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Hovered 3421816 केशरियाजी महावीर्थ
उज्जयिनी तीर्थ परिचय
मुनि श्री जित रत्न सागर जी 'राजहंस'
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श्री सिद्धचक्राराधन केश रिया जी महातीर्थ
(उज्जयिनी तीर्थ परिचय)
- मुनि श्री जितरत्नसागरजी "राजहंस"
: आशीर्वाद दाता :
शंखेश्वर आगम मन्दिर संस्थापक पूज्य पन्यास प्रवर श्री अभ्युदयसागरजी म. सा. मालव भूषणं पूज्य पंन्यास प्रवर श्री नवरत्नसागरजी म. सा. तथा
ज्योतिर्विव पूज्य मुनिराज भी जिनरत्नसागरजी म. सा.
स्प
: सम्पादक : मुनि श्री चन्द्ररत्नसागरजी म.
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प्रकाशक
श्री रत्नसागर प्रकाशन निधि,
३५ कुंवर मण्डली, इन्दौर म. प्र. पीन. ४५२००४
-: प्राप्ति स्थान :-.
श्री सिद्धचक्र ट्रस्ट
C/o
श्री ऋषभदेवजी छगनीरामजी पेढ़ी श्रीपालमार्ग, खाराकुआ उज्जैन म. प्र.
विक्रम संवत् २०४६, ईस्वी सन् १९८९
श्री मनोहर इन्दु जैन ज्ञानशाला पो. गौतमपुरा जि. इंदौर (म. प्र. ) पिन 453220
-
प्रकाशन
श्री रत्नसागर प्रकाशन निधि C/o श्री महेन्द्रकुमार लाभचन्दजी जैन ३५, कुंवर मण्डली, इन्दौर म. प्र.
मुद्रक :
भाग्योदय आर्ट प्रिंटर्स २२, रंगमहल, उज्जैन म. प्र.
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दिनांक
वीर संवत् २५१६, आगमोद्धारक संवत्
प्रथम संस्करण १००० प्रति
छायांकन : एस. कुमार स्टुडियो, उज्जैन
मूल्य मात्र पांच रुपये
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समर्पण
जिस महापुरुष के उपकार को मालव देश कभी नहीं भूल सकता जिन्होंने इस श्री सिध्दचक्राराधन केशरियानाथ महातीर्थ का ती(ध्दार करवाया ऐसे परम पूज्य मालवोध्दारक आचार्य देव श्री चन्द्रसागरसूरीश्वरजी म. सा. के पावन पदकजों में सादर सविनय
सवंदन
जितरत्नसागर चन्द्ररत्नसागर
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मुझे भी कुछ कहना है ।
भारत के इतिहास में जैन धर्म और जैन तीर्थं अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते है। जैन तीर्थों में अवन्तिका नगरी का महत्वपूर्ण स्थान है अवन्तिका को उज्जयिनी और उज्जैन भी कहा जाता है । धार्मिक दृष्टि से ही नहीं अपित सांस्कृतिक, व्यापारिक और सामायिक दृष्टि से भी इसका अद्वितीय स्थान है । यह उज्जमिनीनगरी देश की प्राचीनतम नगरियों में प्रमुख नगरी मानी जाती है इस नगरी की प्राचीनता का काल निर्धारण अभी तक इतिहासज्ञ भी नहीं कर पाये है । हमारी संस्कृति जितनी प्राचीन है उतनी ही प्राचीन है यह उज्जयिनी नगरी ।
उज्जयिनी प्रायः भारत के मध्य भाग में २३.११ अक्षांश और ७५.४७ देशान्तर पर स्थित है । विध्याचल के उत्तरी ढाल में एक पठार पर क्षिप्रा नदी के किनारे पर बसी हुई है। प्राचीन काल में यह नगरी मालव अथवा मालवा के नाम से जानी जाती थी । मध्य कालिन इतिहास में मालबा नाम से ही इस नगरी का उल्लेख हुआ है । मालव प्रदेश की जलवायु समशीतोष्ण है
आज उज्जैन किसी साम्राज्य की राजधानी नहीं है । फिर भी भौगोलिक स्थिति और गौरवमय इतिहास हजारों धार्मिक यात्री एवं को आकर्षित कर रहा है। देशी हो या विदेशी सब ने इस नगरी कष्ठ से प्रशंसा की है। संस्कृत के विद्वान कवियों ने जिनमें
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यहां की
पर्यटकों
की मुक्त कालिदास और
प्रमुख है इसकी प्रशंसा की है। फाह्यान ने अपनी यात्रा वर्णन में इस नगरी का वर्णन किया है। मुगल सम्राट जहांगीर इस प्रदेश पर मुग्ध था । ब्रिटिश अधिकारी डा. विलियम हंटर ने भी इस नगरी का सजीव वर्णन किया है ।
उज्जयिनी का इतिहास बहुत प्राचीन है। यह नगरी कब बनी किसने
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बसाई यह निश्चितरुप से नहीं कहा जासकता । गरूड पुराण के अनुसार भारत की सात नगरियों में इस नगरी की गणना है। अयोध्या, मथुरा, माया, काशी' कांची, अवन्तिकापुरी, द्वारामती चव, सप्तता मोक्षदायका उस श्लोक से उज्जयिनी का महत्व सहज सिध्द हो जाता है । महाभारत के काल में उज्जयिनी न केवल राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण थी अपितु एक विद्याकेन्द्र के रूप में भी प्रसिद्ध थी। ___श्रीकृष्ण अपने भाई बलराम के साथ यहीं अपने गुरू सांदीपनी के आश्रम में अध्ययन किया था। सुदामा और कृष्ण की यहीं मित्रता हुई थी।
यह नगरी प्राचीन काल से ही जैनों की तीर्थ स्थली रही हुई है । यहां अनेक घटनाएं घटित हुई है। उनमें से कुछ घटनाओं को अक्षर देह प्रदान करने का सौभाग्य पाकर मैं अपने आपको भाग्यशाली समझ रहा हूँ। _____ महासती मयणासुन्दरी के जन्म से पावन बनी यह अवन्तिका नगरी जैन शास्त्रों में अनेक जगह अपना अस्तित्व रखती है। अवन्तिका नगरी अतीव प्राचीन नगरा है इस नगरी की महत्वपूर्ण घटनाओं में श्री सिध्दचक्राराधन करने के द्वारा श्रीपाल मयणा ने अपना कुष्ट रोग मिटाया था व श्रीपाल मार्ग खारा कुआ पर स्थित जिनालय वर्षों पहले की याद ताजी करते है । भगवान श्री अवन्ति पार्श्वनाथ जिनालय वर्षों पहले की करूण घटना की स्मृतियों को ताजी करता है तो भेरुगढ़ स्थित सिद्धबड़ माणीभद्र देव के पराक्रमी एवं आराधक सेठ माणकशा की याद दिलाता है। इन घटनाकों को साक्षात करने लिये ही यह पुस्तक लिखने का चारु प्रयास किया है मैंने ।
जो कि यहां यात्रार्थ आने वाले सभी को उपयोगी सिद्ध होगी मेरे प्रयास के बावजूद भी हो सकता है कुछ भूले रह गई होगी अतः ध्यानाकर्षण के लिये आभारी रहूँगा उन यात्रियों का साथ ही इस पुस्तक को और भी आकर्षक बनाने के लिये आपके सुझावों का भी स्वागत है ।
मुनिश्री जितनगर
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श्री नवपद सिद्ध
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चक्र यंत्र ॥
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दो शब्द
अत्यन्त हर्ष के साथ हम हिन्दीभाषी श्रावक श्राविकाओं के हाथों में मात्र सवा साल में ही छी पुस्तक "श्री उज्जैयिनी तीर्थं परिचय" सोप रहे हैं।
पूज्य मुनिराज श्री जितरत्नसागरजी म. द्वारा लिखी गई पुस्तकों का प्रकाशन करने का सौभाग्य हमें प्राप्त होता ही रहता है । पूज्य मुनिश्री ने खाराकुआ देहरा खिडकी स्थित श्री सिध्दचक्राराधन केशरियाजी महातीर्थ का शोधपूर्ण प्राचीन इतिहास लिखा है। इतना ही नहीं अवन्तिपार्श्वनाथ तथा माणीभद्र देव के स्थानक के प्राचीन इतिहास के साथ साथ उज्जैन के करीब २१ जिनालयों का परिचय भी तैयार किया है । हम अत्यन्त आभारी हैं मुनिश्री के ।
सम्पादन कार्य के लिये मुनि श्री चन्द्ररत्नसागरजी म. के हम अत्यन्त ऋणी है अपना आकार दिलाने में मुख्य भूमिका निभाती है सम्पादन करने की कला है। ऐसी कला जो कि पुस्तक को में
टाइटल पेज के लिये धन्यवाद के पात्र है सुप्रसिध्द आर्टिस्ट श्रीबाबू लाल जो जैन 'गौरी आर्ट' उज्जैन जिन्होंने टाइटल पेज को आकर्षक बनाने में सहयोग किया ।
इस अवसर पर श्री रमेशभाई 'भाग्योदय आर्ट प्रिन्टर्स' उज्जैन को भी याद करना आवश्यक है जिन्होंने पुस्तक की प्रिन्टिंग अल्प समय में करके हमें प्रकाशन करने में सहयोग प्रदान किया है।
श्री रत्नसागर प्रकाशन निधि, इन्दौर
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8
मालवोद्धारक आचार्य देव श्री चन्द्रसागर सुरीश्वरजी म. सा
पू. पं प्रवर श्री अभ्युदयसागरजी म. सा.
प. पू. आचार्य भगवन्त श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा.
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मालव भूषण पज्य श्री नवरत्नसागरजी म. सा.
शासन प्रभावक पूज्य श्री जिनरत्नसागरजी म.सा.
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लेखन कार्य में व्यस्त लेखक
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श्री सिद्धचक्राय नमः
श्री अवन्तिपार्श्वनाथाय नमः
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श्री केशरियानाथाय नमः
मालवप्रदेश की हृदयस्थली अवन्तिका नगरी ।
अवन्तिका नगरी अपने आपमें एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है । इस नगरी को प्राचीन काल से ही मालवप्रदेश की राजधानी बनने का गौरव प्राप्त हुआ है । इस नगरी में कुछ ऐसा आकर्षण है ही जो इस नगरी को राजा..... महाराजा.... पंडितों और साधकों ने सदा यहीं रहकर अपने को धन्य समझा है ।
इस नगरी से आकर्षित होकर महाकाल ने इस नगरी को अपनी साधना भूमि बनाई थी तो राजर्षि भर्तृहरी और गोपीचन्द्र ने भी यहीं साधना की थी । महर्षि सांदीपनि ने अपना आश्रम बनाने के लिये भी इसी नगरी का चयन किया था । तो श्रीकृष्ण महाराजा भी इसी नगरी के आश्रम में अध्ययन हेतु पधारे थे। महाराजा सम्राट सम्प्रति ने भी इस नगरी को अपनी राजधानी बनाया था तो सम्वत् प्रर्वतक महाराजा विक्रमादित्य ने भी इसी नगरी को अपनी राजधानी बनाई थी । लाखों वर्ष पूर्व भी इस नगरी का अस्तित्व था । महासति मासुन्दरी के पिता महाराजा प्रजापाल ने भी अपनी राजधानी हेतु इसी नगरी को पसन्द किया था तो अवन्तिसुकुमाल की साधना भूमि बनने का गौरव भी इसी नगरी को प्राप्त हुआ था ।
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महाराजा विक्रमादित्य के दरबार में यहाँ कालीदास आदि नवरत्नों ने आकर अपना स्थान जमाया था । प्राचीनकाल से यह नगरी ज्योतिष तथा संस्कृत की विद्वत्ता के लिये प्रसिद्ध रही हैं । यहाँ महान ज्योतिर्विद तथा संस्कृत के विद्वानों ने सदा ही निवास किया है ।
इस नगरी ने अनेक प्रकार की हलचलों से सराबोर युग देखा हैं । काल के अनेक आक्रमण भी सहे हैं । फिर भी यह नगरी अपनी अद से आज भी खड़ी खड़ी मुस्कुराहट बिखेरती नजर आती है ।
भारत देश की सात नगरियों में उज्जयिनी नगरी भी एक पुरानी नगरी मानी जाती है। यह नगरी क्षिप्रा नदी के किनारे पर बसी हुई है । इसके कई प्राचीन नाम हैं अवन्तिका..... पुष्पक रंडिनी... विशाला.... उज्जयिनी और उज्जैन ।
मालवप्रदेश की प्राचीन राजधानी का यह नगर दक्षिणपथ का मुख्य नगर गिना जाता था। चीनी यात्री हेव्नसांग जब मालव प्रदेश
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में आया था तब मालवप्रदेश विद्या का केन्द्र माना जाता था । इस्वी सन् की सातवीं आठवीं सदी तक मालव देश की राजधानी का का नाम अवन्तिका था। किन्तु बाद में यह नगरी उज्जैन के नाम से प्रसिद्ध हो गई।
उज्जैन नाम के सम्बन्ध में श्री दयाशंकर दुबे ने 'भारत के तीर्थ' नामक अपनी पुस्तक में बताया है कि अवन्तिका में राजा सुधन्वा राज्य करता था । वह जैन धर्मावलम्बी था । उसके समय में अवन्तिका नगरी अतीव विशाल नगरी थी। उसने इस अवन्तिका के प्राचीन नाम को बदलकर उज्जैन नाम रख दिया। तभी से यह नगरी उज्जैन के नाम से प्रसिद्ध हुई है। __उज्जैन शब्द में से जैसे जैनत्व की गंजती ध्वनि ध्वनित होती है वैसे हो अवन्तिका शब्द से भी फलित होता है। इस विषय को जानने से पहले हम इस नगरी के प्राचीन इतिहास पर दृष्टिपात करें तो भो यह सिद्ध हो जावेगा कि यह नगरी जैन धर्म का केन्द्र थी।
भगवान महावीर के समय में इस नगरी का स्वामी राजा चण्डप्रद्योतन था। जो कि जैन धर्मावलम्बी था। उन दिन वित्तभय पत्तन में १० मुकुटबद्ध राजाओं का स्वामी उदायन राजा राज्य करता था। वहां उस राजा के राजमहल में कुमार नंदी देव द्वारा निर्मित जीवित स्वामी (महावीर स्वामी) की चन्दन काष्ट की प्रतिमा विराजमान थी। उस राजा की दासी सुवर्ण गुलिका के प्रेम में पागल बनकर चण्डप्रद्योतन राजा ने जीवित स्वामी की प्रतिमा सहित दासी का अपहरण किया था। वह जीवित स्वामी की प्रतिमा उज्जैन में ही थी। जीवितस्वामी की प्रतिमा के दर्शन वंदन के लिये यहाँ अनेक लोग आते थे।
कुछ समय के बाद सम्राट अशोक का पुत्र कुणाल उज्जैन का सूबेदार था। कुणाल के बाद उसका पुत्र सम्प्रति यहाँ का सम्राट बना उसके समय में जैनाचार्य आर्यसुहस्ति सुरिजीम उज्जैन में जीवित स्वामी की प्रतिमा के दर्शनार्थ पधारे थे। उन्होंने सम्प्रत्ति को जैनधर्मी बनाया था। सम्राट सम्प्रत्ति ने जैन धर्म का बहुत विकास किया था इस बात की गवाही इतिहास भी देता है। ___आचार्य श्रीचंडरुद्राचार्य......."आचार्य श्रीभद्रगुप्तसूरिजी... आचार्य श्रीआर्यर क्षित सूरिजी....... आचार्य श्रीआर्य आषाठ आदि आचार्य देवों ने उज्जैन नगरी में विचरण करके जिनेश्वर देव की वाणी घर घर में प्रवाहित की थी।
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विक्रम संवत् के पहले इसी उज्जैनी नगरी में आचार्य श्री आर्यकाल सूरिजी पधारे थे । यहाँ का राजा उन दिनों गर्दभिल्ल था । उसने साध्वी सरस्वती का अपहरण किया था । अतः आचार्य श्री आर्यकालक ने उस आतताई गर्दभिल्ल को सिंहासन से उतार कर उसके स्थान पर शकस्तान के शाहीयों का स्थापित किये थे । ( आचार्य आर्यकालक और गर्दभिल्ल के कथानक को जानने वाले जिज्ञासु मेरी लिखी "जिन शासन के पाँच फूल" पुस्तक का अवलोकन करें)
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उसके बाद यहाँ विक्रमादित्य ने अपना शासन जमाया था । विक्रम संवत्सर को प्रवृति आर्यकालकसूरिजी की ही कृपा का फल थी । सिद्धसेन दिवाकर विक्रमादित्य राजा की सभा के ही विद्वरत्न थे ।
आचार्य श्रीमानतु सूरि ने उज्जैनी के वृद्ध राजा भोज को भक्तामर स्तोत्र की रचना के द्वारा चमत्कृत् किया था । वृद्ध भोज का समय विक्रम का सातवां सैका माना जाता है ।
विद्वप्रिय परमार वंशी मुंज और भोज के समय में अनेक जैनाचार्य इस उज्जैनी में विचरण करते थे । भोज राजा के समय में शोभन मुनि ने अपने भाई कवीश्वर धनपाल को प्रतिबोधित किया था । धनपाल ने तत्पश्चात 'तिलक मंजरी' वगैरह ग्रन्थों की रचना की थी । आचार्य श्री शान्तिसूरिजी ने उसका संशोधन किया था । धनपाल कवि के आग्रह पर ही शान्ति सूरिजी ने मालवे में विचरण करके भोज की सभा के ८४ वादी जीत कर 'वादी वेताल' का विरुद प्राप्त किया था ।
इस नगरी की ऐसी अनेक घटनाऐ हैं परन्तु उल्लेखनीय विशेष घटना चार हैं ।
(१) श्रीलंका से राम लक्ष्मण सीता जी द्वारा श्री ऋषभदेव जी की प्रतिमा उज्जैन लाना ।
(२) श्री पाल महाराजा और मयणा सुन्दरी द्वारा श्री सिद्धचक्रारा धन द्वारा अपना कुष्ठ रोग निवारण ।
(३) अवन्ति सुकुमाल द्वाराश्मशान में अनशन के द्वारा नलिनी गुल्म विमान की प्राप्ति । समाधि युक्त काल धर्म व उनके पुत्र द्वारा समाधि मन्दिर श्री अवन्तिं पार्श्वनाथ का जिनालय ।
(४) अधिष्ठायक श्री माणिभद्र देव का स्थानक ।
प्रथम श्री सिद्ध चक्राराधन केशरियानाथ महातीर्थ पर दृष्टिपात
करें ।
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श्री सिध्द चक्राराधन केशरियानाथ महातीर्थ
वर्तमान में श्रीपालमार्ग खाराकुआ पर श्री सिद्धचक्राराधन केशरियानाथ महातीर्थ तीर्थों की नगरी की तरह गगन चुम्बी जिनालयों से सुशोभित है । इस तीर्थ का इतिहास कोई ११ लाख वर्ष पूर्व का है । इतिहास बड़ा ही रोमांचक एवं अद्भुत है।
आज से ११ लाख वर्ष पहले की बात है।
तब भगवान मुनिसुव्रतस्वामी का शासनकाल था । भगवान श्री मुनिसुव्रतस्वामी के शासनकाल में अनेक धर्मात्मा राजा महाराजा हो गये उनमें अयोध्यापति महाराजा दशरथ नंदन श्री राम लक्ष्मण और सीताजी भो भगवान श्री मुनिसुव्रतस्वामी का शासन स्वीकार कर उनके अनुयायी बने थे।
बात उस समय की है जब दशरथनंदन श्री राम और लक्ष्मण ने लंकापति राक्षसराज रावण का वध करके महासती सीता से मिले थे।
यह पति पत्नि का मिलन अद्भुत था। काश"। उस मिलन का वर्णन इतिहासकारों ने किया होता तो....? किन्तु यह तो, तो की बात है ना....।
श्रीराम जब सीता से मिले तो सीताजी उन्हें भेंट पड़ी जब श्रीराम अयोध्या लौटने लगे तो सीताजी ने कहा ?
"स्वामी...।" पहले मेरे भगवान को पुष्पक विमान में विराजमान कीजिये फिर मैं आपके साथ आऊंगी."
श्री राम ने पूछा "यह कौन से परमात्मा हैं और यहाँ कैसे आये हैं" ? तुम इन्हें साथ में चलने का आग्रह क्यों कर रही हो प्रिये....?"
