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श्री चन्द्रसागरजी म.सा. का उज्जैन पदार्पण हुआ तब यहां के श्रावकगणों ने कहा
"गुरुदेव ...! यहां श्रीपाल - मयणासुन्दरी का मन्दिर है ।"
श्रावकगण की बात सुनकर गुरुदेव के दिल में वर्षों पहले कहीं पुस्तक में पढ़े इतिहास की स्मृति ताजी हो गई । पूज्य गुरुदेव श्री चन्द्रसागरजी म.सा. बचपन से ही नवपद के आराधक रहे हैं। लगभग १४ वर्ष की बाल्यवय से ही पूज्य गुरुदेव श्री चन्द्रसागरजी म. सा. ने श्री सिद्धचक्रजी को अपने मानस पटल पर विराजमान किया था । आपकी आत्मा के पोर-पोर में सिद्धचक्रजी के प्रति अपार श्रद्धाभक्ति बसी हुई थी। आपने १४ वर्ष की बाल्यवय से ही नत्रपद की ओलीजी प्रारम्भ की थी जो कि जीवन पर्यन्त दोनों ओली करते रहे ।
आपने बाल्यकाल से ही श्रीपालराजा तथा मयणासुन्दरी के जीवनचरित्र को पढ़ रखा था एवं मुनि जीवन में श्रीपाल मयणासुन्दरी का चरित्र आपने रसमय शैली में अनेक बार प्रवचन में श्रोताओं को सुनाया भी था। उन्हें याद था कि नवपदजी की ओलीजी का प्रारम्भ सर्वप्रथम उज्जैन में ही हुआ था। उज्जैन नवपदजी की आराधना का मूल स्थान है।
उज्जैन के श्रावकों ने जब कहा कि यहां श्रीपाल मयणासुन्दरी का मन्दिर है तब उसी क्षण गुरुदेव शिष्यों के साथ खाराकुआ देहराखडकी पर आये । उस समय संवत् १९९० में यहां जीर्ण-शीर्ण अवस्था में मन्दिर था । गुरुदेव ने श्रावकों से पूछा
"कहां है श्रीपाल मयणासुन्दरी का मन्दिर ...? "
rani ने कहा "गुरुदेव
मन्दिर तो जिनेश्वरदेव का है किन्तु . यह मन्दिर श्रीपाल मयणासुन्दरी के मन्दिर के नाम से जाना जाता है । यहां ऐसी दन्तकथा है कि आज से ११ लाख वर्ष पहले श्रीपाल - मयणा ने यहां श्री केशरियानाथ प्रभु के जिनालय में श्री सिद्धचक्रजी की आराधना से कुष्ठ रोग निवारण किया था ।"
गुरुदेव ने श्रीपाल चरित्र में पढ़ रखा था कि उनकी आराधना स्थली उज्जैन है । आज उन्हें दन्तकथा से यह मालूम हुआ कि यह वही स्थान है जहां श्रीपाल महाराजा ने आराधना की थी ।
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