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मैंने रावण के पंजे से मुक्त होने के लिए परमात्मा की भक्ति का मार्ग चुना। किंतु यहाँ परमात्मा की प्रतिमा कहाँ थी ? और आलम्बन के बिना परमात्म भक्ति होना कैसे सम्भव हो सकती है । अतः उसी समय मैंने अशोक वाटिका के पवित्र सरोवर से मिट्टी लाकर आदि तीर्थंकर देवाधिदेव श्री ऋषभदेव प्रभुजी की प्रतिमा का निर्माण किया। मिट्टी और बालूरेत से अद्भुत नयनरम्य प्रतिमा का निर्माण हो गया ।"
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सीताजी ने कुछ क्षण रूककर कहा - "आर्यपुत्र....! जब यह प्रतिमा बनकर तैयार हो गई उसो दिन से मैंने दो लक्ष्य से ही परमात्मा की भक्ति प्रारम्भ कर दी ।"
में
इतनी लीन हो जाती
"वे दो लक्ष्य कौन से थे भाभी ....? लक्ष्मणजी बीच में ही पूछ बैठे, "लक्ष्मण जी ....! मेरा प्रथम लक्ष्य था शील रक्षा का ....! और दूसरा लक्ष्य था लंका की कैद से मुक्ति का !' और इन परमात्मा की प्रतिमा जी का आलम्बन लेकर मैं भक्ति थी कि मै अपने सारे दुखों को भूल जाती थी मेरे दोनों लक्ष्य पूर्ण कर दिये। मेरा शील भी मुक्ति भी हो गई । मैं खोये हुवे मेरे जीवन साथी आर्यपुत्र से भी मिल गई ... ! जब आज मेरे मनोरथ सफल हो गये तो मैं इन परमात्मा को कैसे भूल सकती हूं ...?
।
परमात्मा की भक्ति ने सुरक्षित रहा और मेरी
"वास्तव में प्रभु प्रतिमा साक्षात् कल्पवृक्ष तुल्य कहीं गई है। यह शास्त्रीय बात सत्य ही है ।" श्रीराम सहसा बोल उठे ।
सीताजी ने कहा - " पहले मेरे भगवान और फिर मैं ....। अतः आप मेरे भगवान को साथ ले चलिये....।"
श्रीराम तो जिनेश्वरदेव के परम उपासक थे । उन्होंने सीता जी की बात मानकर अपने साथ ऋषभदेवजी की प्रतिमा ले जाना मंजूर कर लिया !
इधर अयोध्या लौटने की सम्पूर्ण तैयारी हो चुकी थी। श्री राम ने अत्यंत भक्ति और बहुमान पूर्वक ऋषभदेव स्वामी की प्रतिमा पुष्पक विमान में विराजमान की । सभी यथायोग्य अपने अपने विमानों में आरूढ़ हो गये ।
शुभ घड़ी में श्रीराम ने परिवारजनों के साथ अयोध्या की ओर प्रस्थान किया ।
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