सीताजी ने उत्तर दिया देव....! मैं इन्हीं भगवान के शरण से सनाथ बनी हूँ""। जब रावण मुझे उठा लाया था तब वह मुझे राजमहल में नहीं ले गया उसने मुझे लंका कि अशोक वाटिका में लाकर रखा था। मेरे मन की मैं ही जानती हूँ नाथ....। आपके नाम का रटन ही मेंरे जीवन का मंत्र था उस समय मुझे याद आया कि परमात्मा की भक्ति में ऐसी शक्ति है कि वह भक्ति संसार से मुक्ति दिला देती है।
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मैंने रावण के पंजे से मुक्त होने के लिए परमात्मा की भक्ति का मार्ग चुना। किंतु यहाँ परमात्मा की प्रतिमा कहाँ थी ? और आलम्बन के बिना परमात्म भक्ति होना कैसे सम्भव हो सकती है । अतः उसी समय मैंने अशोक वाटिका के पवित्र सरोवर से मिट्टी लाकर आदि तीर्थंकर देवाधिदेव श्री ऋषभदेव प्रभुजी की प्रतिमा का निर्माण किया। मिट्टी और बालूरेत से अद्भुत नयनरम्य प्रतिमा का निर्माण हो गया ।"
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सीताजी ने कुछ क्षण रूककर कहा - "आर्यपुत्र....! जब यह प्रतिमा बनकर तैयार हो गई उसो दिन से मैंने दो लक्ष्य से ही परमात्मा की भक्ति प्रारम्भ कर दी ।"
में
इतनी लीन हो जाती
"वे दो लक्ष्य कौन से थे भाभी ....? लक्ष्मणजी बीच में ही पूछ बैठे, "लक्ष्मण जी ....! मेरा प्रथम लक्ष्य था शील रक्षा का ....! और दूसरा लक्ष्य था लंका की कैद से मुक्ति का !' और इन परमात्मा की प्रतिमा जी का आलम्बन लेकर मैं भक्ति थी कि मै अपने सारे दुखों को भूल जाती थी मेरे दोनों लक्ष्य पूर्ण कर दिये। मेरा शील भी मुक्ति भी हो गई । मैं खोये हुवे मेरे जीवन साथी आर्यपुत्र से भी मिल गई ... ! जब आज मेरे मनोरथ सफल हो गये तो मैं इन परमात्मा को कैसे भूल सकती हूं ...?
।
परमात्मा की भक्ति ने सुरक्षित रहा और मेरी
"वास्तव में प्रभु प्रतिमा साक्षात् कल्पवृक्ष तुल्य कहीं गई है। यह शास्त्रीय बात सत्य ही है ।" श्रीराम सहसा बोल उठे ।
सीताजी ने कहा - " पहले मेरे भगवान और फिर मैं ....। अतः आप मेरे भगवान को साथ ले चलिये....।"
श्रीराम तो जिनेश्वरदेव के परम उपासक थे । उन्होंने सीता जी की बात मानकर अपने साथ ऋषभदेवजी की प्रतिमा ले जाना मंजूर कर लिया !
इधर अयोध्या लौटने की सम्पूर्ण तैयारी हो चुकी थी। श्री राम ने अत्यंत भक्ति और बहुमान पूर्वक ऋषभदेव स्वामी की प्रतिमा पुष्पक विमान में विराजमान की । सभी यथायोग्य अपने अपने विमानों में आरूढ़ हो गये ।
शुभ घड़ी में श्रीराम ने परिवारजनों के साथ अयोध्या की ओर प्रस्थान किया ।
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. श्रीराम परिवार सहित आकाश मार्ग से विमानों में बैठकर अयोध्या लौट रहे थे।
प्रातः काल का समय होने आया था। अभी सूर्य रश्मियां पृथ्वी को चूमने नहीं आई थी। फिर भी विहग वृन्द की सुरावलियों से आकाशमंडल गूजित हो उठा था।
श्रीराम की दृष्टि पृथ्वी के रमणीय प्रदेश पर थी। वे प्रकृति के सौन्दर्य का पान कर रहे थे । यकायक उनकी दृष्टि में कल-कल कलकल बहती नदो दिखाई दी । नदियां तो श्रीराम ने अनेक देखी थीं किंतु यह नदी आश्चर्य पैदा करने वाली थी। इस नदी का जल नीला तथा स्वच्छ था। श्रीराम ने सेवक से पूछा
"यह कौन सा प्रदेश है . ? और इस नदी का नाम क्या है?"
सेवक ने कहा: "स्वामिन् ...! यह प्रदेश मालवदेश के नाम से जाना जाता है । इस नदी का नाम क्षिप्रा नदी है । इस नदी के सुरम्य तट पर उज्जयिनी नगरी बसी हुई है।" ____ "विमान नीचे उतारो....!" श्रीराम ने आदेश दिया।
क्षणभर पहले का प्रशान्त नदी तट श्रीराम के परिवारजनों से धमधमा उठा । सभी विमान नीचे उतर गये। चारों ओर प्रातः के आगमन से नदी का तट कोलाहलमय हो गया। - सूर्योदय हो चुका था । महादेवो सीताजी ने स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण किये एवं क्षिप्रानदी के तट पर रत्नमय सिंहासन स्थापन किया । पुष्पक विमान से परमात्मा श्री ऋषभदेवजी की प्रतिमा उतारकर सिंहासन पर विराजमान की। श्रीराम लक्ष्मणजी और सीताजी ने अनेक विद्याधरों के साथ भगवान श्री ऋषभदेव स्वामी की अष्टप्रकारी पूजा की। परमात्मा की भक्ति से प्रसन्नचित होकर आगे के लिये प्रयाण की तैयारी की गई।
सीताजी ने ऋषभदेव स्वामी की प्रतिमा को उठाकर विमान में विराजमान करना चाहा किंतु प्रतिमाजी के अधिष्ठायक देवों को यह मंजूर नहीं था कि प्रतिमाजी अयोध्या जावे। अतः प्रतिमाजी अपने स्थान से चलित नहीं हुई। ... अनेकों विद्याधरों ने प्रतिमाजी को उठाने का व्यर्थ प्रयास किया अन्त में अधिष्ठायक देवों ने कहा
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"हे बलभद्र श्रीराम .. ! तुम व्यर्थ मेहनत कर रहे हो ...! यह प्रतिमाजी अब यहां से नहीं उठेगी । यह प्रतिमा अब इसी उज्जयिनी नगरी में पूजायेगी।"
श्रीराम लक्ष्मणजी और सीताजी के चेहरे खिन्न हो गये । किंतु वे समझदार थे। अधिष्ठायकों की इच्छा के विरुद्ध वे कुछ भी नहीं करना चाहते थे।
श्रीराम ने तात्कालिन उज्जयिनी के महाराजा को बुलाकर प्रभुजी की प्रतिमा उन्हें सौप दी । महाराजा ने भी अपने इष्टदेव समझकर उज्जयिनी के मध्य गगनचुम्बी जिनालय का निर्माण करवाकर श्री ऋषभदेव स्वामी की प्रतिमा की महोत्सव पूर्वक प्रतिष्ठा कराई ।
श्री ऋषभदेव स्वामी की प्रतिमा श्रीराम लक्ष्मण सीताजी एवं अनेक विद्याधरों के द्वारा पूजाने के बाद उज्जयिनी के श्रावक श्राविकाओं की श्रद्धा के केन्द्रबिन्दु बन गई ।
समय का प्रवाह सरिता के जल की तरह बहता रहता है। उज्जयिनी में भी अनेक राजा महाराजा हो गये । अब समय आया महाराजा प्रजापाल का ...!
महाराजा प्रजापाल मालवपति के नाम से दुनिया में विख्यात थे । महाराजा प्रजापाल की दो रानियां थीं।
एक का नाम था महारानी सौभाग्यसुदरी ... ! दूसरी का नाम था महारानी रूपसुदरी .... महारानी सौभाग्यसुन्दरी की एक पुत्री थी नाम था उसका सुरसुदरी।
महारानी रूपसुन्दरी की भी एक पुत्री थी नाम था उसका मयणा सुन्दरो ... !
महारानी सौभाग्यसुन्दरी शैवधर्म की अनुयायी थी अतः उसने अपनी पुत्री सुरसुन्दरी को शैव पंडित के पास अध्ययन करवाया।
महारानी रुपसुन्दरी जिनेश्वरदेव की उपासिका थीं अतः उसने अपनी पुत्री मयणासुन्दरी को जिनेश्वरदेव के उपासक सुबुद्धि नामक पंडित के पास अध्ययन करवाया। दोनों पुत्रियां पढ़ कर प्रवीण हो गई। और यौवन की दहलीज तक
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पहुंची। महाराजा प्रजापाल ने एक दिन दोनों कन्याओं की परीक्षा लेने के लिये राजसमा बलवाई। __सभा खचाखच भरी थी महाराजा प्रजापाल ने अपनी राजकन्यानों से प्रश्न किया
"पुण्येन किं किं लभ्यते ....?"
सुरसुन्दरी बोल उठी ...."पिताजी प्रश्न का उत्तर पहले मैं दूगी...."
पिता ने सुरसुन्दरी को उत्तर देने हेतु कहासुरसुन्दरी ने उत्तर देते हुवे कहा"रूपंच राज्यं सुभगं सुभा निरोग़ ग़ात्रञ्च पवित्र भोज्यम् । गानं च नृत्यं परिवार पूर्ण पुष्येन चेत सकलं लभेत् ॥" . .
"पिताजी ..! पुण्य के उदय से सुन्दर रूप ... विशाल राज्य ... सौभाग्य उत्तम भरि.... निरोगी काया .. पवित्र भोजन.... अद्भुत नृत्य और गान.... तथा पूर्ण परिवार की प्राप्ति होती है।"
सुरसुन्दरी के उत्तर से महाराजा प्रसन्न हो उठे। प्रजाजन और सभासद भी हर्ष से नाच उठे। महाराजा प्रजापाल ने अपनी पुत्री मयणासुन्दरी से भी प्रश्न किया।
"बेटी.... । पुण्येक किं किं लभ्यते ...? मयणासुन्दरी ने उत्तर देते हुवे कहा- .. "शीलं च दक्षो विनयो विवेक सद्धर्म गोष्ठि प्रभुभक्ति पूजा
अखण्ड सौख्यं च प्रसन्नता हि लभ्येत पुण्येन समस्त मेतत् ।" '' "पिताजी ...! पुण्योदय से शील की प्राप्ति होती है । दक्षता विनय और विवेक की प्राप्ति भी पुण्य से होती है। सधर्म की गोष्ठी और प्रभु की भक्ति और पूजा तथा अखण्ड सुख और प्रसन्नता की प्राप्ति पुण्योदय से ही होती है।" ... मयणासुन्दरी का उत्तर सुनकर महाराजा आनदित हो उठे। प्रजाजन ने भी तालियाँ बजाकर राजकुमारी का स्वागत किया। . प्रसन्न होकर महाराजा प्रजापाल ने अपनी पुत्री सुरसुन्दरी से प्रश्न किया।
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" बेटी" तेरे लिये कौन सा वर लाउं " ?
" पिताबी . । यदि आप प्रसन्न हैं तो मै शंखपुरी के राजकुमार अरिदमन को चाहती हूं। मेरे लिये आप अरिदमन का चयन कीजिए।
पुत्री की बात सुनकर राजा ने धूमधाम पुर्वक राजकुमार अरिबमन के साथ सुरसुन्दरी की शादी कर दी।
मासपति ने मयणा से प्रश्न किया
"बेटी .. । तू कहाँ के राजकुमार को अपना जीवन साथी बनाना चाहती है।"
"पिताजी .. | आप यह क्या पूछ रहे हो .... ? कन्या की शादी तो योग्य पति के साथ माता पिता ही करते हैं यह विषय आपका है, न कि मेरा ...।" मयणासुन्दरी ने नम्रता पूर्वक उत्तर दिया।
मालवपति ने पुन: आग्रहपूर्वक पुछा
" बेटी .... । तू जिसे चाहती है उसका नाम मुझे बतादे । मैं उसी के साप तेरी शादी कर दू ...।"
"पिताजी ।मयणा सुन्दरी गम्भीर होकर बोली "आप चाहें उस पति के साथ मेरी शादी कर दीजिये । आप तो निमित्तमात्र हैं पिताजी। बाकी तो मेरे ही कर्म के आधार पर मुझे पति की प्राप्ति होगी। __ "बेटी ।ये कर्मों की बात एक ओर रख दे .... । मैं निमित्त मात्र ही नहीं हूँ । मैं सब कुछ कर सकता हूं। मैं चाहूँ तो रंक को राजा बना सकता हूं। मैं चाहूं तो राजा को रंक बना सकता हूं अतः तू बता मुझे कि तेरे लिये कौन सा वर ले माउं....?"
"पिताजी "। आपका कथन सत्य नहीं है । आप तो मात्र निमित्त ही हैं सुख दुःख का कर्ता तो कर्म ही है? देखिये मेरे ही पुण्योदय से मैं इस राजपरिवार में जन्मी ह.।"
"बेटी " प्रजापाल भपाल की आंखों में क्रोध उमड़ आया" भाज तू मेरे महलों में मौज पर रही है उसका कारण मैं नहीं हूँ ।"
"नहीं पिताजी ! आप तो निमित्त मात्र हैं।" मयणासुन्दरी ने शान्त रहकर ही उत्तर दिया ।
मालवपति के अंग-अंग में आग लग गई । यह कन्या दुर्विनित
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हैं । इसे इसके कर्मों का फल चखाना चाहिये । राजा कुछ कहे उससे पहले तो महामन्त्री ने बाजी सम्भालते हुवे कहा---
“महाराज । राजवाटिका जाने का समय हो गया है। यह विवाद छोड़िये आप और पधारिये प्रभु ।"
मन्त्रीश्वर की बात सुनकर मालवपति ने सभा वहीं समाप्त कर दी और मन्त्रीश्वर के साथ वाटिका की ओर प्रस्थान कर गये आज प्रतिदिन की तरह राजा का मन प्रसन्न नहीं था। मन में उद्वेग था इसलिये घूमना भी रूचिकर नहीं लग रहा था राजा मन ही मन विचारों के द्वन्द्व में उलझे थे कि अचानक वायुमंडल दुर्गन्ध मय हो गया।
महाराजा प्रजापाल ने मन्त्रीश्वर से पूछा 'मन्त्रीश्वर । आज यह दुर्गन्ध कहां से आ रही है । ?'
"अभी तलाश करवाता हूँ कृपानाथ ।' मन्त्रीश्वर ने दो अश्वारोही भेजे जो कि क्षण भर में वापिस लौट आये । उन्होंने निवेदन किया
"राजन् ! ७०० कोढियों का टोला इस ओर आ रहा है । उनके देह से खून टपक रहा है, पीप गिर रहा है । बड़ी बदबू मार रहे हैं वे।"
मन्त्रीश्वर ने उसी क्षण राजा सहित अपनी दिशा ब:ल दी वे दसरी ओर घूमने चल दिये कि एक खच्चर पर सवार को ढया वहां पर दौड़ आया।
मालवपति को प्रणाम करके उसने अपना परिचय देते हुवे कहा
"हे यथानाम तथा गुण प्रजापाल राजा । हम ७०० कोढियों का टोला आपका नाम सुनकर आये हैं। हमारे राणा का नाम है उम्बर राणा..। मैं उनका ललिताङगुली नामक मंत्री हूं। हमें आते देखकर आपने राह क्यों बदल दी राजन् ? हम तो बड़ी आशा लेकर आये हैं आपकी नगरी में ।" मालवपति ने पूछा-"क्या चाहते हो तुम ?''
"कृपानाथ ! आपकी कृपा से सम्पत्ति तो अथाह है हमारे पास किन्तु हमारा राणा युवा होने के बाद भी कुवारा है । आप कृपा करके अपनी दासो की कन्या हमे दे दें तो बहुत उपकार होगा प्रभु ।" "कन्या चाहिये तुम्हें ।" मालवपति कुछ क्षण विचार में पड़ गये
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उनकी आंखों के सामने राजसभा का विवाद ग्रस्त दृश्य तैरने लगा। उन्होंने कहा -
"तुम मेरे दरबार में आओ मैं तुम्हें अवश्य ही कन्या दूगा . ।' मालवपति राजवाटिका न जाते हुए सीधे दरबार में आये। उसी क्षण मयणा को बुलाकर कहा-"बेटी आज तेरी बातों ने मेरे अन्तर्मन को झकझोर दिया है । तूने मेरे आधिपत्य का स्वीकार न करके कर्म धर्म की अनर्गल बातों को स्वीकारा इसी कारण मेरा मन तेरी ओर से बहुत दुखी है अभी भी कुछ नहीं विग़ड़ा है मैं फिर तुझसे कहता हूँ कि मेरी बात पर ध्यान धर और पसन्द करले किसी राजाको,धरी रहने दे तेरी शील और शणगार की बातें।"
मयणा ने कहा "पिताजी ! आप बार-बार क्यों मुझे शरमिन्दा कर रहे हो। आप चाहें उसके साथ मेरा विवाह करदें मेरे भाग्य में सुख होगा तो अवश्य ही मिलेगा और दुख होगा तो भी मिलेगा। आप उसमें क्या कर सकेंगे ? आप तो निमित्त मात्र है।"
मयणा की बातें सुनकर राजा प्रजापाल की आंखों से अंगारे बरसने लगे। उसी क्षण ७०० कोढियों के टोले ने दरबार में प्रवेश किया मध्य में एक युवान जिसके मस्तक पर छत्र धारण किया गया था। उसके दोनों ओर दो कोढिये चॅवर डोला रहे थे। उसका शरीर कोढ़
रोग़ से ग्रसित था। कान सुपडे जैसे हो रहे थे । नाक बूठी हो चुकी थी शरीर से खून और परु (पोप) झर रहा था और दुर्गन्ध इतनी आ रही थी कि खड़ा होना दूभर था।
महाराजा प्रजापाल के सामने जाकर उस छत्रधारी ने कहा --
"मैं ७०० कोढिये का स्वामी उम्बर राणा मालवपति को प्रणाम करता हूँ ।". . . . . . .
महाराजा प्रजापाल उसे एफटकी आखों से देखने लगे । राणा के मंत्री ललितांगुली ने कहा
"राजन् ! हमारे राणा के लिये कोई सुयोग्य कन्या दीजिये
ना?""
प्रजापाल ने कहा-मैं अभी तुम्हें अपनी कन्या देता हूं।"महाराजा ने मयणा से कहा -
"मयणा " । यदि मैं मात्र निमित्त ही हूं और तुझे तेरे कर्मो पर भरोसा हो तो इस उम्बर राणा के गले में बरमाला डाल दे ।
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पति का आदेश सुनकर सभा में नित्कारें छूट गई। सन्नाटा छा गया दरबार में । किन्तु क्षण भर का विलम्ब किये बिना भगवान जिनेश्वरों के वचन पर श्रद्धा रखनेवाली मयणासुन्दरी ने वरमाला उठाकर राणा के गले मे पहना दी।
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राजसभा मे शोर शराबा और कोलाहल मच गया। सर्वत्र हाहा कार सा होने लगा । राणा ने अचानक चौंककर कहा
" राजकन्या । यह तुमने क्या किया। कैसी जिद है तुम्हारी, क्यों अपना जीवन बर्बाद कर रही हो मुझ कोढ़ी के संग तो तुम्हारा जीवन ही भ्यर्थ हो जावेगा तुम फूल-सी नवयौवना हो फूलों की तरह तुमने परवरिश पाई है तुममे यह बात कहां से घर गयो अभी भी समय हैतुम अपनी भूल सुधार लो और अपने समान सुन्दर सुकोमल राजकुमार का वरण कर को क्यों इस दुर्लभ जीवन को दूभर करने को और कदम बढ़ा रही हो
किन्तु कर्मो के सिध्दान्त पर अटूट श्रध्दा रखने वाली ममगा ने राणा का हाथ पकड़ लिया व राजदरबार की सीढीया उतर गई महाराजा प्रजापाल सिंहासन पर ही होश गवा बैठे ।
कोढ़ियों के हर्ष का पार नहीं था । उन्हें मानवपति की पुत्री अपनी रामी के रूप में मिल चुकी थी। वे मालवपति की जय जयकार करते हुवे अपने स्थान पर नगरी के बाहर तम्बू में आ गये।
वहां उन्होंने विवाह का महोत्सव मनाया। सन्ध्या तक चुकी थी । पृथ्वी पर अन्धकार छा रहा था ।
तम्बू में उम्बर राणा और मयणा सुन्दरी बैठे थे। राणा ने कही
"राजसुता । अभी भो तुम विचार करलो और पिता की बात स्वीकार लो अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। किसी अन्य राजकुमार से वे तुम्हारी शादी ""
"बस करो नाथ....। आपके द्वारा बोले जारहे प्रत्येक वाक्य मेरे कोमल हृदय में तीक्ष्ण बाण की तरह चुभ रहे हैं। मैं आपकी राजकुमारी हु नाथ ..
