Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 5
________________ puी आपकाचार जी सम्पादकीय Ooक सम्पादकीय श्री गुरु तारण स्वामी की संयम साधना और आध्यात्मिक क्रान्ति के बारे में भारतीय संस्कृति के आध्यात्मिक क्षितिज पर विक्रम संवत् १५०५ की मिति उल्लेख करते हुए सिद्धांतशास्त्री स्व. पं. श्री फूलचंद जी ने ज्ञान समुच्चय सार ग्रंथ की अगहन सुदी सप्तमी को एक महान क्रांतिकारी ज्ञान रवि के रूप में आध्यात्मिक भूमिका में लिखा है कि "जैसा कि हम पहले बतला आए हैं अपने जन्म समय से लेकर उद्धात्मवादी संत श्रीमट जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज का उदय हा। पिछले तीस वर्ष स्वामी जी को शिक्षा और दूसरे प्रकार अपनी आवश्यक तैयारी में बचपन से ही पूर्व संस्कार संयुक्त होने से विलक्षण प्रतिभा संपन्न श्री जिन तारण तरण, लगे। इस बीच उन्होंने यह भी अच्छी तरह जान लिया कि मूल संघ कुंद-कुंद आम्नाय पूण्य संपृक्त अपनी बाल सुलभ चेष्टाओं के द्वारा सभी को सुखद अनुभव कराते हए दज 2 के भट्टारक भी किस गलत मार्ग से समाज पर अपना वर्चस्व स्थापित करते हैं। उसमें के चन्द्रमा की भाँति वद्धि को प्राप्त होने लगे। वे जब पाँच वर्ष के थे तब राज्य में कांति. उन्हें मार्ग विरुद्ध क्रियाकाण्ड की भी प्रतीति हई अत: उन्होंने ऐसे मार्ग पर चलने का कोषालय में आग लगना तथा तारण स्वामी द्वारा पुन: कागजात तैयार करवा देनाS निर्णय लिया जिस पर चलकर भट्टारकों के पूजा आदि संबंधी क्रियाकाण्ड की अयथार्थता उनके "बाल्यकालादति प्रा" होने का बोध कराता है। कागजात तैयार कराने का को समाज हृदयंगम कर सके; किन्तु इसके लिए उनकी अब तक जितनी तैयारी हुई थी कारण यह कि उनके पिता श्री गढ़ाशाह जी पुष्पावती नगरी के राजा के यहाँ कोषाधीश उसे उन्होंने पर्याप्त नहीं समझा। उन्होंने अनुभव किया कि जब तक मैं अपने वर्तमान पद पर कार्यरत थे। जीवन को संयम से पुष्ट नहीं करता, तब तक समाज को दिशादान करना संभव नहीं “मिथ्याविली वर्ष ग्यारह" श्री छमस्थ वाणी जी ग्रंथ के इस सत्रानसार है। यही कारण है कि तीस वर्ष की उम्र में सर्वप्रथम वे स्वयं को व्रती बनाने के लिए (१/१७ ) उन्हें ग्यारह वर्ष की बालवय में आत्म स्वरूप के अनुभव प्रमाण बोध पूर्वक , अग्रसर हुए।" मिथ्यात्व का विलय और सम्यक्त्व की प्रगटता हई, जैसा कि सम्यक्त्व का महात्म्य उनकी आत्म साधना पूर्वक निरंतर वृद्धिगत होती हुई वीतरागता, सेमरखेड़ी के आचार्य प्रणीत ग्रंथों में उपलब्ध होता है कि सम्यक्त्व रूपी अनुभव संपन्न सूर्य के उदय निर्जन वन की पंचगुफाओं में ममल स्वभाव की साधना उन्हें एक ओर अपने आत्मकल्याण होने पर मिथ्यादर्शन रूपी रात्रि विलय को प्राप्त होती है, सम्यक्त्व के प्रकाश में मिथ्यात्व और मुक्त होने के लक्ष्य की ओर अग्रसर होने में प्रबल साधन बन रही थी, वहीं दूसरी ओर आदि विकार टिकते नहीं हैं। आत्म अनुभव के जाग्रत होने पर अनादि कालीन अज्ञान उनके सातिशय पुण्य के योग से सत्य धर्म, अध्यात्म मार्ग की प्रभावना हो रही थी और अंधकार का अभाव हो जाता है तथा संसार, शरीर, भोगों से सहज वैराग्य होता है। यह लाखों जिज्ञासु आपके अनुयायी बन रहे थे, जिसमें जाति-पांति का कोई भेदभाव नहीं सब श्री तारण स्वामी के जीवन में हआ और आत्मबल की वृद्धि होने के साथ-साथ था। इस मार्ग को स्वीकार करने का आधार था-सात व्यसन का त्याग और अठारह वैराग्य भाव की वृद्धि भी होने लगी इसी के परिणाम स्वरूप उन्होंने डकीस वर्ष की क्रियाओं का पालन करना। किशोरावस्था में बाल ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने का संकल्प कर लिया और सेमरखेडी अनेक भव्य जीवों का जागरण, निष्पक्ष भाव से हो रही धर्म प्रभावना, आध्यात्मिक वन, जो विदिशा जिले में सिरोंज के निकट स्थित है, की गुफाओं में आत्म साधना क्रांति का रूप धारण कर रही थी। यह सब, भट्टारक और धर्म के ठेकेदारों को रुचिकर ९ करने लगे। नहीं लगा फलत: योजनाबद्ध ढंग से श्री तारण स्वामी को जहर पिलाया गया और ॐ माँ की ममता और पिता का प्यार भी उनकी आध्यात्मिक गति को बाधा नहीं बेतवा नदी में डुबाया गया किन्तु इन घटनाओं से भी वे विचलित नहीं हुए बल्कि यह पहुँचा सका और निरंतर वृद्धिगत होते हुए वैराग्य के परिणाम स्वरूप श्री तारण स्वामी सब होने के पश्चात् तारण पंथ का अस्तित्व पूर्ण रूपेण व्यक्त और व्यवस्थित हो गया ने तीस वर्ष की युवावस्था में सप्तम ब्रह्मचर्य प्रतिमा के व्रतों को पालन करने की दीक्षा तथा वट वृक्ष की तरह विराट् स्वरूप धारण कर लिया। प्रभावना आदि का विशेष योग ग्रहण की। होते हुए भी श्री गुरू तारण स्वामी का बाह्य राग और प्रपंचों से कोई संबंध नहीं था।

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