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"हे बलभद्र श्रीराम .. ! तुम व्यर्थ मेहनत कर रहे हो ...! यह प्रतिमाजी अब यहां से नहीं उठेगी । यह प्रतिमा अब इसी उज्जयिनी नगरी में पूजायेगी।"
श्रीराम लक्ष्मणजी और सीताजी के चेहरे खिन्न हो गये । किंतु वे समझदार थे। अधिष्ठायकों की इच्छा के विरुद्ध वे कुछ भी नहीं करना चाहते थे।
श्रीराम ने तात्कालिन उज्जयिनी के महाराजा को बुलाकर प्रभुजी की प्रतिमा उन्हें सौप दी । महाराजा ने भी अपने इष्टदेव समझकर उज्जयिनी के मध्य गगनचुम्बी जिनालय का निर्माण करवाकर श्री ऋषभदेव स्वामी की प्रतिमा की महोत्सव पूर्वक प्रतिष्ठा कराई ।
श्री ऋषभदेव स्वामी की प्रतिमा श्रीराम लक्ष्मण सीताजी एवं अनेक विद्याधरों के द्वारा पूजाने के बाद उज्जयिनी के श्रावक श्राविकाओं की श्रद्धा के केन्द्रबिन्दु बन गई ।
समय का प्रवाह सरिता के जल की तरह बहता रहता है। उज्जयिनी में भी अनेक राजा महाराजा हो गये । अब समय आया महाराजा प्रजापाल का ...!
महाराजा प्रजापाल मालवपति के नाम से दुनिया में विख्यात थे । महाराजा प्रजापाल की दो रानियां थीं।
एक का नाम था महारानी सौभाग्यसुदरी ... ! दूसरी का नाम था महारानी रूपसुदरी .... महारानी सौभाग्यसुन्दरी की एक पुत्री थी नाम था उसका सुरसुदरी।
महारानी रूपसुन्दरी की भी एक पुत्री थी नाम था उसका मयणा सुन्दरो ... !
महारानी सौभाग्यसुन्दरी शैवधर्म की अनुयायी थी अतः उसने अपनी पुत्री सुरसुन्दरी को शैव पंडित के पास अध्ययन करवाया।
महारानी रुपसुन्दरी जिनेश्वरदेव की उपासिका थीं अतः उसने अपनी पुत्री मयणासुन्दरी को जिनेश्वरदेव के उपासक सुबुद्धि नामक पंडित के पास अध्ययन करवाया। दोनों पुत्रियां पढ़ कर प्रवीण हो गई। और यौवन की दहलीज तक
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