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.. कन्या एक ही बार शादी करती है । आप मेरे परमेश्वर हैं । अतः भव.इस तरह की अनर्गत बातें कदापि न करें स्वामी " "
उम्बर राणा की आंखों से हर्षाश्रु के दो बिन्दु मोती बनकर गिर पड़े। हर्ष इस बात का था कि देव लोक की अप्सरासे भी ज्यादा रुपवान - राजकन्या ने मेरे जैसे कुष्ठि पति को परमेश्वर मानकर स्वीकार किया है।
शनैः-शनैः रात्री व्यतीत हो रही थी दोनों पति-पत्नि भी नींद के आलिंगन में समा चुके थे।
प्रातः काल हो चुका था। सूर्य की सुरभित किरणें चारों ओर फैल चुकी थी। विहग़वृन्द ने अपनी सुरावलियों से आकाश को ध्वनित कर दिया था। सूर्यदेव भी पति पत्नि की इस जोड़ी को देखने के लिये पूर्वाकाश से झांक रहे थे। . . मयणासुन्दरी को नींद खुल गई । उसने आसन पर बैठकर महामन्त्र नवकार का स्मरण किया। थोड़ी ही देर में राणा भी निद्रा का त्याग करके अपने प्रातः कार्य से निवृत होकर वहां आया। मयणासुन्दरी अभी भी महामन्त्र का स्मरण कर रही थी।
दो घटिका तक महामन्त्र का स्मरण करने के बाद मयणा ने पर्यक पर बैठे अपने पति के चरणों में नमन किया। • राणा तो राजकुमारी का यह विनय देखकर प्रसन्न हो गया। .
मयणासुन्दरी ने कहा- "नाथ "। चलो जिनमन्दिर जाकर माते हैं।" .. · राणा ने जिनमन्दिर का नाम भी शायद पहली बार सुना था किन्तु मयणा में उसे पता हो गई थी। उस आर्यावतं की आवर्श नारी में उसे ज्योति के दर्शन हो रहे थे। उसने मनोमन निश्चय किया था कि मयणा मेरी प्रेरणा है यह जो भी कहेगी मैं स्वीकारूंगा।
थोड़ी ही देर में दोनों नगर के राजमार्ग से गुजरते हवे नगरी के मध्य में स्थित श्री ऋषभदेव प्रभु के जिनालय पर आये। मार्ग में लोगों के टोले के टोले उन्हें अनेक तरह की बात करते हुवे दिखाई दिये थे। कोई मयणा की बुराई कर रहा था कि कन्या ही दुष्ट थी जो उसे फल मिला है। कोई पिता की निंदा कर रहा था कि कन्या कैसो भी हो
.
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राजा में तो बुद्धि थी ना ? उसने उसे कुष्ठि के साथ परणा कर घोर अन्याय किया है । कोई माता की बुराई कर रहा है तो कोई शिक्षक पंडित सुबुद्धि को कोस रहा है तो कोई धर्मं को ही निंदा कर रहा है। अरे जैन धर्म ही ऐसा है जिसमें न तो विनय है और न विवेक ।
1
मयणा सारी बातें सुनती हुई जा रही थी । उसे दुख एक बात का था कि लोग धर्म की निंदा कर रहे हैं उसमें निमित्त वह बनी है ।
मयणा उम्बर राणा को लेकर निसिहि निसिहि निसिहि बोलते हुवे जिनालय के मुख्य द्वार से अन्दर प्रवेश करती है। सामने ही ऋषभदेव प्रभु की प्रतिमाजी यो भव्य मुखार बिन्द तेजस्वी नयन प्रशान्त वदन की कान्ति पद्मासन पर विराजमान प्रभु के सन्मुख राणा को ले जाकर प्रभु की स्तुति बोलने में एक तान हो गई। अपने सारे दुःख को भूल कर मयणासुन्दरी परमात्मा की भक्ति में लीन हो गई ।
उसी समय वहां चमत्कार हुआ। परमात्मा श्री ऋषभदेव जी के कण्ठ में रही पुष्पमाला और उनके हाथ में रहा बिजोरू फल उछले जिसे राणा और मयणा ने झेल लिये ।
अहो भाग्य है हमारा जो कि अधिष्ठायक देवों के द्वारा ये देव दुर्लभ वस्तु हमें प्राप्त हुई । मयणा को विश्वास हो गया कि थोड़े ही दिनों में उसके स्वामी का रोग दूर हो जायेगा । जिनालय में चैत्य बंदन करने के बाद मयणा उपाश्रय में विराजमान पूज्य गुरुदेव को वंदन करने के लिये गई ।
गुरुदेव भी अचरज में पड़ गये। रोज अनेक सखियों के साथ आने बाली राजसुता किसी कुष्ठि के साथ कैसे आई ? गुरुदेव ने मयणा से पूछा
"राजकुमारी । आज अकेली कैसे
? और ये साथ में कौन है ?
गुरुदेव .... । अब में मालवपति की पुत्री नहीं रही उम्बरराणा की महारानी बन गई हूं..। पिताजी ने मेरी शादी ७०० कोठिये के स्वामी इन राणा के साथ की है । मयणा ने राज सभा में घटित सारी घटना कह डाली ।
क्षण भर तो गुरूदेव भी अचरज में पड़ गये एक पल को तो उन्हें भी नहीं समझ में आया परन्तु शीघ्र ही सकते की हालत से बाहर आते हुए उन्होंने मयणा से कहा “रामकुमारी यह सब पूर्व भव के कर्मो
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के परिणाम है इसलिए परिणाम की चिन्ता से मुक्त रहकर अपना धर्म करती रहना।
मयणा ने कहा " गरुदेव.... । मुझे कोढिया पति मिला है इस बात का कतई दुख नहीं है किन्तु लोग धर्म की निन्दा करते हैं यह बात मुझे कांटे की तरह चुभ रही है आप कोई उपाय नहीं बता सकते गुरूदेव ?
"मयणा ... । हम तो निर्ग्रन्थ साधु है मन्त्र-तन्त्र बताना हमारे लिये योग्य नहीं हैं किन्तु इस जैन शासन में मनवान्छित की प्राप्ति करवाने वाला सिध्दचक्र है तू नवपद की आराधना करना तेरा पति अवश्य ही रोग मुक्त हो जावेगा ।" गुरुदेव ने उपाय बताया।
मयणासुन्दरी पुनः गुरुदेव को वंदन करके अपने स्थान पर चली गई । उसने निश्चय किया कि मैं नवपद की आराधना करूगी।
समय बीता और शाश्वतो नवपद की ओलीजी का पदार्पण हुआ मयणासुन्दरी ने अपने कुष्ठिपति राणा के साथ भगवान श्री ऋषभदेवजी के जिनालय में नवपद को ओली आराधना प्रारम्भ की।
पहले ही दिन अरिहंत की आराधना करके प्रभुजी का पक्षाल अपने पति को लगाया कि चमत्कार हुआ । आधा कुष्ठ रोग उसी क्षण भाग गया।
आराधना करने का उल्लास खूब ही बढ़ गया था। प्रतिदिन आराधना के बाद पक्षाल लगाने से रोग नष्ट होने लगा। अन्तिम दिन तो राणा की देह सुवर्ण की तरह चमकने लग गयी थी। उसका सारा रोग नष्ट होकर निरोगी हो चुका था। उसका रूप मानों कामदेव से भी ज्यादा रूपवान हो चुका था। ___ उम्बरराणा भौर मयणासुन्दरी के हर्ष का पार न रहा। उन्होंने सभी सात सौ कोढ़ियों के कुष्ट रोग का भी निवारण किया स्नात्र नल से ..। सभी उम्बरराणा की जय-जयकार करते हुवे अपने-अपने स्थान पर चले गये।
उम्बरराणा ही श्रीपालराजा के नाम से जैन जगत में प्रसिद्ध हवे है। श्रीपाल राजा के पिता का नाम सिंहरथराजा था। वे चम्पानगरी के राजा थे। श्रीपाल और मयणासुन्दरी ने इसी उज्जैन में नवपद को माराधना करके कुष्ठ रोग दूर किया था। .
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इस घटना से भगवान श्री ऋषभदेव प्रभु की महिमा बढती ही गयी जो भी कोई श्री ऋषभदेव प्रभु के दरबार में आता उसकी मनोकामना प्रतिमाजी के अधिष्ठायक पूर्ण करते थे। अतएव लोगों की श्रद्धा प्रभजी के मन्दिर में दृष्टि-गोचर होने लगो भाव भक्ति से लोगों ने प्रतिमाजी को केशर चढ़ाना शुरु कर दिया धीरे-धीरे केशर इतनी मात्रा में चढ़ने लगी कि प्रभुजी का नाम तक बदल गया और भगवान ऋषभदेवजी केशरियानाथ के नाम से ही पहचाने जाने लगे। ____ श्रीपाल महाराजा और महासती मयणासुन्दरी ने यहाँ नवपद की भाराधना करके कुष्ठ रोग का निवारण किया था तभी से यह जिनालय श्री सिद्धचक्राराधन-केशरियानाथ महातीर्थ के नाम से जग प्रसिद्ध हुआ ...।
काल की तूफानी चपेटों से बचता हुआ यह महातीर्थ उज्जयिनी नगरी में स्थिर रहकर अपना अस्तित्व बनाये था कि एक दिन अधिष्ठायक देवों ने यहां से भगवान श्री केशरियानाथ प्रभु की चमत्कारी प्रतिमाजी को पाताल मार्ग से मेवाड़ के बड़ोद गांव ले जाकर प्रतिष्ठित कर दी।
समय ने करवट बदली तो अधिष्ठायक देवों द्वारा वह प्रतिमा वहां से उदयपुर धुलेवा नगर में ले जाई गई। वर्तमान में धुलेवा में पुजित केशरियानाथ प्रभु की प्रतिमा वही है जो श्रीराम....सीताजी .. और लक्ष्मणजी के बाद श्रीपाल महाराजा और महारानी मयणासुन्दरी के द्वारा पूजाई गई थी। आज वह प्रतिमा केशरियाजी धुलेवा में उसी स्थिति में पूजा रही है।
श्रीराम लक्ष्मण और सीताजी के द्वारा प्रतिमाजी उज्जन लाना तथा उज्जैन में श्रीपाल महाराजा तथा महारानी मयणासुन्दरी द्वारा श्री सिद्धचक्रजी की आराधना वाली बात की सत्यताउजागर करताएक ऐतिहासिक शिलालेख यहां आज भी विद्यमान है। वर्तमान में तीर्थ का जीर्णोद्धार
विक्रम संवत १९९० में आगमोद्धारक ध्या. स्व. परम पूज्य आचार्य भगवन्त श्रोमान् आनंदसागरसूरीश्वरजी म. सा. के पट्टशिष्यरत्न परम पूज्य मुनिमहाराज श्री चन्द्रसागरजी म. सा. अपने शिष्य समुदाय के साथ उज्जैन पधारे। वैसे पूज्य गुरुदेव को यहां लाने का श्रेय श्रेष्ठिवयं श्री हीरालालजी पिपलोन वालों को है । पूजा मुनिराज
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श्री चन्द्रसागरजी म.सा. का उज्जैन पदार्पण हुआ तब यहां के श्रावकगणों ने कहा
"गुरुदेव ...! यहां श्रीपाल - मयणासुन्दरी का मन्दिर है ।"
श्रावकगण की बात सुनकर गुरुदेव के दिल में वर्षों पहले कहीं पुस्तक में पढ़े इतिहास की स्मृति ताजी हो गई । पूज्य गुरुदेव श्री चन्द्रसागरजी म.सा. बचपन से ही नवपद के आराधक रहे हैं। लगभग १४ वर्ष की बाल्यवय से ही पूज्य गुरुदेव श्री चन्द्रसागरजी म. सा. ने श्री सिद्धचक्रजी को अपने मानस पटल पर विराजमान किया था । आपकी आत्मा के पोर-पोर में सिद्धचक्रजी के प्रति अपार श्रद्धाभक्ति बसी हुई थी। आपने १४ वर्ष की बाल्यवय से ही नत्रपद की ओलीजी प्रारम्भ की थी जो कि जीवन पर्यन्त दोनों ओली करते रहे ।
आपने बाल्यकाल से ही श्रीपालराजा तथा मयणासुन्दरी के जीवनचरित्र को पढ़ रखा था एवं मुनि जीवन में श्रीपाल मयणासुन्दरी का चरित्र आपने रसमय शैली में अनेक बार प्रवचन में श्रोताओं को सुनाया भी था। उन्हें याद था कि नवपदजी की ओलीजी का प्रारम्भ सर्वप्रथम उज्जैन में ही हुआ था। उज्जैन नवपदजी की आराधना का मूल स्थान है।
उज्जैन के श्रावकों ने जब कहा कि यहां श्रीपाल मयणासुन्दरी का मन्दिर है तब उसी क्षण गुरुदेव शिष्यों के साथ खाराकुआ देहराखडकी पर आये । उस समय संवत् १९९० में यहां जीर्ण-शीर्ण अवस्था में मन्दिर था । गुरुदेव ने श्रावकों से पूछा
"कहां है श्रीपाल मयणासुन्दरी का मन्दिर ...? "
rani ने कहा "गुरुदेव
मन्दिर तो जिनेश्वरदेव का है किन्तु . यह मन्दिर श्रीपाल मयणासुन्दरी के मन्दिर के नाम से जाना जाता है । यहां ऐसी दन्तकथा है कि आज से ११ लाख वर्ष पहले श्रीपाल - मयणा ने यहां श्री केशरियानाथ प्रभु के जिनालय में श्री सिद्धचक्रजी की आराधना से कुष्ठ रोग निवारण किया था ।"
गुरुदेव ने श्रीपाल चरित्र में पढ़ रखा था कि उनकी आराधना स्थली उज्जैन है । आज उन्हें दन्तकथा से यह मालूम हुआ कि यह वही स्थान है जहां श्रीपाल महाराजा ने आराधना की थी ।
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मुरुदेव ने जीर्णं जिनालयों के दर्शन बंदन किये व पास ही में एक जीर्ण मकान था वहां अपना मुकाम लगाया।
उस समय खाराकुआ स्थित इस मन्दिर में मूलनायकजी आदिनाथजी का मन्दिर काले पत्थर का था जो कि अत्यन्त जीर्ण हो गया था । एक ओर श्री वर्धमान स्वामी का जिनालय ईमारती लकड़ियों से निर्मित था जो कि अत्यन्त जीर्ण हालत में खड़ा था। दूसरी ओर श्री चन्द्रप्रभ स्वामीजी का जिनालय लकड़ी का बना गिरने की स्थिति में था।
पूज्य गुरुदेव को दन्तकथा से विश्वास नहीं हो रहा था कि यह वही स्थान होगा ..? उन्होंने मन्दिरजी का बारीकी से निरीक्षण किया। वहीं गुरुदेव को एक जीर्ण ऐतिहासिक शिलालेख हाथ लग गया। जिसे पढ़ने पर यह तय हो गया कि यह शिलालेख श्रीराम सीताजी के द्वारा लंका से लाये श्री केशरियानाथ प्रभु का है। तथा श्रीपाल मयणासुन्दरी की भाराधना का भी वर्णन उक्त शिलालेख पर अंकित था।
गुरुदेव के मन में अचानक ही यह भावना आ गयी कि इस तीर्थ का जीर्णोद्धार करवाना ही है। आप नवपद के अनन्य आराधक तो थे ही। आपने तीर्थ जीर्णोद्धार के लिये उज्जैन में जैन श्रीसंघ की पेढ़ी की स्थापना के लिये श्रावकों को प्रेरित किया। पेढ़ी की स्थापना
दिनांक १६ अप्रेल १९३५ विक्रम संवत् १९९२ के चैत्र सुद १३ के शुभ दिन पेढ़ी स्थापना की बोली उज्जन श्रीसंघ के समक्ष बोली गई। जो कि २१०१ रुपये में स्व. श्री छगनीरामजो पन्नालालजी सिरोलिया के नाम पर समाप्त हुई। उसी दिन इन मन्दिरों की व्यवस्था के लिये "श्री ऋषभदेवजी छगनीरामजी पेढ़ी" की स्थापना
पेढ़ी की स्थापना होते ही जिनालयों का जीर्णोद्धार कार्य प्रारम्भ करने के लिये तैयारियां हुई । विक्रम संवत् १९९५ की वैशाख सुकी ७ शुक्रवार के दिन श्रेष्ठिवर्य श्री अमरचन्दजी छगनीरामजी सिरोलिया ने इस तीर्थ का मुख्य द्वार तथा पेढ़ी का भवन अपनी लक्ष्मी का सदु
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पयोग करके बनवाया। जो कि आज भी अपने आप में बेजोड़ मिसाल कायम किये हुए कायम है। सिद्धचक्रपट्ट की स्थापना
पूज्य गुरुदेव श्री चन्द्रसागरजी महाराज साहेब के उपदेश से विक्रम संवत् १९९५ की वैशाख सुदी ७ को श्री केशरीमलजी जेठमलजी कराडिया वाला हाल उज्जैन निवासी ने श्री सिद्धचक्रजी का आरसा पट्ट रु. ५०००) की लागत से बनाकर देहरी में प्रतिष्ठित करावाया।
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सिद्धचक्रजी का पट्ट अपने आप में बेनुम है। यहां आने वाले दर्शनार्थियों का कहना है कि भारतभर में ऐसा सुन्दर पट्ट कहीं भी नहीं है । आरस की शिखर वाली देहरी में मन्दिर के मध्य में यह पट्ट एक तीर्थ के रुप में यहाँ सशोभित है। प्रतिवर्ष यहां दोनों ओलीजी की आराधनाएं होती हैं। मालवे के कई गांव के श्रद्धालु यहां ओलीजी करने आते हैं। ___ सामुदायिक ओलीजी का सिलसिला संवत 2000 के साल में पू. मुनि श्री चन्द्रसागर जो म. सा. को प्रेरणा एवं निश्रा में प्रारम्भ हुमा है।
ओलोजो को आराधना भारत वर्ष का ऐतिहासिक रेकार्ड रही है। उस समय आमन्त्रण पत्रिकाएं छपवाकर सम्पूर्ण भारत वर्ष में निमन्त्रण भेजे थे। परिणाम स्वरुप 135 जगह के श्रीसंघों के श्रावक श्राविकाओं ने यहां आकर ओली की सामुहिक आराधना प्रथम बार की थी। समापन पर श्रावको की संख्या अनुमानित सत्तावीश हजार के करीबपी।
विक्रम संवत् 2045 के वैशाखसदी 7 को श्री सिद्धचक्रजी के 50 वर्ष पर सुवर्ण जयन्ति महोत्सव मनाया गया। उस समय पू. आचार्यदेव श्री चन्द्रसागर सूरीश्वर जी म. सा. के कृपापात्र शंखेश्वर आगम मन्दिर संस्थापक पूज्य पन्यास प्रवर श्री अभ्युदयसागर जी म. सा. के लघुगुरुभ्राता मालव भूषण पूज्य पन्यास प्रवर श्री नवरत्नसागरजी म. सा. तथा पूज्य ज्योतिर्विद मुनिराज श्री जिनरत्नसागरजी म.सा. की पावन निश्रा में सिद्धचक्र जी पट्ट के उपर गुमज जैसा शिखर बनवा कर उस पर ध्वज दण्ड प्रतिष्ठा 9001 रु. की बोली बोळकर श्री जेठमलजी केशरिमलजी कराडियावालों ने करवाई है । उस समय पू. नेमिसूरिजी म. सा. के समुदाय के पूज्य पंन्यास श्री कुन्द कुन्द विजयजी म.सा. भी यहां उपस्थित थे। नवपद लक्ष्मी निवास धर्मशाला
विक्रम संवत 1995 में पूज्य मुनिप्रवर श्री चन्द्रसागरजी म. सा. राजगढ़ चातुर्मास करके पुनः उज्जैन पधारे यहां श्री संघ के आग्रह से चैत्र माह की नवपद जी की ओली पूज्य गुरुदेवश्री की निश्रा में हुई। इस अवसर पर बम्बई नवपद आराधक समाज के साथ साथ मालवे के 35 गांवों के श्री संघों के दस हजार आराधकों ने यहां ओली जी की आराधना की थी । आराधकों की संख्या दिन प्रतिदिन बढती जाने लगी
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थी अतः नवपद आराधक समाज के सुप्रयत्न से यहां धर्मशाला बनवाने का निश्चय किया गया। जामनगर निवासी श्रेष्ठिवर्य श्री चुन्नीलाल जी लखमीचंदजी ने रु. 10000 की लागत से यहां धर्मशाला बनवाई। धर्मशाला
कानाम श्री नवपद - लक्ष्मी निवास धर्मशाला रखा गया । धर्मशाला दो मंजिल पक्की एवं तीसरी मंजिल पर टीन के पतरे लगाकर कुल 21 कमरों की विशाल धर्मशाला यहां आज भी विद्यमान है। यहां तीर्थंयात्री को निशुल्क ठहराया जाता है ।
वर्धमान तप आयम्बिल खाता
विक्रम संवत् 2001 में पूज्य गुरुदेव श्री की प्रेरणा से प्रेरित होकर लुनजी श्री छगनलालजी मारु एवं स्व श्रीमती सुन्दरवाई की पुण्य स्मृति में उनके सुपुत्र श्री बाबूलाल छगनलाल माह इस तीर्थ में 9501 रु.
