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या० क० टीका व हिं० वि०
(tor ० ) अवाक्षरार्थ उच्यते-- परमः क्षीणघातिकर्मा य आत्मा सम्, प्रणम्य = भक्ति - श्रद्धातिशयेन नत्वा अल्पबुद्धीनाम् = असङ्कलिततत्तच्छास्त्रार्थग्रहणाप्रवणमतीनां सच्चानां हितकाम्यया=अनुग्रहेच्छया, शास्त्राणां बोद्धवैशेषिकादिदर्शनानां या वार्ता:= सिद्धान्तप्रवादाः, तासां समुच्चयमेकत्र सङ्कलनम्, 'दभिहित०' न्यायाश्रयणात् समु च्चिता: शास्त्रवार्ता इत्यर्थः, ता वक्ष्यामि - अभिधास्ये; नातों द्वितीयार्था नन्वयः, द्रव्यपरकदर्थान्वितस्यैव तदुत्तरपदार्थेऽन्वयात् प्रत्ययानां प्रकृत्यर्थान्वितस्वार्थबोधकनियमस्य 'तेषां मोह : पापोयान् नामूढस्येतरोत्पत्तेः' इत्यादावेव दुषितत्वात् । पाणिपाद वादय इत्यत्र पाणिपादसमाहारस्येवात्र समुच्चयस्य स्वाश्रयनिरूपितत्वसम्बंधेनावस्त्वनुभवानुपारूढत्वाद् न कल्प्यत इति दिक् ।
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होने पर उसे करके अध्येता शिव को बड़ी सरलता से यह बोध हो सकता है कि 'जैसे शास्त्रकार ने शास्त्र की रखना आरम्भ करते हुये मङ्गलाचरण किया है उसी प्रकार मुझे भी कार्य का आरम्भ करते समय मङ्गलाचरण करना चाहिये ।'
मङ्गलाचरण के इस प्रयोजन की पुष्टि में भाष्यकार का यह तर्क है कि महावरण का यह प्रयोजन यदि न माना जाय तो प्रश्न होगा कि तब शास्त्र में प्रविष्ट मङ्गलवाक्य क्या शास्त्र का अंश नहीं है ? 'वह शास्त्र का अशे नहीं किन्तु शास्त्र वहिर्भूत है' यह तो sa सकते नहीं, क्योंकि तब तो वैसे मङ्गल वाक्य के समान शास्त्र के सभी अक्षरम वर्ण शास्त्रप्रविष्ट होते हुए भी शास्त्र बहिर्भूत होने की आपति होगी, फलतः शास्त्र माथ चरम वर्ण स्वरूप ही गिना जाएगा ! इसलिए मङ्गल वाक्य को शास्त्र का अंश मानना ही होगा | अलबत इस में यह आपत्ति महसुस होती है कि शास्त्र का मङ्गलवाक्यांश मङ्गल रूप होने से अर्थापत्ति से शास्त्र का अवशिष्ट अंश अमङ्गल रूप सिद्ध होगा ! और तस्वशास्त्र को मङ्गल रूप कैसे कहा जाए ?' किन्तु इस आपत्ति का निवारण तो इस प्रकार हो सकता है कि समुद्र के एक अंश को जैसे समुद्र कहने पर भी अवशिष्ट समुद्रांश में असमुद्रता की अर्थापति नहीं होती है वैसे महलवाक्य रूप शास्त्रांश मङ्गल भूत होने पर भी अवशिष्ट शास्त्रांश में अमलता की अर्थापत्ति नहीं हो सकती । अब पहन इतना रहा कि 'शास्त्र मङ्गल रूप होते हुए भी इस में मङ्गलवाक्य का क्यों प्रवेश किया गया ?' इस का उत्तर यह है कि वह प्रवेश 'शिष्यमति- मङ्गलपरिग्रहार्थ' अर्थात् शिष्य को मङ्गलाचरण की उपादेयता - कर्तव्यता का बोध कराने के लिये किया गया है ।
प्रस्तुत विचार का उपसंहार करते हुये व्याख्याकार ने कहा है कि इस सम्बन्ध की तत्थभूत यान उनके 'मङ्गलवाद नामक ग्रन्थ से ज्ञात करनी चाहिये । सन्दर्भ के अन्त में व्याख्याकार का कहना है कि इस सम्बन्ध में अब तक जो बातें कही गयी हैं, उनसे यह सिद्ध है कि मङ्गल सफल है, अतः ग्रन्थकारने जो मङ्गलाचरण किया है वह उचित है।
मङ्गलवाद सम्पूर्ण
२ श्री यशोविजयश्री का मङ्गलवाद नामक ग्रन्थ इस समय सुलभ नहीं है ।