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उनकी आंखों के सामने राजसभा का विवाद ग्रस्त दृश्य तैरने लगा। उन्होंने कहा -
"तुम मेरे दरबार में आओ मैं तुम्हें अवश्य ही कन्या दूगा . ।' मालवपति राजवाटिका न जाते हुए सीधे दरबार में आये। उसी क्षण मयणा को बुलाकर कहा-"बेटी आज तेरी बातों ने मेरे अन्तर्मन को झकझोर दिया है । तूने मेरे आधिपत्य का स्वीकार न करके कर्म धर्म की अनर्गल बातों को स्वीकारा इसी कारण मेरा मन तेरी ओर से बहुत दुखी है अभी भी कुछ नहीं विग़ड़ा है मैं फिर तुझसे कहता हूँ कि मेरी बात पर ध्यान धर और पसन्द करले किसी राजाको,धरी रहने दे तेरी शील और शणगार की बातें।"
मयणा ने कहा "पिताजी ! आप बार-बार क्यों मुझे शरमिन्दा कर रहे हो। आप चाहें उसके साथ मेरा विवाह करदें मेरे भाग्य में सुख होगा तो अवश्य ही मिलेगा और दुख होगा तो भी मिलेगा। आप उसमें क्या कर सकेंगे ? आप तो निमित्त मात्र है।"
मयणा की बातें सुनकर राजा प्रजापाल की आंखों से अंगारे बरसने लगे। उसी क्षण ७०० कोढियों के टोले ने दरबार में प्रवेश किया मध्य में एक युवान जिसके मस्तक पर छत्र धारण किया गया था। उसके दोनों ओर दो कोढिये चॅवर डोला रहे थे। उसका शरीर कोढ़
रोग़ से ग्रसित था। कान सुपडे जैसे हो रहे थे । नाक बूठी हो चुकी थी शरीर से खून और परु (पोप) झर रहा था और दुर्गन्ध इतनी आ रही थी कि खड़ा होना दूभर था।
महाराजा प्रजापाल के सामने जाकर उस छत्रधारी ने कहा --
"मैं ७०० कोढिये का स्वामी उम्बर राणा मालवपति को प्रणाम करता हूँ ।". . . . . . .
महाराजा प्रजापाल उसे एफटकी आखों से देखने लगे । राणा के मंत्री ललितांगुली ने कहा
"राजन् ! हमारे राणा के लिये कोई सुयोग्य कन्या दीजिये
ना?""
प्रजापाल ने कहा-मैं अभी तुम्हें अपनी कन्या देता हूं।"महाराजा ने मयणा से कहा -
"मयणा " । यदि मैं मात्र निमित्त ही हूं और तुझे तेरे कर्मो पर भरोसा हो तो इस उम्बर राणा के गले में बरमाला डाल दे ।
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