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का व्यय करके श्री वर्धमान तप आयम्बिल भवन का नवनिर्माण करवाया । उस समय यहां आठम और चउदस को आयम्बिल होते थे तथा प्रति वर्ष दोनों ओली होती थी । विक्रम संवत् 2023 में पूज्य
मुनिराज श्री अभ्युदयसागर जी म. सा. की प्रेरणा से यह वर्धमान तप आयम्बिल खाता प्रतिदिन के लिये चालू किया गया ।
भोजन शाला
विक्रम संवत 2001 में यात्रियों का आवागमन अधिक बढ़ जाने से व्यवस्थापकों ने इस तीर्थ में सुविधा को दृष्टि से यात्रियों को सात्विक
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भोजन प्राप्त हो सके इस हेतु भोजनशाला का निर्माण करवाने का निश्चय किया। यहां के जागृत अधिष्ठायकों को मेहर से बढ़वाण निवासा श्रेष्ठिवर्य श्री कान्तिलालजी जीवनलालजी अवजो ने भोजनशाला बनवाकर 'श्री पार्वतीबाई जैन भोजनशाला' का नाम लिखवाकर संस्था को समर्पित की। साथ ही यहां यात्रार्थ आने वाले यात्रियों को एक टाइम का भोजन निशुल्क हेतु 11000 रुपये की स्थाई राशी भी संस्था के संचालकों को समपित की थी। भोजनशाला आज पर्यंत चाल है आज भी यहां यात्रार्थ आने वाले यात्रियों का एक टाइम निःशुल्क भोजन दिया जाता है । वह भोजनशाला श्रीवर्धमान तप आयम्बिल भवन की दूसरी मंजिल पर है । उपाश्रय का नव निर्माण
श्रीपाल-मयणा सुन्दरी के आराधना स्थल पर पुनः श्री सिद्धचक्रजी का विशाल नयनारम्य पट्ट की प्रतिष्ठा होने से पुन: यह जिनालय श्री सिद्धचकाराधन तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध होने लगा था। यात्रियों के साथ-साथ पूज्य मुनिभगवन्तों का तथा साध्वीजी महाराजों का आवागमन भी बढ़ने लगा । दूर-दूर से श्रमणवर्ग यात्रार्थ यहां आने लगे। उस समय यहां मनिवरों को ठहराने के लिये एक जीर्ण मकान था । वहीं मुनिभगवन्त ठहरते थे । सुविधा नाम की कोई व्यवरथा यहां नहीं थी । संस्था के संचालकों को पूज्य आचार्यदेव श्री चन्द्रसागर सरीश्वरजी महाराज साहेब ने पौषधशाला के नवनिर्माण के लिये प्रेरित किया। __ पेढ़ो के संचालक श्री मांगनीरामजी मगीलाल जी सिरोलिया ने आचार्य देव श्री के उपदेश से प्रेरित होकर उपाश्रय का निर्माण करने के लिये अपनी तैयारी बताई गुरुदेव के मार्गदर्शन में विक्रम सवंत 2017 में रुपये । 8000 खर्च करके उपाश्रय भवन की एक मंजिल तैयार हो गई। इससे यहां पधारने वाले मनिवरों को अत्यधिक सुविधा हो गई। पूज्य आचार्य देव श्रीचन्द्रसाग़र सूरीश्वरजी के उपदेश से उज्जैन कलकत्ता, अहमदाबाद, बम्बई, आदि सद्गृहस्थों की लक्ष्मी से उपाश्रय भवन के उपर दूसरी और तीसरी मंजील रु. 70,000 खर्च करके बनाई गई।
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ज्ञान मन्दिर
उपाश्रय, ज्ञान मन्दिर एवं धर्मशाला
विक्रम संवत् 2019 मे पूज्य आचार्य देव श्रीचन्द्रसागर सूरीश्वरजी म. सा. ने इस तीर्थ मे एक विशाल ज्ञान मन्दिर बनवाने का संकल्प किया। थोड़े ही दिनों में आपने उपाश्रय भवन की तीसरी मंजील पर "आचार्य श्री चन्द्रसागरसूरि जैन ज्ञान मन्दिर" की स्थापना की । आज भी वह ज्ञान मन्दिर यहां विद्यमान है पूज्य आचार्यदेव गुरुदेव की भावना साकार हो रही है । विद्यावीर श्रेष्ठिवर्य श्री कुन्दनमलजी मारु ने इस ज्ञान मन्दिर को खूब ही सजाया है । पूज्य गुरुदेव पंन्यास प्रवर श्री अभ्युदयसागरजी म. सा. ने इस ज्ञानमन्दिर को विशाल करने हेतु संवत् 2013 में कुन्दनमलजी मारु को प्रेरित किया था । आपके उपदेश से श्री कुन्दनमलजी मारू के सुप्रयास से यहां ज्ञानमन्दिर को राजमार्ग तक आगे बढ़ाने के लिये प्रयत्न चालू किया गया । नीचे से जीर्ण मकान का उन्होंने दानदाताओं की मदद से दो मंजील तक नव निर्माण करवाया जिससे उपाश्रय भवन दो मंजिल तक लम्बा और विशाल हो गया । किन्तु ज्ञानमन्दिर को विशाल बनाने की भावना पूर्ण न हो सकी अनायास ही विद्याव्यसनी श्रीमान कुन्दनमल जो मारु परलोक की लम्बी यात्रा पर चल दिये । व कार्य वहीं स्थिर हो गया । पेढ़ी के संचालकगण उस कार्य को पूर्ण करने की योजना बना रहे है जो अल्प समय में शासन देवों की कृपा से पूर्ण होगी ।
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आज वर्तमान समय में ज्ञानमन्दिर में १५.००० जैन धर्म को दुर्लभ पुस्तकें हैं । तथा हस्तलिखित अलभ्य ग्रन्थ लगभग ४००० की संध्या में विद्यमान है। इस ज्ञानमन्दिर का उदारवादी उद्देश्य रहा है। यहां अन्य वैदिक .. ज्योतिष .. इस्लाम .. सिक्ख ...ईसाई आदि धर्मों के भी धर्मग्रन्थ संग्रहित किये गये हैं। , विद्वानों का मत है कि मध्यप्रदेश में इतनी बड़ी जैन लायब्रेरी अन्य कहीं भी नहीं है। आज भी यहां जैन अजैन अनेक सज्जन पी. एच. डी. आदि के अध्ययन हेतु आते हैं उन्हें समुचित व्यवस्था उपलब्ध कराई जाती है । ___ विक्रम संवत् २००० में पूज्य गुरुदेव पन्यासप्रवर श्री चन्द्रसागरजी महाराज सो. के सदुपदेश से भोजनशाला के उपर पेढ़ी के मुख्य संचालक श्री अमरचन्दजी छगनीरामजो सिरोलिया ने रु. ५००१) का स्थाई कोष पेढ़ी पर जमा करवाकर अपनी स्व. सुपुत्री की स्मृति में उज्जैन के बालक बालिकाओं के धार्मिक अध्ययन हेतु यहां "श्री मामकुवर जैन कन्याशाला की स्थापना की थी। जो माज तक भी चालू है। चन्द्रप्रभस्वामी जिनालय का जीर्णोद्धार
पूज्य गुरुदेव विक्रम संवत् १९९० में सर्वप्रथम उज्जैन में पधारे थे तब यहां मुख्यतया तीन जिनालय थे। श्री मूलनायकजी ऋषभदेवजी का जिनालय श्री चन्द्रप्रभस्वामी जिनालय एवं श्री महावीरस्वामी जिनालय ।
वैसे तो तीनों मन्दिर जीर्ण ही थे किन्तु श्री चन्द्रप्रभस्वामीजी का जिनालय लकड़ी का बना हुआ था। लकड़िया सड़ चुकी थी। उस समय जो लकड़िया अत्यन्त सड़ गई थी उन्हें बदल दी गई थी व जिनालय योड़ा व्यवस्थित कर दिया था। .. विक्रम संवत् २०१९ में पूज्य आचार्यदेव श्री चन्द्रसागर सूरीश्वरजी म. सा. की प्रेरणा से प्रेरित होकर पेढ़ी के संचालकों ने श्री चन्द्रप्रभस्वामीजी के जिनालय का पुनः जीर्णोद्धार कार्य प्रारम्भ करवाया। नीचे से उपर तक लकड़ियां थी उन्हें निकालकर पत्थर का जिनालय बनवाने का निश्चय किया गया। यह जीर्णोद्धार कार्य अहमदाबाद जोर्णोद्धार कमेटी की सहायता से पूर्ण हुआ। तीन शिखरों से सुशोभित रंग मंडप के गुम्मजों से रलियामना यह जिनायल अति दर्शनीय हो गया। मूल गुम्मज अति विशाल है। मूलनायक श्री चन्द्रप्रभस्वामीजी की पुनः मूलनायक तरीके से पूज्य आचार्यदेव ने प्रतिष्ठा करवाई।
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श्री केशरियानाथ महातीर्थ
पूज्य आचार्यदेव श्री चन्द्रसागर सूरीश्वरजी म. सा. के मन में वर्षों से एक भावना थी कि यहां वर्षों पहले केशरियानाथ प्रभु विराजमान थे अतः केशरियानाथ प्रभु की आबेहुव प्रतिमाजी यदि यहां होवे तो नवपद की आराधना करने वाले भाविकों को आराधना में भावोल्लास जागृत होवे पूज्य आचार्यदेव की भावना विक्रम संवत् २०१६ में साकार होने लगी आपने पेढ़ी के संचालकों को श्री केशरियानाथ महातीर्थ की पुनः स्थापना हेतु प्रेरित किया संचालकों को गुरुदेव पर अनहद श्रद्धाथी अतः सभी ने महातीर्थ की स्थापना हेतु कमर कसी ।
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पूज्य आचार्यदेव के उपदेश से श्री केशरियानाथ महातीर्थ के जिनालय हेतु विक्रम संवत् २०१६ में पोष बिदी ६ दिनांक २०-१-६० के शुभ दिन प्रातः श्रेष्ठिवर्य श्री नेमीचन्द ताराचन्द की सुपुत्री बालब्रह्मचारिणी कुमारी विमलाबेन के शुभ कर कमलों से खाद मुहूर्त करवाया गया। उसी वर्ष में एक माह पश्चात महा बिदी ६ गुरुवार दिनांक १८-२-६० के शुभ दिन प्रातः घोघा निवासी श्रेष्ठिवयं श्री कान्तिलालजी मोहनलालजी शाह के करकमलों द्वारा इस महातीर्थ का शिलारोपण किया गया ।
शिलारोपण के दिन से ही महातीर्थ का कार्य धड़ाके बन्द चालू हो गया। अनेक कारीगरों ने अपनी छिनी हथोड़ी से महातीर्थ को आकार प्रदान करना प्रारम्भ किया ।
पूज्य आचार्य देव ने भगवान श्री केशरियानाथ प्रभु की प्रतिमा हेतु जयपुर से कारीगर बुलवाये व उन्हें समझा कर घुलेवा भेजे । जहां उज्जैन के हो मूल केशरियानाथ प्रभु विराज रहे थे। कारीगरों ने वहां विराजमान केशरियानाथ जी की प्रतिमा जी का बारीकी से निरीक्षण किया। प्रतिमाजी का साइज प्रतिमाजी की मोटाई, लम्बाई चोड़ाई का माप लिया प्रतिमाजी का आबेहुब चित्र लेकर कारीगरों ने पूज्य आचार्यदेव श्री के. मार्गदर्शन में श्यामवर्णी आरसमय प्रतिमा को आकार प्रदान किया। पूज्य आचार्यदेव के उपदेश से प्रेरित होकर श्रेष्ठिवर्य हजारीमलजी बिरदीचन्द्रजी की धर्मपत्नी रम्भाबेन ने रूपये 4000 की राशी प्रदान करके श्री केशरियानाथ प्रभु की प्रतिमा भरबाने का लाभ लिया ।
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महातीर्थ का कार्य व्यवस्थित और जल्दी पूर्ण हो इस इरादे से इस नवनिर्माण का कार्य अहमदाबाद में देरासर जीर्णोद्धार कमेटी को सौंप दिया गया। अहमदाबाद जीर्णोद्धार कमेटी के ट्रस्टीयों ने पूज्य आचार्यदेव को आज्ञा और मार्गदर्शन से जिनालय का कार्य अल्प समय में पूर्ण कर दिया।
श्री ऋषभदेव छगनीराम पेढ़ी के संचालकों ने नूतन जिनालय में भगवान केशरियानाथ प्रभु की अंजनशलाका - प्रतिष्ठा पूज्य आचार्य देव के उपदेश से प्रेरित होकर विक्रम संवत् 2019 में करवाने का निश्चय किया। स्व. हजारीमलजी बिरदीचन्दजी की धर्मपत्नि रम्भावेन अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव के खर्च हेतु रुपये 11000 पेढ़ी को समर्पित किये। अंजनशलाका प्रतिष्ठा के महोत्सव का भारतवर्ष के सभी श्रीसंघ लाभ ले सके इस हेतु अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव आमन्त्रण पत्रिका छपवाकर सभी जगह भेजी गई । उस समय प्रतिष्ठा महोत्सव 11 दिन का हुआ था। आचार्यदेव श्री चन्द्रसागरसूरीश्वर - जो म. पू. उपाध्याय श्री देवन्द्रसागरजी म. सा. पूज्य मुनि श्री अभ्युदयसागरजी म. सा. आदि 22 ठाणा तथा पूज्य साध्वी श्री मनोहर श्रीम. सा. श्री फल्गुश्रीजी म. सा श्री इन्दु श्री जी म. आदि 50 ठाणा की उपस्थिति में पूज्य आचार्यदेव ने वैशाखसुदी 10 दिनांक 14-5-1962 के शुभ दिन प्रात: स्टे. टा. 7-20 बजे अंजनशलाका विधि प्रारम्भ की थी । उसके मात्र 1 घण्टे बाद ही आचार्यदेव के वरद हस्ते ॐ पुण्याहं पुण्याहं के उच्चार पूर्वक भगवान श्री केशरियानाथ प्रभु को ग्रादीनशीन रुप प्रतिष्ठा विधि हुई थी ।
पू. चन्द्रसागर सुरीश्वरजी म. सा. श्री केशरियाजी की प्रतिष्ठा करते हुवे
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भगवान श्री केशरियानाथ जी को गादीनशीन का लाभ 4001 रुपये में, ध्वजदण्ड चढाने का लाभ 851 रु. में तथा सुवर्ण कलश चढाने का लाभ 625 रुपये में बम्बई निवासी शाह कान्तिलाल मोहनलाल ने प्राप्त किया था ।
बस उसी दिन से यह श्रीपाल मयणा सुन्दरी की आराधना स्थल पर श्री सिद्धचकाराधन केशरियानाथ महातीर्थ हो गया ।
अन्य जिनालयों का जीर्णोध्दार
विक्रम संवत् 2019 में श्री केशरियानाथ प्रभु तथा चन्द्र प्रभु स्वामी की प्रतिष्ठा होने के बाद आचार्यदेव की भावना श्री महावीर स्वामी तथा श्री ऋषभदेवजी के जिनालय का जीर्णोध्दार कराने की भावना जागृत हुई। वैसे तो आपकी भावना वषों से थो कि देहरा खिड़की खाराकुमा मन्दिरों का मैं जीर्णोध्दार कराऊँगा। वे एक एक जिनालय का जीर्णोदार करते रहे । अब उन्होंने श्री ऋषभदेव जी का जिनालय तथा श्री महावीर स्वामी के जिनालय का जीर्णोध्दार के लिये पहल की
किन्तु आचार्यदेव का स्वास्थ उसी वर्ष से बिगड़ गया और थोड़े ही समय में आचार्यदेव समाधि पूर्वक सूरत नगर में परलोक की कठिन यात्रा के यात्री बनकर चले गये ।
गुरुदेव की भावना को उनके ही अनहद कृपापात्र शिष्यरत्न पूज्य मुनिराज श्री अभ्युदयसागरजी म. सा. तथा पूज्य मुनि श्री नवरत्नसागरजी म. सा. ने ध्यान पर लेकर दोनों मन्दिरों का जीर्णोध्दार करने के लिये संचालकों को पुनः उत्साहित किया। यहां पूर्व में श्री ऋषभदेवजी का जिनालय वाले पाषाण का बना हुआ था किन्तु अत्यन्त जीर्ण हो गया था । तथा श्री महावीर स्वामी जी का जिनालय लकड़ी का बना हुआ। वह भी अत्यन्त जीर्ण हो रहा था तिलघर मे शंरवेश्वर पार्श्वनाथ प्रभु विराज रहे थे वह भी अत्यन्त जिनालय जीर्ण हो रहा था ।
पूज्य गुरुदेव मुनिराज श्री अभ्युदयसागर जौ म ने विक्रम संवत 2023 में श्रीमहावीर स्वामी के जिनालय का निर्माण कार्य नींव से ही प्रारम्भ करवा दिया। श्री ऋषभदेव जी के जिनालय का जीर्णोध्दार भी उसी समय प्रारम्भ हुआ। साथ ही विक्रम संवत् २०२३ में गुरुमंदिर की खाद मुहूर्त भी पूज्य मुनिराजश्री की प्रेरणा से हुआ। तीनों जगह का कार्य तीव्रगति से होने लगा ।
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विक्रम संवत् २०३४ में तिलघर में विराज रहे भगवान श्री शंखेश्वरपाश्र्वनाथ प्रभु के जिनालय का खाद मुहूर्त भी पूज्य मुनिराज श्री अभ्युदयसागरजी म. सा. की प्रेरणा से गौतमपुरा निवासी श्रेष्ठिवर्य श्री मनसुखलालजी मंडोवरा के सुपुत्र दीक्षार्थी श्री पंचमलालजी मंडोवरा के करकमलों से करवाया गया। .. तीनों जिनालय तथा गुरुमन्दिर की पुन: प्रतिष्ठा विक्रम संवतू २०३४ के फागण बिदी २ को पूज्य मनिराज श्री अभ्युदयसबरजी म. सा. तथा पूज्य मुनिराज श्री नवरत्नसागरजी म. मुनि श्री अपूर्वरत्नसागरजी म., मुनिश्री मिनरत्नसागरजी म., मुनि श्री जयरत्नसागरजी म., मुनि श्री जितरत्नसागरजी म., मुनि श्री चन्द्ररत्नसागरजी म. तथा नूतनदीक्षित मुनि श्री मुक्तिरत्नसागरजी म. आदि मुनिमंडल एवं साध्वीजी श्री फल्गुश्रीजी म. साध्वीजी श्री इन्दुश्रीजी म. आदि ठाणा ५० को निश्रा में महोत्सव पूर्वक सानंद सम्पन्न हुई थी। तीर्थ की वर्तमान स्थिति
श्रीपाल मार्ग, खाराकुआ स्थित मुख्य राजमार्ग पर उत्तर सम्मुख विशाल मुख्य द्वार बना हुआ हैं। द्वार पत्थर का मजबत बनाया गया है जिसके उपर नगारखाना बनाया गया है। द्वार के दाई ओर पेढ़ी का मुख्य कार्यालय है। आगे चलकर एक छोटा सा चौक है। उसके सामने भव्य विशाल तीन मंजिल उपाश्रय भवन है । नीचे तलमंजील व्याख्यान हाल तथा उपर पूज्य मुनिराजों को ठहरने हेतु विशाल हाल हैं। तीसरी मंजीक पर ज्ञानमन्दिर है। पेढ़ी के पास ही नतन "आनंद चन्द्र-अभ्युदय आराधना भवन" बना हुआ है । इस उपाश्रय के पास हो एक पतली ग़ली है जिससे लगी हुई विशाल तीन मंजीक "नवपद लक्ष्मी निवास" धर्मशाला की इमारत है । उसके सामने विशाल एवं सुरम्य खुल्ला चौक है । जो कि मारवल के दाने से जड़ा हुआ है । धर्मशाला के ठीक सामने ही "श्री वर्धमान तप आयम्बिल भवन तथा श्री पार्वतीबाई भोजन शाला की तीन मंजील इमारत है।
चौक के मध्य से जिनालय में प्रवेश हेतु मारबत का कलात्मक विशाल मुख्य द्वारा है। मुख्य द्वार से लगा हमाही संगमरमर से मढा हुआ विशाल खुला चौक है । मुख्य द्वारा की बाईं तरफ कोने में तीकघर में जाने का मार्ग है। साथ ही उपर के जिनालयों में जाने के लिये सीढियां है।
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सीढियां उतरकर नीचे जाने पर भगवान श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ का जिना - लय आता है जिनालय में तीन प्रतिमाजी हैं। भगवान श्री शंखेश्वर पार्श्व प्रभु की प्रतिमा अद्भुत और अलौकिक है। जिस पर शिलालेख नहीं है किन्तु प्रतिमा भारतभर में बहुत प्रसिद्ध है। प्रतिमाणी प्राचीन प्रतीत होती है। प्रतिमा जी कसोटी की प्रतित होती है। कुल तीन प्रतिमाजी है ।
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श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथजी
