Book Title: Shravakachar Author(s): Gyanand Swami Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur View full book textPage 8
________________ You श्री आचकाचार जी सम्पादकीय Oo होकर केवलज्ञानी होता हआ, सिद्धि मुक्ति को प्राप्त करता है । इस प्रकार संक्षेप में ग्रंथ संसार है। चार गति चौरासी लाख योनियों का परिभ्रमण, जन्म-मरण का चक्र ही संसार की विषय वस्तु का उल्लेख किया है, विशेष आनंद की उपलब्धि तो ग्रंथ का स्वाध्याय, है, जहां भय और दु:ख ही दु:ख भरा है। (गाथांश-१५) मनन करने पर ही होगी। क्षमा धर्म का नाश करने वाला क्रोध ही है । क्रोध का मूल आधार-बुरा लगना है, इस श्रावकाचार की विशेषता यह है कि "साध न्यान मयं ध्रुवं" अर्थात् अपनी मनचाही बात न होने से क्रोध आता है, कोई इच्छानुसार न चले तो क्रोध आता ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव की श्रद्धा, साधना को श्रावक चर्या का आधार बनाया है, जिसका है, कोई नुकसान हो जाये, कोई अपमान कर दे तो क्रोध आ जाता है । बहिर्दृष्टि होने से अभिप्राय है कि द्रव्यानुयोग के आश्रय पूर्वक चरणानुयोग का विधान दिया है। ८. ही क्रोध आता है और जब तक क्रोध की तीव्रता रहती है तब तक धर्म का जागरण नहीं इसी ग्रंथ में स्वयं श्री गुरु ने कहा है कि हैं हो सकता, कुछ भी देखने में बुरा लगता है तब तक सम्यक्दर्शन नहीं हो सकता। जस्व संमिक्त हीनस्य, उग्रं तब ब्रत संजुतं । (गाथांश-२५) संजम क्रिया अकाऊंच,मूल बिना वृक्षं जथा ॥ २०८॥ * जिसमें निराकुलता निश्चितता रहे, सुख होवे वह धर्म है और जिसमें आकुलता, जिस जीव को सम्यकदर्शन नहीं है अर्थात् सम्यक्त्व से रहित जीव घोर व्रत आदि भय, चिन्ता हो, द:ख होवे वह सब अधर्म है। यही जीवन का प्रमुख विषय है, जिस पर को धारण करे; किन्तु उसकी संयम की समस्त क्रियायें अकार्यकारी हैं, उसका आचरण वर्तमान और भविष्य निर्भर है, अगर सत्य धर्म उपलब्ध हो जाये तो वर्तमान जीवन ऐसा ही है जैसे जड़ के बिना वृक्ष। में सुख, शांति, आनंदमय रहे और भविष्य में परमानंद मयी मुक्ति की प्राप्ति हो । यही कारण है कि श्री गुरु महाराज ने अव्रती सम्यक्दृष्टि के लिये यह ग्रंथ कहने (गाथांश-९७) की प्रतिज्ञा की है; क्योंकि सम्यक्दर्शन ज्ञान पूर्वक होने वाला आचरण ही सम्यक्चारित्र निज शुद्धात्मा को छोड़कर अन्य अचेतन द्रव्य में रत्नत्रय नहीं रहता है, रत्नत्रय नाम पाता ह । आत्म श्रद्धान अनुभव से रहित मात्र ऊपरी क्रियाय मोक्षमार्ग में कार्यकारी अर्थात् सुख, शांति, आनंद ; इसलिये रत्नत्रय मयी आत्मा को निश्चय से मोक्ष का नहीं हैं । शुभ-अशुभ क्रिया मात्र पुण्य-पाप बंध की कारण होती हैं, उससे धर्म का संबंध 5 कारण जानो, यही सत्य धर्म है। (गाथांश-१०६) नहीं है।'धर्मच आत्म धर्म इसी ग्रंथ के इस सूत्रानुसार धर्म तो मात्र आत्म धर्म ही है, मिथ्यात्व से जन्म-मरण होता है, मोह-राग से कर्म बंध होता है। जब तक अपने अन्य कुछ भी धर्म नहीं है । सम्यक्त्वी श्रावक ऐसे आत्म धर्म, सत्य धर्म का श्रद्धानी ई सत् स्वरूप शुद्ध तत्व निज शुद्धात्मा का श्रद्धान अनुभूति नहीं होती तब तक यह अनुभवी साधक होता है, यही धर्ममार्ग है। अहंकार-ममकार तो होते ही हैं। मिथ्यात्व अज्ञान दशा में कितने ही तप करो, अनेक आध्यात्मिक संत अध्यात्म शिरोमणि पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी महाराज ने इस शास्त्र पढ़ो परंतु उससे तपमद, ज्ञानमद ही बढ़ता है, आत्म कल्याण नहीं होता। ग्रंथ की अध्यात्म जागरण टीका में अव्रती और व्रती श्रावक की चर्या के संबंध में ग्रंथ (गाथांश-१५०) की गाथाओं के अभिप्राय और हार्द को अपनी सहज सरल सुबोध भाषा में स्पष्ट कर हम - द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म आदि पुद्गल द्रव्यों में अपनी कल्पना करना संकल्प भव्य आत्माओं के मोक्षमार्ग को प्रशस्त किया है। टीका में आये हुए कुछ अनुभूति पूर्ण है और ज्ञेयों के भेद से ज्ञान में भेदज्ञान होना विकल्प है ऐसा शुद्ध नय आत्म स्वभाव को अनमोल रत्न यहाँ चिन्तन मनन हेतु प्रस्तुत हैं प्रगट करता है। आत्मा पांच प्रकार से अनेक रूप दिखाई देता हैपरिवार के कारण-मोह, शरीर के कारण-राग, धन के कारण-द्वेष होता है, यही १. अनादिकाल से कर्म पुदगल के संबंध से बंधा हुआ, कर्म पुद्गल के स्पर्श Detakervedaki.Page Navigation
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