण्य के उदय से सुन्दर रूप ... विशाल राज्य ... सौभाग्य उत्तम भरि.... निरोगी काया .. पवित्र भोजन.... अद्भुत नृत्य और गान.... तथा पूर्ण परिवार की प्राप्ति होती है।" सुरसुन्दरी के उत्तर से महाराजा प्रसन्न हो उठे। प्रजाजन और सभासद भी हर्ष से नाच उठे। महाराजा प्रजापाल ने अपनी पुत्री मयणासुन्दरी से भी प्रश्न किया। "बेटी.... । पुण्येक किं किं लभ्यते ...? मयणासुन्दरी ने उत्तर देते हुवे कहा- .. "शीलं च दक्षो विनयो विवेक सद्धर्म गोष्ठि प्रभुभक्ति पूजा अखण्ड सौख्यं च प्रसन्नता हि लभ्येत पुण्येन समस्त मेतत् ।" '' "पिताजी ...! पुण्योदय से शील की प्राप्ति होती है । दक्षता विनय और विवेक की प्राप्ति भी पुण्य से होती है। सधर्म की गोष्ठी और प्रभु की भक्ति और पूजा तथा अखण्ड सुख और प्रसन्नता की प्राप्ति पुण्योदय से ही होती है।" ... मयणासुन्दरी का उत्तर सुनकर महाराजा आनदित हो उठे। प्रजाजन ने भी तालियाँ बजाकर राजकुमारी का स्वागत किया। . प्रसन्न होकर महाराजा प्रजापाल ने अपनी पुत्री सुरसुन्दरी से प्रश्न किया। - [8] For Private and Personal Use Only

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