चोक की बाई तरफ मुलनायक श्री ऋषभदेव स्वामी का जिनालय है । उस जिनालय के विशाल गभारे में १५ प्रतिमाजी है । मूलनायक श्री ऋषभदेव जी प्रभु पर १६५९ का शिलालेख अंकित है । इस जिनालय में पांच तिगडे याने तीन तीन प्रतिमाजी विराजमान है। मूलनायक जी की दाई तरफ श्री ऋषभदेव जी की arraf विशाल प्रतिमा जो तथा बाई तरफ श्री पार्श्वनाथ प्रभु जी को श्यामवर्णी विशाल प्रतिमाजी विराजमान है । ये दोनों प्रतिमाजी भी प्राचीन प्रतित होती है। शिलालेख है किन्तु पढने में नहीं आते है । रंगमण्डप में आदिदेव श्री मूलनायक जी के गणधर श्री पुण्डरिक स्वामी की प्रतिमा अभी गोखले में विराजमान की गई हैं। जिनालय की भीतें एवं स्थम्वों पर आरस मढ़ा हुआ है । इस जिनालय का जीर्णोद्वार विक्रम संवत २०३४ में हुआ है ।
मूलनायक जो के जिनालय के उपर श्री महावीरस्वामीजी का जिनालय है मूलनायक भगवान की प्रतिमा महाराज सम्प्रति कालीन | सम्प्रति राजा के चिन्ह प्रतिमाजी पर मौजद हैं कुल ६ प्रतिमाजी बिराजमान है ।
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श्री मूलनायकजी ऋषभदेवजी का जिनालय
मूलनायक प्रभुजी से लगा हुआ श्री महावीर स्वामी का जिनालय है। जहां मूल गभारे में कुल ५ प्रतिमा जी हैं। मूलनायक श्री महावीर
स्वामीजी सम्प्रतिराजा के भराये गये है मूलनायक की दाईं और भी महावीर स्वामी की प्रतिमाजी विराजमान है जिसपर १३३६ का लेख अंकित है । शिलालेख अनुसार ७१० वर्ष प्राचीन प्रतिमाजी है सामने की ओर तिगडा है तथा दोनों तरफ दीवाल में एक एक गोखला हैं। दाईं ओर के गोखले में १६९५ के लेख वाली श्रीवासुपूज्य स्वामीजी की प्राचीन प्रतिमाजी विराजमान हैं ।
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श्री महावीर स्वामी
रंगमण्डप में भगवती देवी श्री पद्मावती माता की प्रतिमा विराजमान है। श्री महावीर स्वामी जिनालय का जिर्णोद्वार विक्रम संवत् २०३४ में पूर्ण हुवा था ।
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2003808
3:६
श्री ऋषभदेवजी एवं श्री महावीर स्वामी के जिनालय का एक मनोरम दृश्य - इसी जिनालय के उपर भी महावीर स्वामी जी का जिनालय है। प्रतिमाएं भति प्राचीन प्रतीत होती है । प्रतिमा इस जिनालय में कुल तीन हैं । ये प्रतिमाएं सम्प्रति कालीन प्रतीत होती है।
__ श्री महावीर स्वामी जिनालय से लगा हुआ ही गुरु मन्दिर है जिसमें भगवान श्री महावीर स्वामी के प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामीजी की प्रतिमा विराजमान है । एक तरफ आगमोद्धारक आ. भ. श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. की प्रतिमा है । तथा दूसरी तरफ मालवो. दारक आ. देव श्री चन्द्रसागरसूरीश्वर जी म.सा. की प्रतिमा है। जिनकी प्रतिष्ठा
विक्रम संवत् २०३४ में हुई है। गुरु मन्दिर, खारांकुआ
श्री महावीर स्वामी जिनालय के सामने ही श्री सिद्धचक्राराधन तीर्थ मन्दिर है जहां तीन शिखरवाली नयनरम्य देहरी में श्रीपालराजा
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एवं मयणा सुन्दरों सहित नवपद सिद्धचक्रजी का विशाल सुन्दर एवं आकर्षक पट्ट है । इसी स्थान पर प्रतिवर्ष दो ओली होती है ।
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मुख्यद्वार की दाहिनी तरफ तीर्थपति श्री केशरियानाथ प्रभु विराजमान हैं । प्रतिमाजी अति आकर्षक एवं विशाल है श्यामवर्णी परिकर सहित प्रतिमा जी की खास विशेषता तो यह है कि इस प्रतिमा के मस्तक के पीछे केश को लटें हैं जो कि दोनों कन्धों पर लटक रही हैं। भगवान श्री ऋषभदेव जी ने संयम लेते समय जब लोच करना प्रारम्भ किया था और चार मुष्ठि लोच कर लेने पर इन्द्र महाराजा ने प्रभु से प्रार्थना की थी हे स्वामिन् श्री केशरियानाथ जी आपके पीछे के केश जो कि कन्धे पर लटक रहे हैं ये बड़े ही आकर्षक और रमणीय लग रहे हैं अतः इन्हें ऐसे ही रहने दीजिये । तब प्रभुजी ने भी इन्द्र की विनंति मान्य रखकर पीछे के केश का लोच नहीं किया था। प्रतिमाजी में भी यही दर्शाने का प्रयत्न किया गया है। कुल मिलाकर प्रतिमाजी दर्शनीय, बंदनीय साथ ही दुर्लभ भी है ।
श्री केशरियानाथ प्रभु के जिनालय के उपर महावीरस्वामीजी का जिनालय है प्रतिमाजी परिकर युक्त है ।
श्री केशरियाजी जिनालय से लगा हुआ ताम्रपत्र आगम भण्डार निर्माणाधीन है जो कि गच्छाधिपति पूज्य आचार्य देव श्री देवन्द्रसागरसूरीश्वरजी म. सा. की प्रेरणा से प्रारम्भ हुवा था । अभी उसका कार्य पू. आचार्य देव श्री दौलतसागरसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रा में चल रहा है। यहां भण्डार के बीच पंचम गणधर श्री सुधर्मा स्वामी जी की प्रतिमा विराजमान करने की योजना है।
आगम भण्डार से लगा हुआ ही धातु की प्रतिमाजी का जिनालय है जो कि मकान के कमरे जैसा है। उसमें 57 प्रतिमा जी है ।
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धातु प्रतिमाजी के पास ही अधिष्ठायक देव श्री माणीभद्रवोर का स्थान है। यहां मणीभद्र जी स्थापित हैं । सिन्दूर लगाकर माणीभद्रजी की प्रतिमा जी यहां हाथी वाले बाबा के नाम से प्रसिद्ध है। यह प्रतिमाजी अति चमत्कारी है। यहां अनेक जैन अर्जन चोला चढ़ाते हैं। मोती झरा के रोगी यहां आकर मान करते हैं व उन्हें प्रत्यक्ष फल
की प्राप्ति भी होती है। श्री माणीभद्रवीर माणीमद्रवीर के पास ही चन्द्रप्रभस्वामीजी का तीन शिखरों से युक्तं जिनालय है । मध्य में श्री चन्द्रप्रभस्वामी जी मूलनायक है। एक
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अनेक शिखरों से युक्त तीर्थ का मनोरम दृश्य तरफ धातु के १५ इंच के अजीतनाथ जी मूलनायक हैं। दूसरी तरफ़ श्री पार्श्वनाथ प्रभु जी मूलनायक जी हैं इस जिनालय में कुल ३० प्रतिमाजी हैं।
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मलनायक श्री चन्द्रप्रभस्वामी जी को प्रतिमा १६५९ की यहां विराजमान है मलनायकजी के आसपास दोनों तरफ एक-एक प्रतिमाजी छोड़कर १२९३ के लख से अंकित पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा दोनों तरफ हैं। दोनों प्रतिमाजी एक जैसी ही, फणों से युक्त अद्धितीय है ।
धातु की प्रतिमाजी श्री अजीतनाथ प्रभु के दोनों तरफ सम्प्रतिराजाके चिन्ह
* वाली प्रतिमाएं हैं। डाबी तरफ श्री नेमिश्री चन्द्रप्रभ स्वामीजी नाथ प्रभुजी की प्रतिमा जी है जिस पर १३२४ का लेख अंकति है।
मूलनायक जो श्री चन्द्रप्रभस्वामी के दाईं तरफ दिवाल में गोखला है जिसमें श्यामवर्णी ९ फणा वाली प्रतिमा अष्ट प्रतिहार्यो से युक्त हैं। गादो को दोनों तरफ स्त्रीयों की आकृति उभरी हुई है । प्रतिमाजी अतिप्राचीन है जिस पर लेप किया गया है । प्रतिमाजी दर्शनीय है।
मूलनायक जी के आस पास श्री महावीर स्वामोजी तथा शान्तिनाथजी की प्रतिमाजी विराजमान है जो कि सम्प्रति कालीन है। __ मूलनायक जो की दाईं तरफ श्री पार्श्वनाथ जी मूलनायक है। जो कि सम्प्रति कालीन है । प्रतिमाजी श्वेतवर्णी ९ फणों से युक्त है। उनकी दाईं तरफ श्री आदिनाथ जी की प्रतिमा जी है जो कि सम्प्रति कालीन प्रतिमा है। उसके पास श्यामवर्णी ७ फणों से युक्त है। नागराज के फणों पर हाथ टिकाये प्रतिमाजी आकर्षक लगती है। उसके पास पुनः सम्प्रति कालीन आदिश्वर प्रभु की प्रतिमाजी है। दाईं ओर कोने में सात फणों से युक्त श्याम पार्श्वनाथजी की प्रतिमा शीला में उपसाई गई है। प्रतिमाजी पर लेप किया गया है। बाई तरफ दीवाल में गोखला है उसमें श्वेतवर्णी विशाल प्रतिमाजी पाव नाथजी की है जो कि फण रहित है जिस पर दसमुख संवत ४८ का शिलालेख अंकित है।
श्री पाश्वनाथजी
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श्री चन्द्रप्रभस्वामीजी जिनालय के बाहर गोखले में मुगल सम्राट अकबर प्रतिबोधक आचार्य महाराजाधिराज श्री विजयहीरसरिजी महाराज साहेब की प्रतिमाजी प्रतिष्ठित है।
श्री चन्द्रप्रभस्वामीजी जिनालय के उपर श्री घण्टाकर्ण महावीर देव का मन्दिर है। इनका मूल स्पान महुडी (गुजरात) में है। यहां भी भनेक भक्त आकर घण्टाकर्ण देव की भक्ति द्वारा मनवाच्छित प्राप्त करते हैं। श्री घण्टाकर्ण देव सम्यक दृष्टि देव हैं ऐसी किंवदंती हैं।
श्री सिद्धचकाराधन-केशरियानाथ महातीर्थ के दर्शन वंदन हेतु भारतभर से हजारों यात्री प्रतिवर्ष यहां आते हैं। प्रति दिन यहाँ
यात्रियों का आवागमन होता रहता है। . प्रस्तावित श्री प्रदिपकुमार वाडीलाल
गांधी जैन विद्यालय . . सन् १९७० में श्री सिध्दचक्राराधन केशरियानाथ महातीर्योध्दारक पूज्य आचार्यदेव श्री चन्द्रसागरसुरीश्वर जी म. सा. की प्रेरणा से प्रेरित होकर बम्बई घाटकोपर निवासी श्री वाडीलाल चतुर्भज गांधी ने श्रीपाल मार्ग पर स्थित ७०/१०५ फुट की विशाल भूमी जो कि अकबर बिल्डींग के नाम से जानी जाती है । उसे संस्था को 'श्री प्रदिपकुमार वाहीलाल गांधी जैन विद्यालय" बनवाने के लिये दान में दी।
पूज्य मुनिराज श्री अभ्युदयसागर जी म. की प्रेरणा से प्रेरित होकर श्री वाडीलाल चतुर्भुज गांधी ने अकबर बिल्डीग का दान संस्था को उपाश्रय भवन हेतु दान किया। वहां श्रीमती भानुमतिबेन वाडीलाल गांधी श्राविका उपा: श्रय का निर्माण किया जाना है शीघ्राति शीघ्र वहां उपाश्रय नवनिर्मित होगा।
इति श्री सिद्धचक्राराधन-केशरियानाथ - महातीर्थ इतिहास
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॥ श्री अवंतिका पार्श्वनाथाय नमः ॥
श्री अवन्ति पार्श्वनाथ महातीर्थं
मुनि श्री जिनरत्नसागर,
दानीगेट, उज्जैन म. प्र. पीन ४५६००६
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. श्री अवन्ति पार्श्वनाथ महातीर्थ अवन्तिकानगरी में जीवित स्वामी की प्रतिमाजी के दर्शनार्थ आचार्य आयमहागिरि एवं आर्य सुहस्तिसूरि जी अपने ५०० साधुओं के साथ पधारे थे । आयंमहागिरि के बड़े होने पर भी गच्छ का भार मायंसुहस्तिसूरि जी बहन कर रहे थे। उन्होंने उज्जनी में ठहरने की जगह याचने हेतु दो मुनिवरों को नगर में भेजे।
उन दिनों अवन्तिका नगरी काफी समृद्ध थी। काफी दूर से ही नगरी की विशाल अट्टालिकाएं, गगनचुम्बी देवालय एवं भवन को । फहराती ध्वजाऐं इस नगरी की समृद्धि को दृष्टिगोचर करवा रही थी।
दोनों मुनिराज विख्यात श्रेष्ठि अवन्तिसुकुमाल की हवेली पर पहचे अवन्तितुकुमाल तो भौतिक सुख में डूबा हुआ था । अपनी . बत्तीस देवाङ्गना सदृश्य पत्नियों के साथ महल में ही निवास करता पा। उसके मन में उसकी पत्नियां ही सर्वस्व थीं। जगत तो मानों शून्य ही था। घर की सार सम्भाल उसकी माता भद्रा ही करती थी। व्यापार मुनीम गुमास्तों के भरोसे होता था।
दोनों मुनि सेठानी भद्रा की हवेली पर पहुचे तो भद्रा भाव विभोर हो गई। "पधारो गुरुराज ... पधारो....!" भद्रामाता ने मुनिवर को बंदना की।
मुनिवर ने कहा-"श्राविका ! आचार्य मार्यसहस्तिसरिजी अपने पांचसो शिष्यों के साथ जीवितस्वामी के दर्शनार्थ पधार रहे है। उन्होंने हमें भेजा है पसति याचना के लिये।"
| "पधारो गुरुदेव ! मेरे यहां वाहनशाना में बहुत जगह है। मेरा भागन पावन करो...;, भद्रामाता ने हर्षविभोर होते हुए कहा
दोनों मुनिवर भी गुरुदेव को लेने हेतु नगरी बाहर चले गये। सभी मुनिवर भद्रा सेगनी की हवेली की ओर चल दिये। भद्रा सेठानी ने वाहनशाला की सफाई करवा दी। जैन शासन के
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सम्राटसम आर्य सुहस्तिसूरि जी भद्रा सेठानी की हवेली में आकर ठहर गये । भद्रा माता के हर्ष का पार न रहा ।
दिन तो बीत गया । रात्री प्रारंभ हुई । मुनिवरों ने आवश्यक क्रियाएं करने के बाद स्वाध्याय प्रारम्भ किया। मुनिवृंद के मुख से मुखरित होने वाली अमृतवाणी सम जिनवाणी रात्री के सन्नाटे में - दूर-दूर तक ध्वनित हो रही थी ।
हवेली की उपरी मंजिल पर हवेली का स्वामी अवन्तिसुकुमाल अपनी बत्तीस पत्नियों के साथ विषय भोगों में रत था । उसे यह भी ज्ञात नहीं था कि उसकी हवेली में जैन शासन के सम्राट सूरीश्वर विराज रहे हैं। हां... कहां से ज्ञात होगा ? उसे तो यह भी ज्ञात नहीं था कि कब सूर्य उदित होता हैं और कब अस्त होता है यह भी जिसे मालूम नहीं हो उसे सूरिवर का आगमन कैसे ज्ञात हो सकता है।
अवन्तिसुकुमाल पत्नियों के साथ भोग-विलास के सुखों में लोन था कि उसके कानो में मुनिवृंद के मधुर स्वर टकराये । एक - सी आवाज, एक-सा स्वर, एक सी ताळ...! क्षणभर के लिये अवन्तिसुकुमाल विचार में पड़ गया । यह मधुर ध्वनि कहां से आ रही है इस नीरव शान्त रात्री में....?
पत्नियों को शान्त करके अवन्तिसुकुमाल स्वाध्याय की मधुर स्वरावलियाँ सुनने में मस्त हो गया । स्वाध्याय था देवलोक के वर्णन से भरपूर | देवलोक मे नलिनी गुल्म विमान का वर्णन सुनकर अवतिसुकुमार विचार सागर में गोते खाने लगा "मैंने ऐसा वर्णन पहले कभी सुना है या अनुभव किया है।" एक चिन्गारी चमक कर चली गई । उसी वक्त अवन्तिसुकुमाल को जातिस्मरण ज्ञान हो गया ।
"हां यह तो मेरे ही पूर्वभव के स्थान का वर्णन है ।" इतने शब्द अवन्तिसुकुमाल के मुख से मुखरित हुवे और वह होश खो बैठा । पत्नियां घबरा गई। सभी ने मिलकर शीतोषचार किये तो अवन्तिसुकुमाल होश में आया । अब सारा नलिनी गुल्म विमान उसे स्पष्ट दिखाई दिया । स्वाध्याय की मधुर ध्वनियां अभी भी वैसी ही सुनाई दे रही थीं ।
अवसिसुकुमाल ने उसी क्षण सेवक को बुलाकर पूछा
"अरिजंय....! यह मधुर स्वरों की ध्वनियां कहाँ से आ रही है.... ?
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सेवक ने उत्तर दिया "श्रेष्ठिन् | आपकी हवेली में ही जैन शासन के सम्राट आर्य महागिरिजी एवं आर्य सुहस्तिसूरिजी विराज रहे हैं । आज प्रातः ही पधारे हैं वे । उनका शिष्यवृन्द स्वाध्याय कर रहा है उसकी ध्वनि सुनाई दे रही है यह .... "
अवन्तिसुकुमाल के आश्चर्य का पार न रहा। ये मुनिजन कहां से जानते है उस मलिनी गुल्म विमान को....! अवश्य ही ये वहाँ गये होगें कहाँ देवभव का सुख और कहां मानव जीवन का सुख । जमीन आसमान का फर्क है । मैं पुनः उसी सुख को प्राप्त करुगा।
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नलिनी गुल्म विमान के सुखों को पाने के लिये वह एक बच्चे की तरह मचल उठा । उसी क्षण वह खड़ा हुआ तो पत्नियों ने पूछा"नाथ....! आपको अभी क्या हुआ था...? और भाप कहाँ जा रहे हो....?"
"तुम यहीं रहो...! मैं अभी आता हूं...." अवन्तिसुकुमाल अपने कक्ष से निकलकर सीढ़ियां उतरकर वाहनशाला में आया ।
मुनिवृन्द स्वाध्याय में मगन थे। भवन्तिसुकुमाल सीधा ही आचार्य आर्य सुहस्तिसूरिजी के पास पहुंचा। आचार्य श्री के पैरों में नमन करके बोला
1
हे करुणासागर प्रभु । अभी आप जो मधुर स्वरों में फरमा रहे थे । वह कहां का वर्णन है ? क्या आप वहां गये थे ?"
आचार्य आर्य सुहस्तिसूरिजी ने फरमाया
**
" वत्स ! मैं अपने शिष्यों के साथ नलिनीगुल्म विमान के वर्णन का स्वाध्याय कर रहा था। मैं इस जन्म में वहां कभी नहीं गया हू | किन्तु जिनेश्वर देवों ने जो फरमाया है वही मैं स्वाध्याय कर रहा हूँ" ।
1.
"प्रभु ! जैसा वर्णन आप फरमा रहे हो वह सभी मैं अनुभव करके आया हू ! मैं ग़त जन्म में नलिनीगुल्म विमान में देव था। प्रभु । मैं पुन: वही जाना चाहता हूं। वहां जाने का उपाय आप बता सकते हो क्या ?" अबन्ति सुकुमाल के दिल में तीव्र भावना पैदा हुई, देव विमान में जन्म लेने की ।
आर्य सुहस्तिसूरिजी ने कहा "बत्स जाने का उपाय मैं जानता हू। यदि तुझे
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देवलोक क्या मोक्ष में भी नलिनीगुल्म नामक देव
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विमान में जाना हो तो एक मार्ग है और वह है संयम स्वीकार ।'
"मैं अभी ही वहां जाना चाहता हूँ। आप मुझे चारित्र प्रदान कीजिये ।" अवन्तिसुकुमाल के मुख से शब्द फूट निकले।
आर्य सुहस्तिसूरिजी ने आकाश की ओर देखा। मध्य रात्री हो चकी थी। मध्याकाश में चन्द्र भर यौवन के थनगनते घोडों पर सवार था । आचार्य श्री ने ज्ञान को उपायोग किया । ऋतज्ञान में उन्होंने लाभालाभ देखा तो उसी क्षण अवन्तिसुकुमाल को दीक्षा दे दी।
अवन्तिसुकुमाल मुनि ने आचार्य श्री से कहां
"गुरुदेव । मैं अभी ही नलिनीगल्म विमान में जाना चाहता हूँ अतः मुझे क्या करना चाहिये ?"
