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विमान में जाना हो तो एक मार्ग है और वह है संयम स्वीकार ।'
"मैं अभी ही वहां जाना चाहता हूँ। आप मुझे चारित्र प्रदान कीजिये ।" अवन्तिसुकुमाल के मुख से शब्द फूट निकले।
आर्य सुहस्तिसूरिजी ने आकाश की ओर देखा। मध्य रात्री हो चकी थी। मध्याकाश में चन्द्र भर यौवन के थनगनते घोडों पर सवार था । आचार्य श्री ने ज्ञान को उपायोग किया । ऋतज्ञान में उन्होंने लाभालाभ देखा तो उसी क्षण अवन्तिसुकुमाल को दीक्षा दे दी।
अवन्तिसुकुमाल मुनि ने आचार्य श्री से कहां
"गुरुदेव । मैं अभी ही नलिनीगल्म विमान में जाना चाहता हूँ अतः मुझे क्या करना चाहिये ?"
आचार्य श्री ने ज्ञानोपयोग से जानकर कहा
"वत्स । यदि तुझे वहां जाना हो तो स्मशान में कायोत्सर्ग में लीन हो जाना। जो भी कष्ट भावे तू समभाव से सहन करना।'
गुरुचरणों में नमन करके अवन्ति मनि श्मशान की ओर चल दिये वहां जाकर अनशन स्वीकार लिया।
क्षिप्रा का पावन किनारा रात्री को अनेकों वनचरों से भरपूर था। श्मशान में वातावरण भयावह तो था हिसक पशुओ की आवाज क्षिप्रा किनारे गूज रही थी। वहीं दृढनिश्चयी मुनि अवन्ति ने कायोत्सर्ग प्रारम्भ किया।
रात्री का दूसरा प्रहर बीता होगा कि भक्ष की तलाश में सियारों का झुण्ड बहां आ पहुंचा । मुनि ध्यान में थे अतः उन्हें निर्जीव समझकर सियारों ने मुनि पर धावा बोल दिया। उनमें एक सियारनी थी जो कि मुनि के पीछले जन्म की वैरिणी थी उसने मुनि को महा उपसंग किया। उनके हाथ पैर मुख पर धावा बोलकर मांस खाने लगी। समभाव में नलिनीगुल्म विमान में जाने की जिज्ञासा वाले मुनि उसी रात्री को कालधर्म को प्राप्त हो गये । क्षणों के चारित्रधर्म ने उन्हें. नलिनीगुल्म विमान में पैदा कर दिया। __जब अवन्तिसुकुमाल अपने शयनकक्ष में नहीं आया तो उसकी पत्नियों ने भद्रामाता को रात्री की घटना बता कर कहा कि हमारे स्वामी कहां हैं ...?"
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