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मुरुदेव ने जीर्णं जिनालयों के दर्शन बंदन किये व पास ही में एक जीर्ण मकान था वहां अपना मुकाम लगाया।
उस समय खाराकुआ स्थित इस मन्दिर में मूलनायकजी आदिनाथजी का मन्दिर काले पत्थर का था जो कि अत्यन्त जीर्ण हो गया था । एक ओर श्री वर्धमान स्वामी का जिनालय ईमारती लकड़ियों से निर्मित था जो कि अत्यन्त जीर्ण हालत में खड़ा था। दूसरी ओर श्री चन्द्रप्रभ स्वामीजी का जिनालय लकड़ी का बना गिरने की स्थिति में था।
पूज्य गुरुदेव को दन्तकथा से विश्वास नहीं हो रहा था कि यह वही स्थान होगा ..? उन्होंने मन्दिरजी का बारीकी से निरीक्षण किया। वहीं गुरुदेव को एक जीर्ण ऐतिहासिक शिलालेख हाथ लग गया। जिसे पढ़ने पर यह तय हो गया कि यह शिलालेख श्रीराम सीताजी के द्वारा लंका से लाये श्री केशरियानाथ प्रभु का है। तथा श्रीपाल मयणासुन्दरी की भाराधना का भी वर्णन उक्त शिलालेख पर अंकित था।
गुरुदेव के मन में अचानक ही यह भावना आ गयी कि इस तीर्थ का जीर्णोद्धार करवाना ही है। आप नवपद के अनन्य आराधक तो थे ही। आपने तीर्थ जीर्णोद्धार के लिये उज्जैन में जैन श्रीसंघ की पेढ़ी की स्थापना के लिये श्रावकों को प्रेरित किया। पेढ़ी की स्थापना
दिनांक १६ अप्रेल १९३५ विक्रम संवत् १९९२ के चैत्र सुद १३ के शुभ दिन पेढ़ी स्थापना की बोली उज्जन श्रीसंघ के समक्ष बोली गई। जो कि २१०१ रुपये में स्व. श्री छगनीरामजो पन्नालालजी सिरोलिया के नाम पर समाप्त हुई। उसी दिन इन मन्दिरों की व्यवस्था के लिये "श्री ऋषभदेवजी छगनीरामजी पेढ़ी" की स्थापना
पेढ़ी की स्थापना होते ही जिनालयों का जीर्णोद्धार कार्य प्रारम्भ करने के लिये तैयारियां हुई । विक्रम संवत् १९९५ की वैशाख सुकी ७ शुक्रवार के दिन श्रेष्ठिवर्य श्री अमरचन्दजी छगनीरामजी सिरोलिया ने इस तीर्थ का मुख्य द्वार तथा पेढ़ी का भवन अपनी लक्ष्मी का सदु
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