Book Title: Siddhachakra Aradhan Keshariyaji Mahatirth
Author(s): Jitratnasagar, Chandraratnasagar
Publisher: Ratnasagar Prakashan Nidhi
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लय नहीं जावेगा और मेरे गुरुदेव को आहार हेतु आमन्त्रित नहीं करेगा तब तक मैं घी नहीं खाऊंगी।"
पनि को भी इस बात से खेद हुआ । अतः उसने अपने पतिदेव माणकशा से माता जी के अभिग्रह की बात कहकर जिनालय जाने को समझाया।
माणकशा भी मातृभक्त थे । उसी दिन उन्होंने माता के चरणों में गिरकर अपने अपराध की क्षमा याचना करके कहा
"मां"। तू घी खाना चाल कर दे मैं अवश्य ही जिनालय जाकर भक्तिपूर्वक प्रभुजी की पूजा करूंगा। तथा मुनिराज को आमन्त्रित भी करूंगा।"
माता को माणकशा की बात से आनंद हुआ । उसी समय भगवान महावीर की पाट परम्परा में आने वाले ५५ वें पट्टधर तपागच्छाछिपति पूज्य आचार्य भगवन्त श्री हेमविमलसूरिजी उज्जयिनी नगर के उपवन में अपने शिष्य सहित पधारकर ठहरे ।
माणकशा को समाचार मिले तो वे सन्ध्या समय हाथ में घासलेट के कपड़े जलाकर उपवन में पहुंचे। सभी साधु मुनिराज ध्यान मग्न थे। माणकशा क्रमशः सभी मुनियों के पास जाकर उपसर्ग करने लगे किन्तु मुनिजन निश्चल थे। __ माणकशा के दिल में सन्मान पैदा हुआ मुनिवरों पर। अहो कैसे त्यागी समता परिणामी हैं ये साधु पुरुष । मैंने सत्पुरुषों को परेशान करने का महान पाप किया है। इस तरह का विचार करते हुवे वे घर आकर प्रलाप करते हुए माँ से बोले__ "मां । मैं घोर पापी हूं। मैंने मुनियों को उपसर्ग किया तो भी उन समता के साधक मुनिवरों ने मझ पर क्रोध नहीं किया। कल प्रातः ही मैं आचार्यदेव को भक्ति पूर्वक आमन्त्रित करके अपनी उपधान शाला में ले आऊँगा । आचार्यदेव सत्य वचनी ही हैं अत: मैं उनका उपदेश सुनकर पुनः सत्य मार्ग का अनुसरण करुंगा।"
रात्री अत्यधिक बीत गई थी। माणकशा सेठ अपने शयनकक्ष में आकर निद्राधिन हो गये।
प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में माणकशा सेठ ने निद्रा त्याग दी परमेष्ठि नम
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