आचार्य श्री ने ज्ञानोपयोग से जानकर कहा
"वत्स । यदि तुझे वहां जाना हो तो स्मशान में कायोत्सर्ग में लीन हो जाना। जो भी कष्ट भावे तू समभाव से सहन करना।'
गुरुचरणों में नमन करके अवन्ति मनि श्मशान की ओर चल दिये वहां जाकर अनशन स्वीकार लिया।
क्षिप्रा का पावन किनारा रात्री को अनेकों वनचरों से भरपूर था। श्मशान में वातावरण भयावह तो था हिसक पशुओ की आवाज क्षिप्रा किनारे गूज रही थी। वहीं दृढनिश्चयी मुनि अवन्ति ने कायोत्सर्ग प्रारम्भ किया।
रात्री का दूसरा प्रहर बीता होगा कि भक्ष की तलाश में सियारों का झुण्ड बहां आ पहुंचा । मुनि ध्यान में थे अतः उन्हें निर्जीव समझकर सियारों ने मुनि पर धावा बोल दिया। उनमें एक सियारनी थी जो कि मुनि के पीछले जन्म की वैरिणी थी उसने मुनि को महा उपसंग किया। उनके हाथ पैर मुख पर धावा बोलकर मांस खाने लगी। समभाव में नलिनीगुल्म विमान में जाने की जिज्ञासा वाले मुनि उसी रात्री को कालधर्म को प्राप्त हो गये । क्षणों के चारित्रधर्म ने उन्हें. नलिनीगुल्म विमान में पैदा कर दिया। __जब अवन्तिसुकुमाल अपने शयनकक्ष में नहीं आया तो उसकी पत्नियों ने भद्रामाता को रात्री की घटना बता कर कहा कि हमारे स्वामी कहां हैं ...?"
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बहू के साथ माताभद्रा आचार्य श्री के पास पहुंची । वंदन करके
पूछा:
"गुरुदेव । रात्री में मेरा पुत्र अवम्ति आपके पास आया था ना ? वह कहां है " ?"
..
आचार्य श्री ने कहा- "जहां से वह आया था वहीं चला गया है आचार्य श्री ज्ञानी थे ज्ञान से उन्होंने रात्री की सारी घटना जान ली थी। माता भद्रा का दिल दहल उठा पत्नियां मचल उठीं तभी आचार्य श्री ने कहा "वह श्मशान में अनशन कर चुका है ।"
भद्रामाता बहूओं के साथ श्मशान में गई वहां अवन्ति मुनि के देह के टुकड़े टुकड़े देखकर माता तथा बहूओं ने करुण माक्रन्दन मचा दिया ।
.
इस दारुण्य घटना घटित होने के बाद आचार्य श्री के उपदेश से प्रतिबोधित होकर माता तथा सभी बहूओं ने एक को छोड़कर क्योंकि वह गर्भवती थी ने संयम स्वीकार किया । व मुनि जीवन की कठोर साधना प्रारम्भ कर दी ।
गर्भवती पत्नि से जो पुत्र हुआ। उसका नाम महाकाल रखा गया । आचार्य श्री को वाणी से प्रेरित होकर महाकाल ने अपने पिता की स्मृति में श्मशान में क्षिप्रा के किनारे पर एक भव्य जिनालय बनवाकर पार्श्वप्रभु की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई जो कि अवन्ति पार्श्वनाथ के नाम से विख्यात हुई । यह पिता की स्मृति में बनाया गया जिनालय बीर निर्वाण की दूसरी शताब्दी के अन्त में बनाया गया था ।
'
काल अविरत गति से प्रवाहित होता है । महाकाल के द्वारा निर्मित जिनालय महाकाल मन्दिर से ख्यात होने पर कुछ जिनधर्म द्वे षियों ने उसे शिव मन्दिर बना दिया । प्रभु प्रतिमा जी के ऊपर शिव लिंग स्थापन कर शिव पूजा प्रारम्भ हो गई ।
का शासन काल रत्न सिध्दसेन थे
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लगभग दो शताब्दी तक यह जिनालय शिवालय के रुप
रहा । जब मालवपति वीर विक्रमादित्य उनकी ही राजसभा के नवरत्न में से एक वादी देवसूरिजी के पास संयम स्वीकार कर जैन मुनि धर्म किया था । अध्ययन करने के बाद उन्होंने सोचा नवकार मंत्र प्राकृत मे है और बहुत लम्बा है में सक्षिप्त में संस्कृत में इसका अनुवाद करदूं ।
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में पूजाता
आया तो जिन्होंने
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इस महामन्त्र का उन्होंने "नमोहंत सिध्दाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यः की रचना कर दी।
जब गुरुदेव वादी देवसूरिजी को इस बात की जानकारी हुई तो उन्होंने सिध्वसेन मनि को पारांचित प्रायश्चित दिया अपना प्रायाश्चित पूर्ण करते हवे बारह वर्ष वे जैन मुनि का वेश छुपाकर साधना करते रहे अब उन्हें किसी राजा को प्रतिबोधित करना था वे अवन्तिका पधारे । __ महाकाल का बनाया जिनालय जो हाल शिवालय था वहां जाकर सिध्दसेन दिवाकर शिवलिंग की ओर पर रखकर लेट गये। वहां के पण्डे इससे नागज हो उठे। उन्होंने सिद्धसेन दिवाकर को उठाने का प्रयत्न किया किन्तु वे टस से मस नहीं हुवे ।
पण्डे वीर विक्रम राजा को सभा में जा पहुँचे । उन्होंने फरियादकी
"महाराजा । कोई अवधूत हमारे शिवजी को पैर लगाकर सो गया है । उठाने पर उठता ही नहीं है।''
"यदि वह नहीं समझता है तो उसे कोड़े मारकर बाहर निकाल दो।" विक्रमादित्य का सत्तावाही स्वर गूंज उठा।
आज्ञा पाते ही पण्डे कोड़े लेकर शिवालय आये और आचार्य सिद्धसेन दिवाकर सूरिजी को कोड़े फटकारना प्रारम्भ किये । किन्तु फिर भी वे वहां से नहीं हटे । कोड़ों की बोछार होने लगी। ___ इधर वीर विक्रमादित्य के अन्तःपुर में हाहाकार मच गया। रानियाँ नीखने लगी। बचाओं बचाओं की आवाजे गूंजायमान होने लगी।
वीर विक्रम के सेबक दौड़े आये। रानियां कह रही थीं कि "हमें बचाओं हमें कोई कोड़े मार रहा है।"
कोड़े मारने वाला अदृश्य ही था। वीर विक्रमराजा भी अन्तपुर में दौड़ आया। रानियों के शरीर पर कोड़े पड़ रहे थे। रानियां चिल्लारही थी।" आखिर यह कोड़े कौन मार रहा है ..?" विक्रमादित्य विचारने लगा
उन्हें याद आया शिवालय में अवधत को कोड़े मारने का आदेश दिया था मैंने, शायद उसे कोड़े मार रहे होंगे उसका असर यहां हो रहा होगा ? विक्रमादित्य उसी क्षण शिवालय आये। उन्होंने देखा कि वे कोड़े की बौछार कर रहे हैं पण्डे । किन्तु अवधूत तो मस्ती से
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लेटा हुआ है । उसी क्षण विक्रमादित्य राजा का सत्तावाही स्वर गूंज उठा
"कोड़े मारना बन्द करो विप्रवरों....."
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जैसे ही कोड़े मारना बन्द हुवे कि रानियों को मार पड़ना बन्द हो गई । विक्रमादित्य ने अवधूत सिद्धसेन दिवाकर से कहा
"हें अवधूत। तुम शिवलिंग की ओर पैर करके महादेव की आशातना क्यों कर रहे हो....?"
"राजन् मैं आशातना नहीं आराधना कर रहा हूं | मैं महादेव की - स्तुति कर रहा हूँ । सिद्धसेन दिवाकर सूरि ने कहा
"तुम उच्चार पूर्वक खड़े होकर स्तुति करो....."
"राजन् ... ....। यह शिवलिंग मेरी स्तुति सहन नहीं कर सकेगा ।" "इसकी चिन्ता तुम क्यों कर रहे हो। तुम स्तुति करो....."
सिद्धसेन दिवाकरजी ने उसी क्षण संस्कृत में काव्यों की रचना करके कल्याण मन्दिर नामक स्तोत्र बोलना प्रारम्भ किया। पार्श्वनाथ प्रभु की स्तुति बोलने से शिवलिंग से धुंआ निकलने लगा । और थोड़ी ही देर में लिंग फट गया तथा पार्श्वप्रभु की प्रतिमा ऊपर निकल आई । श्यामवर्णी पद्मासन में ध्यानस्थ प्रतिमाजी के प्रगट होते ही जैन धर्म का विजय डंका बजने लगा | मालव सम्राट श्री विक्रमादित्य राजा मे भी सत्य समझकर जिनेश्वरदेव का धर्म स्वीकार किया ।
क्षिप्रा के किनारे पर भव्याती भव्य जिनालय बनाकर पुनः प्रभुजी प्रतिष्ठित किये गये। जो कि आज भी क्षिप्रा किनारे जिनालय में अवन्तिपार्श्वनाथ के नाम से पूजे जा रहे हैं।
क्रूर काल की उथल पुथल देखते हुए यह जिनालय जीर्ण शीर्णं होते हुवे भी आज तक मात्र तीलघर में देहरी में प्रभुजी विराज रहे है। वास्तुकला या स्थापत्य की दृष्टि से जिनालय में आज कुछ भी दर्शनीय नहीं है । दर्शनीय है भगवान श्री अवन्तिपार्श्वनाथ प्रभु....।
अवन्तिपार्श्वनाथ तीर्थ का परिसर विशाल है । यहां वर्तमान समय में विशाल धर्मशाला हैं भोजनशाला प्रतिदिन चालू रहती है। यात्रियों का यहां तांता सा लगा रहता है। दूर दूर से यात्रीगण यहां आकर भगवान श्री अवन्तिपार्श्वनाथ प्रभु के दर्शन वंदना से आत्मशान्ति पाते हैं ।
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प्रतिमाजी को अभी ही लेप करवाया गया है। पास ही दो बिशाल प्रतिभाजी विराजमान है जो कि अपने आपमें अलोकिक एवं दर्शनीय है ।
यहां गभारे में ही प्रभुजी के सामने ही पद्मावती माताजी को चमत्कारी प्रतिमाजी विराजमान है ।
मूलनायक प्रभु की बाई ओर प्रभुजी को प्रगट करने वाले महान विद्वान आचार्यदेवश्री सिद्धसेन दिवाकर सूरिजी की प्रतिमा गोखले में विराजमान है। गुरुदेव श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरिजी की प्रतिष्ठा आगमोद्धारक पूज्य आचार्य भगवन्त श्री भानन्दसागर सूरीश्वरजी म. सा. के पावन वासक्षेप से कराई गई है ।
दाहिनी ओर अधिष्ठायक श्री माणीभद्रवीर की देहरी है । हाथी पर सवार अधिष्ठायकदेव महाप्रभावी है। यहां मोतीझरे के रोगी अपने रोग मिटाने के लिये आकर मानता करते हैं तथा माणीभद्रजी का पक्षाल ले जाकर रोगी को निरोगी करते है । अजैन लोग इन्हें मोतीबापजी के नाम से पुकारते हैं। अपनी मानता पूर्ण होने पर मोतीबाषजी को वे प्रसाद चढ़ाते हैं ।
I
पधारिये !
अवश्य पधारिये ! !
जरुर पधारिये !!!
श्री सिद्धचक्राराधन केशरियानाथ
महातीर्थ
श्रीपाल मार्ग, खाराकुआ उज्जैन की यात्रा पर आप सह परिवार अवश्य ही एक बार पधारकर तीर्थयात्रा का लाभ लेंवें ।
इस तीर्थ को महासती मयणासुन्दरी और महाराजा श्रीपाल राजा की आराधना स्थली बनने का गौरव प्राप्त हुआ है ।
यहां ठहरने के लिये उत्तम व्यवस्था है धर्मशाला की । धर्मशाला आधुनिक साधनों से युक्त है । भोजनशाला प्रतिदिन चालू रहती है। अवश्य ही पधारकर यात्रा एवं यहां ठहरने का लाभ हमें दें ।
निवेदक
श्री ऋषभदेव जी छगनीराम जी पेढी श्रीपाल मार्ग, खारा कुआ उज्जैन म.प्र.
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अधिष्ठायक देव श्री माणीभद्रवीर
मालवदेश की उज्जयिनी नगर में श्रीमन्ताई की टोच पर पहुंचे माणकशा सेठ की हवेली जग प्रसिद्ध थी । समृध्दि का पार नहीं था। माणकशा सेठ नगरजनों में अग्रगण्य थे। उनके यहां अनेक अश्व, बैल और वाहन थे । उनका व्यापार देश विदेश में चलता था।
माणकशा जिनेश्वरदेव के उपासक थे। कुलाचार से ही वे जिनेश्वरदेव की सेवा पूजा करते रहते थे। माणकशा सेठ का सन्मान प्रजाजनों में अभतपूर्व था। धार्मिकजनों में भी वे अग्रगण्य थे। - एक दिन उज्जयिनी नगरी में लोकागच्छ के आचार्य अपने शिष्यों के साथ आये । नगरंजन उनके प्रवचन श्रवण करने गये । आचार्य ने भी जिनमत को छुपा कर अपने मतानुसार लोगों को प्रतिबोधित करने का प्रयास किया।
अन्य लोग तो अपने अपने घर चले गये किन्तु माणकशा सेठ ने लोकागच्छ स्वीकार कर लिया। प्रतिदिन के नित्यनियमों देव दर्शनादि को भी उन्होंने छोड़ दिया।
जब उनकी माता को इस बात का पता चला तो वह बड़ी दुःखी हुई । अपने पुत्र ने सत्य धर्म का त्याग किया है तो ऐसी कौनसी माता होगी जो दुःखी नहीं होगी ? ___किन्तु वह माता सच्ची माता थी । मात्र दुःख मना कर ही नहीं बैठो वह, उसने पुत्र माणकशा को पुनः सत्य धर्म पर श्रद्धावान बनाने का प्रण किया। उसी दिन से उस वात्सल्यमयी माता ने घी का त्याग कर दिया। ___ माणकशा की पत्नि ने अपनी सास को घी रहित भोजन करते देखा तो एक दिन पूछ ही लिया
"माताजी "। आपने घी क्यों त्याग़ किया है ?" माता ने कहाः “मैंने प्रतिज्ञा की है कि मेरा माणक जब तक जिना
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लय नहीं जावेगा और मेरे गुरुदेव को आहार हेतु आमन्त्रित नहीं करेगा तब तक मैं घी नहीं खाऊंगी।"
पनि को भी इस बात से खेद हुआ । अतः उसने अपने पतिदेव माणकशा से माता जी के अभिग्रह की बात कहकर जिनालय जाने को समझाया।
माणकशा भी मातृभक्त थे । उसी दिन उन्होंने माता के चरणों में गिरकर अपने अपराध की क्षमा याचना करके कहा
"मां"। तू घी खाना चाल कर दे मैं अवश्य ही जिनालय जाकर भक्तिपूर्वक प्रभुजी की पूजा करूंगा। तथा मुनिराज को आमन्त्रित भी करूंगा।"
माता को माणकशा की बात से आनंद हुआ । उसी समय भगवान महावीर की पाट परम्परा में आने वाले ५५ वें पट्टधर तपागच्छाछिपति पूज्य आचार्य भगवन्त श्री हेमविमलसूरिजी उज्जयिनी नगर के उपवन में अपने शिष्य सहित पधारकर ठहरे ।
माणकशा को समाचार मिले तो वे सन्ध्या समय हाथ में घासलेट के कपड़े जलाकर उपवन में पहुंचे। सभी साधु मुनिराज ध्यान मग्न थे। माणकशा क्रमशः सभी मुनियों के पास जाकर उपसर्ग करने लगे किन्तु मुनिजन निश्चल थे। __ माणकशा के दिल में सन्मान पैदा हुआ मुनिवरों पर। अहो कैसे त्यागी समता परिणामी हैं ये साधु पुरुष । मैंने सत्पुरुषों को परेशान करने का महान पाप किया है। इस तरह का विचार करते हुवे वे घर आकर प्रलाप करते हुए माँ से बोले__ "मां । मैं घोर पापी हूं। मैंने मुनियों को उपसर्ग किया तो भी उन समता के साधक मुनिवरों ने मझ पर क्रोध नहीं किया। कल प्रातः ही मैं आचार्यदेव को भक्ति पूर्वक आमन्त्रित करके अपनी उपधान शाला में ले आऊँगा । आचार्यदेव सत्य वचनी ही हैं अत: मैं उनका उपदेश सुनकर पुनः सत्य मार्ग का अनुसरण करुंगा।"
रात्री अत्यधिक बीत गई थी। माणकशा सेठ अपने शयनकक्ष में आकर निद्राधिन हो गये।
प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में माणकशा सेठ ने निद्रा त्याग दी परमेष्ठि नम
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स्कार की स्मरण करके स्नानादि से निवृत्त होकर सुन्दर वस्त्राभूषण धारण करके बैंड बाजे के साथ साजन महाजन से परिवृत सेठ आचार्य देव श्री हेमविमलसूरि जी को वंदना हेतु उपवन में पहुंचे आचार्य देव को वंदना करके नगर में प्रवेश हेतु प्रार्थना की। आचार्य श्री ने भी माणकशा सेठ की प्रार्थना स्वीकार कर नगर में पधारे। माणकशा सेठ की उपधान शाला में आचार्य श्री ने निवास किया । आचार्य श्री के धर्मोपदेश की गंगा में स्नान करके सेठ ने मिथ्यात्व का मल दूर कर दिया । सेठ ने आचार्य श्री को अपना गुरु देव बना लिया। शुध्द सम्यकत्व का धारण करते हुवे माणकशा सेठ समय व्यतीत करने लगे ।
आचार्य भगवन्त श्री हेमविमलसूरिजी महाराजा ने भी उज्जयिनी नगरी से विहार किया । ग्रामानुग्राम विचरण करते हुवे आप आग्रा पहुँच गये । आग्रा जैन संघ की आग्रहभरी विनति को स्वीकार कर लाभालाभ की दृष्टि से आचार्य श्री ने अपने शिष्यपरिवार सहित आग्रा में ही चातुर्मास किया ।
माणकशा सेठ भी अनेक तरह का किराना भर कर व्यापार हेतु अनेक ग्राम नगर में घूमते हुवे आग्रा आये । व्यापार आग्रा में चालू ही था कि एक दिन उन्हें समाचार मिले कि उनके गुरुदेव आचार्यदेव श्री हेमविमलसूरिजी म. सा. आग्रा में ही चातुर्मासार्थं विराजमान हैं । माणकशा सेठ के हर्ष का ठिकाना न रहा, वे उसी क्षण आचार्य श्री को बंदन करने गये ।
अब प्रतिदिन माणकशा सेठ आचार्य श्री की चिन्तनमयी अमृतवाणी का पान करने लगे ।
एक दिन प्रवचन में गुरुदेव के मुखारविन्द से माणकशा सेठ ने श्री सिध्दाचल महातीर्थ का महत्व सुना । छःरि पालित यात्रा करने से तीन भव में ही आत्मा की मुक्ति होती है यह सुनकर माणकशा ने भी अभिग्रह धारण किया ।
"जब तक मैं छ: रिपालित चलकर सिध्दा गिरिराज की यात्रा न करु तब तक मैं अन्न जल ग्रहण नहीं करूँगा ।"
सेठ के अभिग्रह से आग्रावासी आश्चर्य विभोर हो गये । सिद्धगिरि यहां थी कहाँ ? बास्तव में सेठ ने महान कठिन अभिग्रह धारण किया
था ।
माणकशा ने अपना सारा किराना माल सामान उज्जयिनी की
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ओर रवाना कर दिया । और खुद पैदल ही गिरिराज की यात्रार्थ निकल पड़े । सिद्धगिरिराज के ध्यान में ही सेठ आगे बढ़ने लगे थे । एक दिन एक घटना घट गई।
जब वे डीसा के नजदीक घने जंगल से गुजर रहे थे। वहां उन्हें डाकुओं ने घेर लिया।
"सेठ । जो हो हमें सौंप दो वरना।" डाकूओं के सरदार ने कहा
"तुम्हें चाहिये तो माणकशा से भीख मांगो । माणकशा मुह मांग दान देता है किन्तु तुम मुझे लुटना चाहोगे तो मैं तुम्हें एक पैसा नहीं दूंगा।" माणकशा ने भी अपनी तीक्ष्ण तलवार खींच ली। . . माणकशा बनिया अवश्य ही था किन्तु कायर या डरपोक नहीं था। आत्मरक्षा तो वह कर हो लेता था।
माणकशा के तमतमाते उत्तर से डाकू चिढ़ गये । उन्होंने सेठ पर धावा बोल दिया। संठ भी उन्हें अपने हाथ को प्रसादी चखाने लगे। माणकशा ने डाकुओं का सफाया चाल किया। माणकशा अकेले हो थे और डाक अनेक थे। फिर माणकशा को पिछले कितने ही दिनों से चउविहार उपवास थे । वैसे ही शरीर दुर्बल हो रहा था किन्तु फिर भी वे शूरवीर की तरह डाकुओं का सामना कर रहे थे। कितने ही डाकू उनकी तलवार का भोग बनकर यमसदन पहुंच गये थे। मृत्यु प्राप्त डाकू को ही तलवार लेकर अब दोनों हाथ से तलवार चला कर माणकशा ने अपनी शूरवीरता का परिचय दिया ।
किन्तु माणकशा ज्यादा देर युद्ध करने के लिये समर्थ नहीं थे। किसी डाकू ने उनका मस्तक उड़ा दिया । सिद्धाचल के ध्यान में ही माणकशा का मस्तक धड़ से अलग हुआ था अत: वे व्यन्तर निकाय में इन्द्रदेव के स्थान पर इंद्र देव बने । जैसे ही वे देव नने कि उनकाधड़ही दोनों हाथों में तलवार लेकर लड़ने लगा । डाकू घबरा गये। चारों दिशा में भागने लगे किन्तु माणकशा के घड़ ने उनका पीछा किया । सभी डाकू उनके प्रकोप के भोग बन गये।
माणकशा सेठ का काट हुआ मस्तक अपने आप ही स्वतः अवन्तिका नगर की मोर चला दिया। उनका धड़ भी जर्जरित हो गया था। उनके पैर मगरवाडा की ओर गये एवं धड़ आगलोट की ओर
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गया। तीनो अंग अलग जाकर मस्तक तो क्षिप्रा नदी के किनारे बड़ के पेड़ के नीचे आकर गिरा । पैर मगरवाडा में जाकर रुक गये तथा धड़ बागलोट में जाकर गिरा ।
माणकशा सेठ व्यन्तर निकाय में माषोभद्र नामक इन्द्र के स्थान पर उत्पन्न हुवे ।
इधर लोकागच्छ के साधुओं को जब समाचार मिले कि उज्जैन के सेठ माणकशा को आचार्य श्री हेमविमल सूरि ने पुनः अपने धर्म मैं स्थापन किया है तो वे क्रुद्ध हो गये । लोकागच्छ के उन आचार्य ने काला गोरा भेरु की साधना करके उन्हें वश में किया व उनके द्वारा आचार्य श्री हेमविमलसूरिजी के साधुओं को एक एक करके मारना प्रारम्भ किया। आचार्य श्री के दस साधुओं को लोकागच्छ के आचार्य ने परलोक की यात्रा पर रवाना कर दिया ।
आचार्य श्री हेमविमलसूरि ने मरते हुवे अपने साधुओं को देखा तो वे दुःखी हुवे। उन्होंने शासनदेवी की आराधना करके उसे प्रत्यक्ष की। उन्होंने शासनदेवी से प्रश्न किया ।
"हे शासनमाता... ! मेरे साधु एक एक करके परलोकवासी हो रहे हैं। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ?"
