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शाबासमुन्य नहीं होता है। व्यवहारनप से मान्य विघ्न व बाह्य मङ्गलके नाश्प नाशक भाष में व्यभिचार देख कर निधय नय मजलाभिव्यगथ भावषिशेष को ही विष्म का माशक मानता है।
• यदि यह कहा जाय कि मङ्गल से अभिव्यक्त भावविशेष को विघ्न का नाशक मानना उचित नहीं है । क्योंकि ऐसा मानने पर मकल से भाव विशेष को अभिव्यक्ति होने पर भी बलधान घिन का नाश न होने से व्यभिषार की आपत्ति होगी, तो यह ठीक नहीं है स्पोंकि 'निकाचित कर्म में अपवर्तन नहीं होता । फलतः मङ्गल व अनिकाचित विघ्नों के माश का कार्य-कारण भाव प्राप्त होता है । बलवान चिन्न पक निकाचित कर्म है अतः पाह्य माल द्वारा अभिव्यक्त भावविशेष से उस में अपवर्तन नहीं हो सकता, फिर भी कोई व्यभिचार नयोंकि मनरल था इससे अभिम्पत भावविशेष उम्ही विनों में अपवर्तनका कारण होता है, जो निकाषित नहीं होते। निकाचित कर्म तो संक्रमण-उद्वर्तन-अपवर्तन आदि सर्व करणों के अयोग्य होता है।
अगर कहा जाय कि "शब्दादिस्वरूप नमस्कार आदि जितने भी मङ्गल हैं उन्हें . पने अव्यर्वहित उत्तरक्षण में होने वाले विघ्ननाशका कारण मानना चाहिये । इस रूप में माल को विघ्नध्वंस का कारण मानने पर कोई दोष नहीं हो सकता, क्योंकि जो विन भवंस जिस भङ्गल के अव्यवहित उत्तरक्षण में होमा, वह मङ्गल उस विघ्नध्वंस के पूर्व अवश्य रहेगा, अन्यथा वह विषनध्वंस उस मङ्गल के अव्ययहित उसरक्षण में होने वाला विनध्वसन कहा जायेगा' तो यह उचित नहीं, क्योंकि ऐसे कार्य- कारण भाव से प्रति नियत मङ्गल में उपादेयता का ज्ञान नहीं हो सकेगा जब कि भावविशेष को कारण व बाय मङ्गल को उसका अभिव्यञ्जक मानने पर मङ्गल में उपादेयता का ज्ञान हो सकेगा। धर्म, व परिणामे बन्ध,'--धर्म आरमा (चित्त) के शुद्ध उपयोग में है, व कर्मबन्ध आत्मा के शुभाशुभ परिणाम (माघ) के अनुसार होता है । शुद्ध उपयोग आरमजागृति स्वरूप है. कपायोपशमन अपर नाम संयम विशुद्धि है। यही विशुद्ध अभ्यवसाय है । इससे कर्मक्षय कर्मनिर्जग होती है | शुभ भाव में जितना विशुद्धि अंश है उतना कर्मक्षय, व जितना प्रशस्त रागादि अंश है उनना शुभ कर्म बन्ध होता है।
अब अगर बाह्य से मङ्गल रूप परमात्म-नमस्कारादि प्रवृत्ति हो कि अभ्यन्तर में कोई मानाकांक्षादि मलिन भाव है, संकलश है, तो वहां विशुद्धि न होने से दुरितक्षय नहीं होता। वह माल ट्रव्यममल है। नाममङ्गल-स्थापनामङ्गल-ट्रव्यमाल-भायमाल इन चार मङ्गलों में से भावमइस ही अवश्य फलोपधायक होने का नियम है । इसमें अभ्यन्तर' में विशुद्धि विशुद्ध अध्यवसाय समन्विन ही रहती है | यही 'भावविशेष' है। निश्चयनय इसी को विनरूप दुरित का नाशक मानता है । व्यवहाग्नय बाद्य मङ्गल नमस्कारादि को दुरितनाशक कहना है । किन्तु इसके पीछे मन्वन्तर में अगर विद्धि न हो नो विनवस नहीं होता, अतः इसको विघ्ननाश हेतु कहने में व्यभिचार होगा। इसलिए, निश्चयनय आम्बन्तर भावविशेष को ही मङ्गल मानता है और विनदुरितनाश का कारण कहला हैं ।
यहां भावविशेष कभी तो बाह्य नमस्कारादि का प्रयोजक होता है, एवं कभी बाह्य नमस्कारादि से प्रयोज्य-(प्रयुक्त होता है। अत: बाह्य नति नमस्कारादि पर से यह साप्य होता है या उत्पाद्य होता है। 'अभिव्यक्त-अमिव्यङ्गय' शब्द ज्ञाय-उत्पाद्य दोनों अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसलिए टीका में कहा गया है