Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 6
________________ 6226 श्री आवकाचार जी उनकी वीतराग भावना इतनी उत्कृष्ट होती गई कि साठ वर्ष की उम्र में उन्होंने निर्ग्रन्थ दिगम्बर जिन दीक्षा धारण कर ली । श्री गुरुदेव १५१ मण्डलों के प्रमुख आचार्य होने से मण्डलाचार्य पद से अलंकृत हुए । उनके श्री संघ में ७ निर्ग्रन्थ मुनिराज (साधु), और ३६ आर्यिकायें अपनी आत्म साधना में रत थीं, जिनके नाम इस प्रकार हैं। तारण तरण श्री संघ के ७ साधु - १. श्री हेमनन्दि जी महाराज ३. श्री समंतभद्र जी महाराज ५. श्री समाधि गुप्त जी महाराज ७. श्री भुवनन्द जी महाराज ३६ आर्यिका माताजी के नाम १. कमल श्री ५. सुवन श्री ९. अभय श्री १३. आनन्द श्री १७. अलष श्री २. चरन श्री ३. करन श्री ६. औकास श्री ७. दिप्ति श्री १०. स्वर्क श्री ११. सर्वार्थ श्री १४. समय श्री १५. हिय उत्पन्न श्री १८. अगम श्री १९. सहयार श्री २२. उत्पन्न श्री २३. षिपन श्री २६. समय श्री २७. सुन्न सुनन्द श्री ३०. श्रेणि श्री ३१. जैन श्री ३४. भद्र श्री ३५. उवन श्री इस प्रकार श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज के श्री संघ में ७ साधु, ३६ आर्यिका माताजी के साथ-साथ २३१ ब्रह्मचारिणी (सुवनी) बहिनें तथा ६० ब्रह्मचारी व्रती श्रावक एवं १८ क्रियाओं का पालन करने वाले सद्ग्रहस्थ श्रावक लाखों की संख्या में थे । उनके शिष्यों की कुल संख्या ४३४५३३१ थी । यह संपूर्ण विवरण श्री नाममाला ग्रंथ में उपलब्ध है । ३६. पय उवन श्री श्री गुरुदेव तारण स्वामी साधु पद पर ६ वर्ष, ५ माह, १५ दिन तक प्रतिष्ठित रहे, पश्चात् विक्रम संवत् १५७२ की ज्येष्ठ वदी छठ को समाधि धारण कर सर्वार्थ सिद्धि को प्राप्त हुए। २१. रमन श्री २५. विन्द श्री २९. जान श्री ३३. लीन श्री २. श्री चंद्रगुप्त जी महाराज ४. श्री चित्रगुप्त जी महाराज ६. श्री जयकीर्ति जी महाराज विचार मत में - आचार मत में ४. हंस श्री ८. स्वयं दिप्ति श्री १२. विक्त श्री १६. हिय रमन श्री २०. उवन श्री २४. ममल श्री २८. हिययार श्री ३२. लवन श्री उन्होंने पाँच मतों में चौदह ग्रंथों की रचना की जो इस प्रकार हैं - श्री मालारोहण, पण्डितपूजा, कमलबत्तीसी जी। श्री श्रावकाचार जी । SYARAT YAAAAAT FAR AS YEAR. सम्पादकीय 10 श्री ज्ञान समुच्चय सार, उपदेश शुद्ध सार, त्रिभंगी सार जी । श्री चौबीस ठाणा, ममल पाहुड़ जी । श्री खातिका विशेष, सिद्ध स्वभाव, सुन्न स्वभाव, छद्मस्थवाणी तथा नाममाला ग्रंथ हैं। इन पाँच मतों में विचारमत में साध्य, आचारमत में - साधन, सारमत में - साधना, ममलमत में - सम्हाल ( सावधानी) और केवल मत में -सिद्धि का मार्ग प्रशस्त किया है। इसके लिये आधार दिया है क्रमश: भेदज्ञान, तत्वनिर्णय, वस्तुस्वरूप, द्रव्य दृष्टि और ममलस्वभाव का, जिनसे उपरोक्त साध्य आदि की सिद्धि होती है। सार मत में - ममलमत में - केवल मत में - यह अध्यात्म ज्ञान मार्ग अपने शुद्धात्म स्वरूप के आश्रय से ही प्रशस्त होता “है। इसमें पर पर्याय, कर्मादि संयोग, शरीर या बाह्य क्रियाकाण्ड यहाँ तक कि परमात्मा भी पर हैं, इनकी तरफ दृष्टि भी इस मार्ग में बाधा है, इसलिये श्री जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज पर की समस्त पराधीनता के लिये वज्रपात थे । वे समस्त बंधनों से परे होकर चले तथा वीतराग जिन धर्म के अनाद्यनन्त सिद्धांत वस्तु स्वातंत्र्य और पुरुषार्थ से मुक्ति की प्राप्ति का, स्वयं परमात्मा होने के विधान का शंखनाद किया। उनका जीवन गौरवपूर्ण था, वे छल-प्रपंच से बहुत दूर सत्य निष्ठ थे, भय का उनके जीवन में कहीं नाम निशान भी नहीं था। उनके द्वारा की गई अध्यात्म क्रांति उनकी वीतरागता, निस्पृहता, निर्भयता और जन-जन को धर्म और पूजा के नाम पर फैल रहे आडम्बर, जड़वाद, पाखण्डवाद से मुक्त कर सत्य अध्यात्म धर्म में स्थिर कर देने की भावना का परिणाम थी। उनकी विशुद्ध आध्यात्मिक परंपरा में ज्ञान मार्ग पर निरंतर अग्रणी, आत्म साधना के सतत् प्रहरी, अध्यात्म शिरोमणि पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी महाराज अहर्निश अपने आत्म चिंतन साधना में रत रहते हुए हम सभी भव्यात्माओं के आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं, यह हमारा महान सौभाग्य है। श्री गुरु तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज द्वारा विरचित चौदह ग्रंथों में से पूज्य श्री द्वारा अनूदित श्री मालारोहण ग्रंथ की अध्यात्म दर्शन टीका, श्री पण्डित पूजा ग्रंथ की अध्यात्म सूर्य टीका और श्री कमलबत्तीसी ग्रंथ की अध्यात्म कमल टीका का प्रकाशन हुआ, साथ ही अध्यात्म अमृत (चौदह ग्रंथ जयमाल एवं भजन), अध्यात्म आराधना, अध्यात्म भावना तथा

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