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"आपको कौन न पहचाने । सर्व विदित है कि आप तेजस्वी
देव हैं।"
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"गुरुदेव । देव तो मैं अब बना हूं किन्तु पूर्व में मैं आपका भक्त माणकशा सेठ था । उज्जयिनी का वासी सिद्धगिरि की यात्रा करते हुबे इसी स्थान पर डाकूओं से लड़ते हुवे मेरी मृत्यु हुई और मैं माणीभद्र नामक व्यन्तर इन्द्र बना हूं।"
“इन्द्रदेव .. । तुम्हारे होते हुवे भी मेरे डाल दिये है उन लोकागच्छ के आचार्यो ने
दस साधु मृत्यु के मुख में ...1 तुम मेरी सहाय करो।" आज हो मैं उन्हें शिक्षा
" प्रभु....। आप निश्चिन्त रहिये । aa गा ।" माणीभद्रजी ने अवधिज्ञान का उपयोग किया ।
उन्होंने अपने ज्ञान में काला गोरा भेरु की यह साधुओं की हत्यालीला देखी। उनके क्रोध का पार न रहा । उस समय काला गोरा दोनों भेरु सवारी पर ही थे । माणीभद्र मे उन दोनों भेरु को उसी समय वहां बुलाया | माणीभद्र ने कहा-
" देवों ... ! तुम सन्त पुरुषों को उपद्रव करके किस गति के मेहमान बनाना चाहते हो ...? अभी उपद्रव शान्त करो भाई ।"
काला गोरा भेरु ने कहा- "देव | आप हमारे स्वामी हो आपकी आज्ञा तो हमें स्वीकार करना ही चाहिये किन्तु हम आपकी आज्ञा अभी मान्य नहीं कर सकते ।"
"देवों .! तुम्हें मेरो भाज्ञा का पालन करना ही होगा .... अन्यथा....।"
" किन्तु हम मन्त्र से बन्धे हुवे हैं अतः हमे उनकी ही आज्ञा मानना पड़ेगी ।" आप हमारे स्वामी होने के नाते यदि बल जबरी करोंगे तो भी हम आपकी आज्ञा नहीं मान सकते हैं । आप चाहो तो हम युद्ध के लिये तैयार हैं ।"
माजी भेरुओं की बात सुनकर चिढ़ गये । माणीभद्रजी और भेरुओं के बीच युद्ध छिड़ गया। काला गोरा भेरु आठ भुजा वाले थे तथा माणीभद्रजी छह भुजावाले थे अतः भेरु वश में नहीं हो रहे थे । उसी क्षण माणीभद्र जी ने वैक्रिय लब्धी से १६ हाथ का रूप बनाकर उन भेरुओं की पीट प्रारम्भ की।
दोनों भेरु घबरा गये । माणीभद्रजी ने उनकी ऐसी पीटाई की कि
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