शासनदेवी ने उत्तर देते हुवे कहा - "यह सारा प्रकोप लोकागच्छीय आचार्य का है । वे आपके साधुओं को नष्ट कर रहे हैं ।"
"तो मेरे साधुओं को बचाना आपका कार्य है । हे माता बिना साधुओं की रक्षा कौन करेगा..।"
| आपके
"आचार्य श्री ..। आप गुजरात की ओर ही जा रहे हो वहीं रास्ते में आपको विघ्नविनाशक देव का परचा देखने को मिलेगा ।"
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आचार्य श्री ने उग्र विहार किया गुजरात की ओर । मार्ग में वे पालनपुर के पास पधारे। वहां आचार्यदेव ने तेले की तपस्या की । तप के प्रभाव से उज्जयिनी के सेठ माणकशा जो कि माणीभद्र नामक इन्द्रदेव बने हैं वहां बावनवीर तथा चौंसठ योगिनियों सहित अपनी सेना के साथ प्रकट हुवे ।
आचार्य श्री ने माणोभद्र इन्द्रदेव से पूछा
"आचार्य भगवन्त,..! आप मुझे पहचानते हो ....?"
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"आपको कौन न पहचाने । सर्व विदित है कि आप तेजस्वी
देव हैं।"
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"गुरुदेव । देव तो मैं अब बना हूं किन्तु पूर्व में मैं आपका भक्त माणकशा सेठ था । उज्जयिनी का वासी सिद्धगिरि की यात्रा करते हुबे इसी स्थान पर डाकूओं से लड़ते हुवे मेरी मृत्यु हुई और मैं माणीभद्र नामक व्यन्तर इन्द्र बना हूं।"
“इन्द्रदेव .. । तुम्हारे होते हुवे भी मेरे डाल दिये है उन लोकागच्छ के आचार्यो ने
दस साधु मृत्यु के मुख में ...1 तुम मेरी सहाय करो।" आज हो मैं उन्हें शिक्षा
" प्रभु....। आप निश्चिन्त रहिये । aa गा ।" माणीभद्रजी ने अवधिज्ञान का उपयोग किया ।
उन्होंने अपने ज्ञान में काला गोरा भेरु की यह साधुओं की हत्यालीला देखी। उनके क्रोध का पार न रहा । उस समय काला गोरा दोनों भेरु सवारी पर ही थे । माणीभद्र मे उन दोनों भेरु को उसी समय वहां बुलाया | माणीभद्र ने कहा-
" देवों ... ! तुम सन्त पुरुषों को उपद्रव करके किस गति के मेहमान बनाना चाहते हो ...? अभी उपद्रव शान्त करो भाई ।"
काला गोरा भेरु ने कहा- "देव | आप हमारे स्वामी हो आपकी आज्ञा तो हमें स्वीकार करना ही चाहिये किन्तु हम आपकी आज्ञा अभी मान्य नहीं कर सकते ।"
"देवों .! तुम्हें मेरो भाज्ञा का पालन करना ही होगा .... अन्यथा....।"
" किन्तु हम मन्त्र से बन्धे हुवे हैं अतः हमे उनकी ही आज्ञा मानना पड़ेगी ।" आप हमारे स्वामी होने के नाते यदि बल जबरी करोंगे तो भी हम आपकी आज्ञा नहीं मान सकते हैं । आप चाहो तो हम युद्ध के लिये तैयार हैं ।"
माजी भेरुओं की बात सुनकर चिढ़ गये । माणीभद्रजी और भेरुओं के बीच युद्ध छिड़ गया। काला गोरा भेरु आठ भुजा वाले थे तथा माणीभद्रजी छह भुजावाले थे अतः भेरु वश में नहीं हो रहे थे । उसी क्षण माणीभद्र जी ने वैक्रिय लब्धी से १६ हाथ का रूप बनाकर उन भेरुओं की पीट प्रारम्भ की।
दोनों भेरु घबरा गये । माणीभद्रजी ने उनकी ऐसी पीटाई की कि
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वे घबरा उठे । उसी क्षण उन्होंने माणीभदजी के चरणों हे गिरकर शरणागति स्वीकार ली ।
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माजी ने आदेश दिया "आज के बाद तुम किसी भी साधु पुरुष को परेशान नहीं करोगें नहीं तो मैं तुम्हें सख्न शिक्षा करुगा । उसी दिन से उपद्रव शान्त हो गया । माणीभद्र देव ने आचार्य श्री हेमविमलसूरिजी से कहा
"गुरुदेव ""। आज से आप अपने उपाश्रयों में द्वार पर ही मेरो स्थापना करके चौकी बैठा दीजिये अतः फिर कोई भी उपद्रव आपको नहीं होगा ' तथा मेरे तीन स्थान हैं । (१) उज्जयिनी में क्षिप्रा किनारे बड़ के पेड़ नीचे (२) आगलोट (३) मगरवाडा इन तीनों स्थानकों पर आकर जो भी सत्यनिष्ठा से मेरी पूजा करेगा में उसके दुःख दर्द दूर करूँगा तथा मनवांछित पूर्ण करुगा ।"
आचार्य श्री ने माणीभद्रजी की बात स्वीकार को तथा तपागच्छ के जितने भी उपाश्रय थे उनमें माणोभद्रजी की स्थापना करवाई । आज भी जो प्राचीन उपाश्रय है उनमें द्वार के पास गोखले में माणीभद्रजी की प्रतिमाजी है । माणीभद्र देव तपागच्छ के अधिष्ठायक देव हैं ।
उपाश्रय में माणीभद्रजी की सम्भाल ठीक से नहीं होने पर अब माणीभद्रजी को उपाश्रय के बजाय जिनालय में ही गोखले या देहरी बना कर उनकी स्थापना की जानें लगी है ।
आज भी उज्जैन में क्षिप्रानदी के किनारे सिध्दवट नामक स्थान है जहां माणीभद्र का किन्तु वर्तमान में वह स्थान अजैनों के कब्जे में की ही पूजा होती है।
भेरुगढ़ नामक इलाके में मस्तक पूजा रहा है। माणीभद्र जी के मस्तक
आगलोट तथा मगरवाडा माणीभद्रजी के चमत्कारिक स्थान हैं । दोनों स्थान आज माणीभद्रजी के तीर्थ हो चुके हैं दोनों जगह विशाक जिनालय तथा माणीभद्रजी का मन्दिर है। तीर्थ का विकास खूब हो चुका है । आगलोट में उनके धड़ की पूजा होती है तथा मगरवाडा में उनके पैरों की पूजा होती है ।
किन्तु अफसोस है कि उज्जैन में ऐसा माणीभद्रजी का कोई स्थान नहीं जो कि उनके पूर्वजन्म का निवास स्थान था ।
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अवन्ति सुकुमाल का अप्रसिद समाधि स्तूप
इस्वी पूर्व किसी समय में उज्जयिनी नगर में गंधवती के पास सिंहपुरी में अवन्ति सुकुमाल मुनि का स्मारक विद्यमान था जिसमें मुनि अवन्तिसुकुमाल का स्तूप एवं पार्श्वप्रभु की प्रतिमाजी विराजमान थी। उस समय वहाँ श्मशान था। प्रदेश विरान और जंगल जैसा था।
उक्त उल्लेख अनेक ऐतिहासिक इतिहास की पुस्तकों में मिलता है । तो आज वह स्मारक मन्दिर उज्जैन में कहाँ है ?
आज तक उज्जैन के जैन धर्मावलम्बि श्रावकों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया है। वैसी भी जैन समाज इतिहास और शोध के मार्ग में शुन्य ही माना जाता है।
मुझे जब इतिहास लिखने का सौभाग्य प्राप्त हुवा तो अनेक ऐतिहासिक ग्रन्थ और पुस्तकें पढ़ने का मोका मिला । मेने भी उक्त अवन्तिसुकुमाल के स्मारक के बारे में पढ़ा। मेरे दिल में एक भावना जागृत हुई कि आखिर वह स्मारक कहाँ है? वह आज विद्यमान है या नहीं ..? यदि विद्यमान है को किस स्थिति में है....? इत्यादि अनेक प्रश्नों का समाधान पाने के लिये मेने श्राद्धगुण सम्पन्न सुश्रावक श्री मांगीलालजी मीर्चीवाले का सहयोग लिया।
___अनेक श्रावकों से चर्चाए की। श्री सिद्धचक्राराधन केशरियानाथ महातीर्थ खारा कुआ उज्जैन में ही प्रतिदिन पूजा करने वाला कैलाशचन्द्र नामक पूजारी है। उसने हमारी शोध को सरल बनाया।
सन्ध्या के प्रतिक्रमण पश्चात् मैं और मांगीलालजी मीर्ची वाले चर्चा कर रहे थे कि पूजारी कैलाश हमारे पास आया। हमारी चर्चा सुनकर उसने कहा ।
"महाराज श्री ! मैं सिंगपूरी में रहता है। मेरे घर के सामने रूपेश्वर महादेव का मन्दिर है ..। वहाँ 4 दिन पहले ही मेने द्वार पर अपने मन्दिर जैसी छोटी सी प्रतिमाजी देखी है।"
पूजारी की बात सुनकर मेरा मन प्रसन्न हो गया । मेने समय निश्चित करके कहा, "कल व्याख्यान के बाद 11 बजे अपन उस मन्दिर में चलेगें।"
पूजारी ने भी हां भर दी। मैं मांगीलालजी को साथ में लेकर सिंहपुरी गया। उसी सिंहपुरी में रूपेश्वर महादेव के मन्दिर पर पूजारी हमें ले गया।
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महादेव का मन्दिर एक मकान जैसा शिखर वाला मन्दिर था। ओटले के नीचे ही पूजारी ने मुझे जिन प्रतिमा बताई। प्रतिमा मंगलमूर्ति थी। हम मन्दिर में घुसे तो द्वार से लगाकर सामने की भीत तक दो शिवलिंग स्थापित थे।
द्वार के ठीक सामने बीच में दिवाल पर एक आलिया था उसमें अनुमानित 11 इंच की परिकर युक्त एक जिन प्रतिमा विराजमान थी। मेने प्रतिमा पहचानने का पूर्ण प्रयास किया किन्तु मैं सफल न हो सका। कारण कि परिकर का आधा भाग दीवाल में ढंका हुवा था। शायद वहां के पण्डों ने उसे जानबूझ कर दबा दिया होगा गादी भी दबी हुई थी । महादेव के साथ वहां आने वाले शिवभक्त जिन प्रतिमा पर भी पानी डालते हैं परिणाम स्वरूप प्रतिमाजी पर कन्जी जम गई है हां यह नितान्त सत्य है कि प्रतिमाजी जिनेश्वर देव की ही है। मन्दिर की बाई ओर दिवाल पर एक पट्ट स्थापित है। उसे भी शायद जानबूझ कर दिवाल में दबा दिया होगा। परिणाम तह उस पट्ट की लम्बाई चौड़ाई का अनुमान नहीं किया जा सकता है। पट्ट में एक पक्ति से जिन प्रतिमाएँ अंकित है। मध्य में फणाओं से युक्त प्रतिमाजी है। शायद वे प्रतिमाएँ 170 होगी? क्योंकि 170 जिन का पट्ट अनेक जगह तीर्थों में स्थापित है। सभी प्रतिमाएँ पद्मासीन है। शिल्पशास्त्र के अनुसार वे प्रतिमाएँ सिद्ध अथवा तीर्थकर की है।
वहां से थोड़ी सी दूर घाटी उतरकर चलने पर कुटुम्बेश्वर महादेव के मन्दिर में भी में एक जिने श्वरदेव का शिलापट्ट स्थापित है।
पट्ट के केन्द्र में बड़ी प्रतिमा है वह प्रतिमा या तो पार्श्वनाथ प्रभु की या सुपाश्वनाथ प्रभु की होना सम्भव है।
मेंरी दृष्टि में यही दोनों जगह के शिलापट्ट अवन्ति सुकुमाल मुनि का समाधि स्तूप का अवशेष है। हाल वहां रहने वालों का कथन है कि इस भूमि पर पूर्व काल में श्मशान था। आज भी नींव खोदने पर हाडपिंजरे निकलते हैं।
पहले श्मशान होने से ही शायद इस तीर्थ स्वरूप समाधि स्तूप की जैनों ने उपेक्षा की होगी अतः हिन्दुओं ने वहाँ श्मशान के अधिष्ठाता महादेव का लिंग स्थापना करके हिन्दु मन्दिर बना दिया होगा। अब यदि उज्जैन का जैन समाज जाग्रत होकर इस दिशा में कदम बढ़ाता हैं तो एक ऐतिहासिक प्राचित समाधिस्तूप की प्राप्ति हो सकती है।
___ मालवा के प्रमुख तीर्थधाम मक्षी, मांडव, भोपावर, लक्ष्मणी, नागेश्वर, परासली, हासामपुरा, वईतीर्थ
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उज्जैन शहर के अन्य
जिनालय श्री आविश्वरजी का जैन मन्दिर (श्री विजय हीर सूरी बड़ा उपाश्रय)
श्री ऋषभदेवजी के मन्दिर के पास ही बड़ा उपाश्रय पर श्री आदिश्वरजी का प्राचीन शिखरबद्ध मन्दिर है। यहां पर ऊपर के देरासर में श्री चिन्तामणि पाइर्वनाथजी की भव्य प्रतिमा है।
Padam
श्री आदिश्वर जी
।
ॐ88
यहां माणीभद्र वीर की विशाल काय प्राचीन व भव्य प्रतिमा मनोवांछित फलदायक है। इसके परिसर में एक उपाश्रय भवन (हॉल) है । पास ही साधु-साध्वीजी म. सा. के ठहरने की उत्तम व्यवस्था है। यहां पर्व तिथि को मायम्बिळ होते हैं।
EMAITHEATRE
HEATRE
ॐ088839808
श्री माणीभद्रवीर श्री चिन्तामणि पाश्र्वनाथ जी
का मन्दिर यहां से चिन्तामणि पाश्वनाथ जी का मन्दिर दस-बीस कदम की दूरी पर हैं । परिकर युक्त चिन्तामणि पाश्वनाथ प्रभु की प्रशमरस निमग्न भव्य प्रतिमा है। यहां की प्रतिमा दो हजार वर्ष प्राचीन मानी जाती है। मन्दिर शिखर बद्ध होकर दर्शनीय है।
श्री चिन्तामणी पाश्वनाथ
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39080500MM
RDONGANA
श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जी का मन्दिर
(श्री राजेन्द्रसूरी ज्ञान मन्दिर)
यहाँ से कुछ ही दूरी पर नमकमण्डी मे श्री राजेन्द्र सरी ज्ञान मन्दिर का नूतन भव्य उपाश्रय है। दूसरी मंजिल पर श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ प्रभु का मन्दिर है । पास ही श्री राजेन्द्रसूरीश्वर जी का गुरु मन्दिर है।
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श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथप्रभु
E
श्री वासुपूज्य स्वामी जी का मन्दिर यहां से थोड़ी सी दूरी पर श्री वासुपूज्य (बलवट भेरु की गली) में एक प्राचीन जिनालय है, जहाँ श्री वासुपूज्य स्वामी जी मूलनायक हैं। जिन पर १६८२ का लेख अंकित है । मन्दिर से लगा प्राचीन उपाश्रय भवन है । मन्दिर का जीर्णोद्वार
384
Kanta k
श्री वासुपूज्य स्वामीजी
श्री अजितनाथ जी का मन्दिर
· यहाँ से दस-बीस कदम की दूरी पर छोटे सराफे में श्री अजितनाथ जी का प्राचीन मन्दिर है। यहाँ संम्प्रतिकालिन विशाल बिम्ब कोने मे दर्शनीय है।
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श्री अजितनाथजी
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श्री जिनदत्तसूरीश्वर जी "दादाबाड़ी"
श्री अजितनाथ जी मन्दिर के सामने श्री जिनदत्तसूरी "दादावाड़ी" मन्दिर नवनिर्मित अति आकर्षक तीन मन्जिल का है । यहाँ पर जिन दत्त सूरिजी की एवं जिनकुशलसूरिजी की भी प्रतिमा है । श्री शान्तिनाथ जी का प्राचीन मन्दिर
"दादावाड़ी" मन्दिर के पास ही छोटा सराफा में शान्तिनाथजी की गलो में शान्तिनाथ जी भगवान का अत्यन्त प्राचीन मन्दिर है । मूलनायक श्री शान्तिनाथ प्रभु की प्रतिमा भव्य है । दूसरी मन्जिल पर श्री महावीर स्वामीजी का मन्दिर हैं । आसपास अष्टापदजी व • सिद्धाचल के भव्य पट्ट लगे हैं। मन्दिरजी में दादा गुरु देव की प्रतिमाएँ विराजमान हैं ।
यहाँ एक प्राचीन उपाश्रय भवन था जिसका अभी अभी नवनिर्माण हुआ है श्री विचक्षण उपाश्रय से लगी हुई विशाल धर्मशाला है । अवन्ति पार्श्वनाथ तीर्थं पेढ़ी का कार्यालय यहीं पर है । यहाँ पू साधु-साध्वीजी म. सा. के चातुर्मास हेतु समुचित व्यवस्था है ।
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श्री जिन कुशलसूरिजी
श्री राजेन्द्रसूरी जैन ज्ञान मन्दिर ( नयापुरा )
घोटा सराफा से लगभग आधा कि. मी. की दूरी पर नयापुरा मोहल्ला है । यहाँ पर तीन देरासर पास-पास स्थित हैं ।
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श्री शांतिनाथजी
नयापुरा में श्री राजेन्द्रसूरी जैन ज्ञान मन्दिर ( गुरु मन्दिर ) है । यहाँ धातु की प्रतिमाजी विराजमान है । यहाँ जैन पाठशाला दूसरी मन्जिल पर लगती है ।
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श्री चन्द्र प्रभु स्वामीजी का मन्दिर श्री राजेन्द्रसूरी शान मन्दिर से लगा हुआ श्री चन्द्राप्रभु जी का प्राचीन मन्दिर है । यहाँ की प्रतिमाएँ प्राचीन हैं । मन्दिर जी के पीछे उपाश्रय है। इस वर्ष नूतन व्याख्यान भवन बन गया है । प्रायः यहाँ पर भी चातुर्मास होते हैं । साधु-साध्वीजी म. सा. के ठहरने की उत्तम व्यवस्था है। यहां पर एक जैन पाठशाला चलती है। आयम्बिल भी होते रहते हैं। नयापुरा क्षेत्र में १५० श्रावक परिवार वसते हैं।
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श्री आदेश्वरजी का मन्दिर · श्री चन्द्राप्रभुजी मन्दिरजी के सामने दो मन्जिल का शिखरबद्ध श्री आदिश्वरजी का भव्य मन्दिर है । मन्दिरजी से लगा हुवा उपाश्रय भवन है । मन्दिरजी में नवपद जी का सुन्दर पट्ट भी है।
श्री आदिनाथ भगवान, नयापुरा श्री शीतलनाथजी का मन्दिर नयापुरा से एक-दो फांग की दूरी पर उर्दूपुरा मोहल्ला है। यहाँ शीतलनाथ प्रभुजी का एक प्राचीन मन्दिर है।
श्री पाश्वनाथ जी का मन्दिर
उर्दू पुरा से लगभग ३ कि. मी. की दूरी पर भैरवगढ़ की प्राचीन बस्ती हैं। यहाँ माणकचौक में एक प्राचीन पाश्वनाथ प्रभुजी का मन्दिर है। प्रतिमा लघु होकर भी विशिष्टता युक्त है। श्री पदमावती के मस्तक पर श्रीपार्श्वप्रभु की प्रतिमाहै । मन्दिर की दशा जीर्ण-शीर्ण है मन्दिर जी से लगा हुआ, उपाश्रय है।
NA
श्री पद्मावती पार्श्वनाथ
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श्री माणोभद्रवीर का स्थान भैरवगढ़ में क्षिप्रानदी के तट पर अजन लोगों का सिद्धनाथ के नाम से मन्दिर है । ऐसी प्राचीन किंवदन्ती है कि श्री माणीभद्र वीर का मस्तक यहीं पर है।
श्री आदिश्वरजी का मन्दिर । (श्री भद्रबाहस्वामीजी के चरणब सिद्धाचल जी के पद युक्त)
श्री अवन्तीपार्श्वनाथ मन्दिरजी से लगभग १ कि. मी. दूरी पर श्री आदेशवर प्रभुजी का नूतन मन्दिर है । पूर्व में यहां श्री सिद्धाचलजी का पट्ट था। एक छोटी सी डेहरी बनी थो । मन्दिरजी का परिसर विशाल है । सेवा-पूजा करने की सुन्दर व्यवस्था है। श्री आदिश्वरजी के गर्भगृह की बाईं ओर श्री सिद्धाचलजी का पट्ट स्थित है । दाहिनी तरफ चउदह पूर्व- श्री आदिनाथ भगवान, हनुमन्त बाग धर युग प्रधान श्री भद्र बाहु स्वामी जी की चरण पादुका है। यहाँ प्रति वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के दिन उज्जैन शहर के समस्त जैन श्रावक श्राविकाएँ यहाँ के पट मन्दिर पर एकत्रित होकर सिद्धाचलजी की यात्रा करने की भावना पूर्ण करते हैं। इस दिन नवाणु प्रकार की पूजा के बाद सभी को लड़ व सेव का भाता वितरण किया जाता है। ___ श्री आदेश्वरजो के मन्दिर के पीछे रायण का वृक्ष है जिसके नीचे आदि नाथजी की चरण पादुका विराजमान है। श्री शीतल नाथजी का मन्दिर
(कांच का मन्दिर) - श्री ऋषभदेव जी के मन्दिर से एक दो फांग की दूरी पर दौलतगंज मोहल्ले में श्री शीतलनाथजी का भव्य मन्दिर है। यह नतन मन्दिर काँच के आकर्षक काम से युक्त है । सैकडों व्यक्ति दर्शन करने आते हैं । यहाँ सेवा-पूजा को ‘उत्तम व्यवस्था है । यहाँ रात्रि को जैन पाठशाला लगती है।
कांच मन्दिर श्री शीतलनाथजी
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श्री सुमतिनाथ जी का मन्दिर
श्री ऋषभ देवजी के मन्दिर से लगभग १ कि. मी. की दूरी पर जयसिंहपुरा मोहल्ले में श्री सुमतिनाथ जी भगवान का मन्दिर है । सभी प्रतिमाएँ प्राचीन है। मन्दिर जीर्ण-शीर्ण है । यहाँ सेवा पूजा की व्यवस्था है ।
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शीतलनाथ जी का मन्दिर
श्री ऋषभदेवजी के मन्दिर से लगभग दो कि. मी. की दूरी पर माधवनगर (फिगंज) के नाम से नवीन बस्ती है । इस क्षेत्र में जैन समाज की पर्याप्त आबादी है । यहाँ पर श्री शीतलनाथजी भगवान का नूतन मन्दिर है । इस मन्दिर की प्रतिष्ठा सन् १९८८ ई में हुई है ।
श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी चरण पादुका (देहरी)
श्री ऋषभदेवजी के मन्दिर से दो कि. मी. की दूरी पर नीलगगा के आगे नानाखेड़ा सड़क के किनारे एक प्राचीन डेहरी बनी हुई है जिसमें श्री हरिभद्र सूरीश्वरजी की चरण पादुकाएँ हैं । प्रतिवर्ष ( आँवला नवमी) कार्तिक सुदी ९ को पर्याप्त दर्शनार्थी आते हैं ।
जैन उपकरण भण्डार
हमारे यहां केशर, वरक, बरास, चन्वन के मुठिये, अगरबत्ति प्रतिक्रमण, स्नात्रपूजा, नवपद आदि पूजाओं की पुस्तके, पूजा के वस्त्र, बेटके, चखले, स्थापनाचार्यजी, संथारे पूज्य साधुसाध्वी जी के उपकरण, पाली की कामली, सफेद कामली, आसन, चोलपट्टे, सार्डे तथा ओड़ने के कपडे । महापूजन की सामग्री जैसे कि रक्षा पोटली अठ्ठारह अभिषेक की पुडिया, बादला, सोना रूपा के फूल मिढ़ल, पंचपट्टा नवग्रह का कपडा आदि अनेक धार्मिक उपकरण मिलने का मालव देश का एकमात्र स्थान
श्री सिध्दचक्र जैन ट्रस्ट
द्वारा
श्री ऋषभदेव जी छगनीराम पेढ़ी ट्रस्ट श्रीपाल मार्ग खाराकुआ उज्जैन म.प्र.
