Book Title: Shrimadvirayanam
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 15
________________ · : ( -१.५ :) !! ॥ अथ कव्वाली ॥ : प्रतप भाण समान हमान जो जगमें निज धर्म दिपावै ॥ जो जगमें जिनधर्म दिपावै बो जगमें जगनाथ कहावै ॥ ढेर | जिन भाषित आगम अनुसार। जिनवर धर्म करे परचार ॥ धारे शिर जिन आणाभार साही जन जैनी कहलाबै ॥ प्र० ॥ १ ॥ पर भावना अंग अव धार ॥ तन मन धन व्यय करें अपार ॥ आ-गम ग्रंथतनों भंडार करके विद्यालय खुलवा - बे ॥ ० ॥२॥ उपदेशक जन कर तय्यार ।। भेजे देश विदेश मझार ॥ जहँ पै नहीं साधु पयसार तँह पै दया धरम दरशावे ॥ प्रः ॥ ३ ॥ दिक्षा लेबेंजोनरनारताकोदेवे विविध सहार ॥ परभव की लेखरची लारताकीद हदिशकार तिछावै ॥ प्र० ।

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