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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हैं । इसे इसके कर्मों का फल चखाना चाहिये । राजा कुछ कहे उससे पहले तो महामन्त्री ने बाजी सम्भालते हुवे कहा--- “महाराज । राजवाटिका जाने का समय हो गया है। यह विवाद छोड़िये आप और पधारिये प्रभु ।" मन्त्रीश्वर की बात सुनकर मालवपति ने सभा वहीं समाप्त कर दी और मन्त्रीश्वर के साथ वाटिका की ओर प्रस्थान कर गये आज प्रतिदिन की तरह राजा का मन प्रसन्न नहीं था। मन में उद्वेग था इसलिये घूमना भी रूचिकर नहीं लग रहा था राजा मन ही मन विचारों के द्वन्द्व में उलझे थे कि अचानक वायुमंडल दुर्गन्ध मय हो गया। महाराजा प्रजापाल ने मन्त्रीश्वर से पूछा 'मन्त्रीश्वर । आज यह दुर्गन्ध कहां से आ रही है । ?' "अभी तलाश करवाता हूँ कृपानाथ ।' मन्त्रीश्वर ने दो अश्वारोही भेजे जो कि क्षण भर में वापिस लौट आये । उन्होंने निवेदन किया "राजन् ! ७०० कोढियों का टोला इस ओर आ रहा है । उनके देह से खून टपक रहा है, पीप गिर रहा है । बड़ी बदबू मार रहे हैं वे।" मन्त्रीश्वर ने उसी क्षण राजा सहित अपनी दिशा ब:ल दी वे दसरी ओर घूमने चल दिये कि एक खच्चर पर सवार को ढया वहां पर दौड़ आया। मालवपति को प्रणाम करके उसने अपना परिचय देते हुवे कहा "हे यथानाम तथा गुण प्रजापाल राजा । हम ७०० कोढियों का टोला आपका नाम सुनकर आये हैं। हमारे राणा का नाम है उम्बर राणा..। मैं उनका ललिताङगुली नामक मंत्री हूं। हमें आते देखकर आपने राह क्यों बदल दी राजन् ? हम तो बड़ी आशा लेकर आये हैं आपकी नगरी में ।" मालवपति ने पूछा-"क्या चाहते हो तुम ?'' "कृपानाथ ! आपकी कृपा से सम्पत्ति तो अथाह है हमारे पास किन्तु हमारा राणा युवा होने के बाद भी कुवारा है । आप कृपा करके अपनी दासो की कन्या हमे दे दें तो बहुत उपकार होगा प्रभु ।" "कन्या चाहिये तुम्हें ।" मालवपति कुछ क्षण विचार में पड़ गये [10] For Private and Personal Use Only
SR No.020739
Book TitleSiddhachakra Aradhan Keshariyaji Mahatirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitratnasagar, Chandraratnasagar
PublisherRatnasagar Prakashan Nidhi
Publication Year1989
Total Pages81
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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