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उज्जैन : जैन समाज
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उज्जैन शहर में जैन समाज की आबादी लगभग २० हजार हैं । इनमें श्वेताम्वर, दिगम्बर, स्थानक वासी तेरापंथीं आदि सभी सम्प्रदाय के अनुयायी हैं। लगभग १० हजार व्यक्ति श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समुदाय के होगें ।
जाति की दृष्टि से देखें तो सर्वाधिक जनसंख्या ओसवाल जाति की है। इसके अतिरिक्त पोरवाल, भटेवरा, गुजराती, कच्छी, अग्रवाल व खण्डेलवाल, मोढ़ जाति के महाजन भी जैन धर्म के अनुयायी है।
उज्जैन शहर के मध्य भाग में सराफा, बटनी बाजार, नमकमण्डी दौलतगंज मोहल्ले में जैन आबादी अधिक है । नयापुरा व फ्रीगंज क्षेत्र में भी जैन लोग बड़ी संख्या में रहते हैं। वैसे उज्जैन के प्रत्येक मोहल्ले में दो-चार घर जैन परिवार के अवश्य मिल जावेगें । विगत वर्षों में बढ़ते हुए नगर में कॉलोनीयों का अधिक विकास हुआ है। अब प्रत्येक कॉलोनी में जैन परिवार रसने लगे हैं ।
उज्जैन शहर में रहने वाले जैनों में साक्षरता का प्रतिशात ६०% अधिक है। जैन समाज एक व्यापारिक समाज रहा है। आज भी उज्जैन के व्यापार जगत में जैन अग्रणी हैं। सोना चाँदी बाजार वस्त्र बाजार व अनाज बाजार के क्षेत्र में जेन व्यापारियों की संख्या अधिक हैं। साथ ही इन्हें विशेष सम्मान की प्राप्त है।
सामाजिक राजनैतिक एवं धार्मिक गतिविधियों में जैन समाज के लोग अग्रणी हैं। उज्जैन के लोगों को भारत भर में उच्च स्थान तक पहुंचने का गौरव प्राप्त हुआ है। पूर्व केन्द्रय गृह मंत्री माननीय श्रीप्रका शचन्द्रजी सेठी का गृह नगर उज्जैन ही रहा है। मध्य प्रदेश के पूर्व उद्योग मंत्री राजेन्द्र जैन का गृह नगर उज्जैव ही रहा है।
ओद्योगिक क्षेत्र में लालाचंदजी सेठी का नाम उज्जैन से ही आगे बढ़ा है।
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धार्मिक क्षेत्र में भी उज्जैन आगे रहा है । यहाँ प्रतिवर्ष विविध धार्मिक आयोजन होते रहते हैं । प्रतिवर्ष चैत्र मास में महावीर जयन्ति के अवसर पर शहर के सम्पूर्ण जैन समाज का एक ही (जुलूस) रथयात्रा निकालो जाती है. तब हमें लगता है कि उज्जैन में जैन समाज कितना बड़ा है।
उज्जैन में २० जैन श्वेतावर मन्दिर है। ७ मन्दिर दिगम्बर जैन अमाज के हैं । उज्जैन में ६ स्थानक भवन है। ४-५ उपाश्रय हैं जहाँ प्रतिवर्ष चातुर्मास होते हैं। चार विशाल जैन धर्मशालाएँ हैं। एक जैन छात्रावास है । इसके अतिरिक्त तीन विशाल शान भण्डार याने पुस्तका लय है जहाँ जैन धर्म के दुर्लभ ग्रन्थ भी उपलब्ध है। यहाँ फोगंज में धन्नलाल की चाल में एक आयुवैदिक जैन औषधालय कई वर्षों से कार्यरत है।
. उज्जैन में जैन धार्मिक व पारमार्थिक संस्थान (1) श्री ऋषभदेवजी छगनीरामजी पेढ़ी रजिस्टर्ड ट्रस्ट
श्री पाल मार्ग उज्जैन संस्थापित १९९२ वि. स. फोन 3356 (२) श्री अवन्ति पाश्र्वनाथ मूर्तिपूजक मारवाड़ी समाज ट्रस्ट रजि
स्टर्ड प्रधान कार्यालय छोटा सराफा उज्नन फोब 5554 (३) श्री वर्धमान जन स्थानकवानी श्रावक संघ उज्जन
उज्जन शहर के व्यापार केन्द्रउज्जैन में सभी प्रकार की वस्तुएं पटनी बाजार, गोपाल मन्दिर, छत्री चौक लखेरवाड़ी, सराफा बाजार, मिर्जा नईमबेग मार्ग, नई सड़क दौलतगंज, देवासगेट, फ्रीगंज से प्राप्त की जा सकती है।
पटनी बाजार सोना चांदी व बर्तन व्यापार का प्रमुख केन्द्र है। विक्रमादित्य मार्केट थोक कपड़े के व्यापार का केन्द्र है।
छत्री चौक, सराफा, सतीगेट, राम मार्केट, नई पेठ, सिन्धी कपढ़ा मार्केट फुटकर वस्त्र व्यवसाय के लिये प्रसिद्ध हैं।
गोपाल मन्दिर पर उज्जैन का प्रसिद्ध कंकू नाड़ा व मेंहदी बेची जाती है।
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कास्मेटिक सामान लक्झरी प्रजेन्ट आइटम के लिए लखेरवाड़ी, देवासगेट व फोगंज प्रमुख व्यापार केन्द्र है । बैंक सुविधा
उज्जैन में भारतीय स्टेट बैंक की लगभग १० शाखाएं है। प्रमुख शाखा बुधवारिया में हैं। इसके अतिरिक्त सभी राष्ट्रीयकृत बैंकों की शाखाएं है। इन बैंकों में यात्रि चेक की सुविधा प्राप्त है ।
संचार सुविधा
उज्जैन में आटोमेटिक टेलीफोन सुविधा है। कई शहरों से ST.D. की सुविधा है। प्रधान टेलीफोन -तार घर देवासगेट पर है । उज्जैन में
जैन यात्रियों को ठहरने के प्रमुख स्थान (१) श्री लक्ष्मी निवास "नवपद' धर्मशाला श्री ऋषभदेवजी मन्दिर उज्जैन.
( २ ) श्री अवन्ति पार्श्वनाथ तीर्थं मन्दिर धर्मशाला दानीगेट उज्जैन (३) दिगम्बर जैन धर्म शाला, नमकमण्डी उज्जैन
(४) जैन औसवाल धर्मशाला, नयापुरा
(५) श्री महावीर जैन धर्मशाला रंग महल नई पेठ उज्जैन (६) श्री शान्तिनाथजी मन्दिर धर्मशाला
इसके अतिरिक्त उज्जैन शाहर में विभिन्न महाजन समाज की कई धर्मशालाएँ
जैन यात्रियों के लिए भोजनालय
(१) श्री पार्वती बाई जैन भोजन शाला श्री ऋषभदेवजी का मन्दिर खाराकुआ उज्जैन यहाँ भाता वितरित होता है । (२) श्री अवन्ति पार्श्वनाथ तीर्थ मन्दिर की भोजन शाला भाता
खाता सहित ।
( ३ उज्जैन शहर के मध्य में सराफा बाजार क्षेत्र में निजी भोज नालय है, जहां शुद्ध भोजन उपलब्ध होता है ।
आयम्बिलतप गरम पानी की सुविधा
(१) श्री ऋषभदेवजी का मन्दिर श्री सिद्धचक्राराधन केसरियानाथ मन्दिर खाराकुआ पर वर्ष भर आयम्बिल खाता चालू रहता हैं । यहाँ पोने के लिये गरम पानी की सदैव सुविधा रहती है ।
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दर्शनीय स्थल :
1. जन्तर मन्तर ( जीवाजी वेधशाला )
2. गोपाल मंदिर
3. महाकालेश्वर मंदिर
4. चौबीस खम्बा देवी
5. बड़े गणेश
6. हरसिद्धि मन्दिर
7. क्षिप्रा तट रामघाट दत्त अखाड़ा
8.
बिना नीव की मस्जिद
9.
ख्वाजा साहब मस्जिद
10. गढ़कालिका मंदिर
11. रूमी का मकबरा
12. भर्तृहरि गुफा
13. अशोक निर्मित कारागार
14. काल भैरव
15. विक्रांत भैरव
16. सिद्धवट ( माणीभद्रजी का स्थान )
17. कालियादेह महल
18. सांदीपनी आश्रम
19. मंगलनाथ
20. बृहस्पतेश्वर मंदिर
21. बोहरों का मकबरा
22. चिंतामण गणेश मंदिर
23. त्रिवेणी संगम नवग्रह मंदिर
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उज्जैन से रेल सेवाएं
बड़ी लाईन
जाने का समय
00-20
भोपाल
6-00 11-10 8-16
89 डा. P. इन्दौर 165 डा. Ex. अहमदाबाद
85 डा. P. रतलाम 161 डा Ex. बम्बई 141 डा. P. नागदा 982 अप. Ex. इन्दौर 87 डा. P. नागदा 33 डा. Ex. इन्दौर 167 डा. Ex. इन्दौर 969 डा. Ex. राजकोट 971 डा. Ex. हावड़ा
90 अप P भोपाल 981 अप Ex, कोचीन 168 अप Ex नईदिल्ली 34 अप Ex. बिलासपुर 88 अप P. इन्दौर 142 अप P. गुना
86 अप P. भोपाल 166 अप Ex फैजाबाद 162 अप Ex. इन्दौर 970 अप Ex, भोपाल 150 अप P. उज्जैन. 972 अप Ex. इन्दौर
फैजाबाद भोपाल इन्दौर गना कोचीन (शनि.) इन्दौर बिलासपुर नई दिल्ली भोपाल इन्दौर इन्दौर इन्दौर इन्दौर इन्दौर
12-20 15-45 17-25 17-35 16-55
4-53 (गुरू) 2-10
5-50 (शनि.) 7-00
10.45 11-30 11-15 15-10 17-45 20-30 22-30 23-50
6-00 (गुरू.) 22-00
नागदा उज्जोन
रतलाम
अहमदाबाद बम्बई राजकोट
नागदा
हावड़ा
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:
छोटी लाईन
आने का समय 94 डा. P. महू उज्जैन
10-10 146 डा. P.
12-40 " 96 डा. P. ,,
15-00 134 डा. P. फतेहाबाद उज्जैन
19-15 98 डा. P. महू उज्जैन
21-20
समय 97 अप P. उज्जैन महू
06-15 145 अप P. उज्जैन
महू
10-30 93 अप P. उज्जैन महू
13-00 133 अप P. उज्जन
फतेहाबाद
17-00 95 अप P. उज्जैन महू
19-40 उज्जैन से प्रमुख बस सेवाएं उज्जैन-बड़ोदा
5-40 सूरत
5-00 आणंद
6-00 ओंकारेश्वर
6-30 हिम्मतनगर
8-30 बड़ोदा
9-40 मण्डलेश्वर
16-45 बम्बई
17-00 अहमदाबाद
19-00 नन्दुरबार
10-15 पूना
16-00 मथुरा
5-00 ग्वालियर
7-00 ग्वालियर
17-00 सागर
7-15 नीमच-भोपाल
1-30 शाजापुर-उज्जैन-गलियाकोट
-9-30 उज्जैन-उदयपुर
11-30 " उदयपुर
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. 5-30
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39
इन्दौर-जयपुर
. देवास-कोटा उज्जैन-बूंदी कोटा
21
"1
"
11
11
उज्जैन दिल्ली
जबलपुर
ब
नागपुर
कलकत्ता
पूना
मद्रास
डुगरपुर
रायपुर
जयपुर
इन्दौर
महू
नाथद्वारा
अजमेर
मांडव
बड़वानी
अहमदाबाद ग्वालियर
भोपाल
बिलासपुर
उज्जैन
आग ( फायर बिग्रेड)
एम्बुलेन्स
पुलिस
फोनोग्राम
नगर निगम
बस पूछताछ
रेल्वे पूछताछ
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एस. टी. डी. सर्विस
प्रमुख
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टेलीफोन नम्बर
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6-30
7-25
9-30
10-30
5-20
6-00
6-35
6-30
6-15
0734
011
0761
022
0712
033
02 2
044
0771
0141
0731
0721-83
0272
0751
0755
07752
101
4444
100/5000
185
3393
5741
5748
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कलर ब्लेक एण्ड व्हाइट फोटो व विडियो शूटिंग के लिए
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प्रोप्रायटर सुशील जैन जैन भजनों का मनभावन संगीत श्रवण करने हेतु हर प्रकार के मांगलिक
कार्य हेतु सम्पर्क कीजिये। प्रवीणकुमार एण्ड पार्टी हरि निवास, 29, देवास गेट , उज्जैन
फोन : 3669 पी. पी. छरि पालित संघ यात्रा एवम् उपधान तप हेतु हर प्रकार की जरी की एवं रेशमी माला सुन्दर एवं आकर्षक उचित मूल्य पर मिलने का मध्यप्रदेश में एकमात्र स्थान मोतीलाल गेंदालाल जैन
चौधरी निवास, छप्पन भैरू गली, उज्जैन श्री अवन्ति पाश्र्वनाथ जैन श्वेताम्बर तीर्थ की यात्रा पर अवश्य ही पहारिये यहां पधारने पर भापको सभी सुविधाए” उपलब्ध हो सकेगी। यहां धर्मशाला भोजन शाला एवं आयम्बिल की उत्तम सुविधा है।
निवेदक श्री अवन्ति पार्श्वनाथ जैन श्वे मूर्ति पूजक मारवाडी समाज
दानी गेट उज्जैन भवन्ति पार्श्वनाथ फोन ५५५३.. ५५५४
UnturiamIIEIRRUPVARIBHASHADHURUSUBi...anamIINISTRIBUMIISIBIRHIRUBIDYARTHIRAIMAHBIBILIMILAI
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री रत्नसागर प्रकाशन निधि द्वारा प्रकाशित एवं पूज्य मुनिराम जितरत्नसागर जी म. द्वारा लिखित अपनी सोई हुई आत्मा को जागृति हेतु संस्कृति का शंखनाद करता हुआ हिन्दी साहित्य आज ही मंगवाइये. व्रत ग्रहण पठन पाठन रु. 10 म is *1 आदर्श श्रावक *2 स्वाध्याय सौरभ भाग 1-2 *3 ज़िन शासन के पांच फूल *4 आदर्श बालक. *5 चलो जिनवर भेंटन को *6 शास्त्रों की दृष्टि में रात्रीभोजन निषेध 7 स्नात्र पूजा “वीर विजयजीकृत" 3 उज्जयिनी तीर्थ परिचय 1 पिंजरे का पंछी 10 मंत्र जपो नवकार [प्रेस में] o is w रु.20 पुस्तक मंगवाने के लिये M. O. कीजिये V, P. P. नहीं की जाती है / डाक खर्च संस्था उठायेगी। पुस्तक प्राप्ति स्थान श्री रत्नसागर प्रकाशन निधि श्रीसिद्धचक्र जैनट्रस्ट 35. कुवर मंडली, इन्दौर म. प्र. श्री पाल मार्ग, खारा कुआ उज्जैन म. प्र.. Serving Jin Shasan * इस निश 119736 gyanmandirekobatirth.org For Private and Personal Use Only