Book Title: Siddhachakra Aradhan Keshariyaji Mahatirth
Author(s): Jitratnasagar, Chandraratnasagar
Publisher: Ratnasagar Prakashan Nidhi
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गया। तीनो अंग अलग जाकर मस्तक तो क्षिप्रा नदी के किनारे बड़ के पेड़ के नीचे आकर गिरा । पैर मगरवाडा में जाकर रुक गये तथा धड़ बागलोट में जाकर गिरा ।
माणकशा सेठ व्यन्तर निकाय में माषोभद्र नामक इन्द्र के स्थान पर उत्पन्न हुवे ।
इधर लोकागच्छ के साधुओं को जब समाचार मिले कि उज्जैन के सेठ माणकशा को आचार्य श्री हेमविमल सूरि ने पुनः अपने धर्म मैं स्थापन किया है तो वे क्रुद्ध हो गये । लोकागच्छ के उन आचार्य ने काला गोरा भेरु की साधना करके उन्हें वश में किया व उनके द्वारा आचार्य श्री हेमविमलसूरिजी के साधुओं को एक एक करके मारना प्रारम्भ किया। आचार्य श्री के दस साधुओं को लोकागच्छ के आचार्य ने परलोक की यात्रा पर रवाना कर दिया ।
आचार्य श्री हेमविमलसूरि ने मरते हुवे अपने साधुओं को देखा तो वे दुःखी हुवे। उन्होंने शासनदेवी की आराधना करके उसे प्रत्यक्ष की। उन्होंने शासनदेवी से प्रश्न किया ।
"हे शासनमाता... ! मेरे साधु एक एक करके परलोकवासी हो रहे हैं। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ?"
शासनदेवी ने उत्तर देते हुवे कहा - "यह सारा प्रकोप लोकागच्छीय आचार्य का है । वे आपके साधुओं को नष्ट कर रहे हैं ।"
"तो मेरे साधुओं को बचाना आपका कार्य है । हे माता बिना साधुओं की रक्षा कौन करेगा..।"
| आपके
"आचार्य श्री ..। आप गुजरात की ओर ही जा रहे हो वहीं रास्ते में आपको विघ्नविनाशक देव का परचा देखने को मिलेगा ।"
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आचार्य श्री ने उग्र विहार किया गुजरात की ओर । मार्ग में वे पालनपुर के पास पधारे। वहां आचार्यदेव ने तेले की तपस्या की । तप के प्रभाव से उज्जयिनी के सेठ माणकशा जो कि माणीभद्र नामक इन्द्रदेव बने हैं वहां बावनवीर तथा चौंसठ योगिनियों सहित अपनी सेना के साथ प्रकट हुवे ।
आचार्य श्री ने माणोभद्र इन्द्रदेव से पूछा
"आचार्य भगवन्त,..! आप मुझे पहचानते हो ....?"
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