Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 329
________________ २८६ शास्त्रात मुस्तक १०८६ _F युवी जीवनयोनियत्नानभ्युपगमेन विजातीयमनःसंयोगस्यैवाभावात् । नववक्रियया त्मनः संयोगनाशे पुरीतविषया पुरीवन्मनः संयोगरूपगुत्युत्पत्तौ पातनात्ममनः संयोगनाशाभावात् तदा ज्ञानोत्यन्यायचिरिति वाच्यम्, सर्वश्र मनःक्रिययैव तिस्त्रीकारात् । तदुक्तं यदा मनः स्वर्च परिहृत्य इत्यादी'ति चेत् ? न जीवन नियत्नस्य तदाऽवश्यं सस्यात्, नाडादिकिययापि सुप्तिसम्भवात् 'या मनः' इत्याद्यमानस्य प्रायिकत्वात् मनोयोगनिष्ठ वैजात्याच्छितोदृष्टाति रिक्तस्थादर्शनात् उपनामनः संयोगवशायां त्वङ्गनः संयोगस्वाप्यावश्यकत्वात् त त्याचप्रतिबन्धकस्यातिरिक स्वीकारे चाधुवादिसामग्रीकाले मानसानुत्पच्यर्थमध्ये तत्प्रतिबन्ध कल्पना तो तेनैव ज्ञानाद्युत्पत्तिप्रतिबन्धोपगमी चित्याच | किन ज्ञानज्ञानादी विषयान्तरसंचार प्रतिबन्धकत्वकल्पने गौरवात् ज्ञानस्ये न्द्रियाऽग्रात्य कल्पनान् स्वसंविदिततत्प्रतिपदोपकल्पना गौरवमपि फन्दसुखन्याभ ariकमिति दिक् । ८६॥ आदि के लिये मां उसके सग्निधान की आवश्यकता होने से समक्ष आदि के समय भी प्रत्यक्ष को आपत्ति होगी । जन्यज्ञानमात्र के प्रति स्मसंयोग को कारण न मानकर केवल मानसमात्र के प्रति कारण मानने पर उसे प्रत्यक्ष के प्रति प्रथ कारण मानने में गौरव होगा । अगः उसे जन्यज्ञानमात्र के प्रति कारण मानना और स्वाप्रत्यक्ष के पति उस समय में विमान हो सकने वाले किसी पनिबन्धक की कल्पना करना यह उचित है। फलतः सुषुप्ति काल में उसका अभाव होने से उस समय आत्मा के मानव प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती। किन्तु इस उत्तर को अपेक्षा यह उत्तर अधिक संगत है कि 'सुलिकाल में जीवनयोनियन के न होने से उस समय विजातीय आत्ममनःसंयोग हो नहीं होता अतः उस समय आरंभा के मानसप्रत्यक्ष की कोई सम्भावना ही नहीं हो सकती ।' [पुतिकाल में माला नोपल का परिहार | में यह शंका अधिक संगत प्रतीयमान उमा उत्तर के सम्बन्ध है कि 'जब स्वर की किया से रोग का नाश होकर पुरीम् ना को किया मे पुरीगमन:संयोग सुपुको उत्पति होती है नव पूर्ववर्तीयोग की माफिया के न होने से वह संवांग बना ही रहेगा. मन उससे उक्त सुति कान में मन की उत्पति आपति हो सकती है शिन्तु नहीं क्योंकि मन की किया से ही सर्वत्र सुषुप्ति होती है यह सिद्धान्त है। कहा भी गया है किन परिस्कर पुरी में संयुक्त होता है तब होती है। अमः सुषुप्ति के पूर्व मनःकिया से पूर्ववर्ती आत्ममन:संयोग का नाश हो जाने से और सुषुप्ति के अनय जोग शब्टल को मत्ता स्वीकार न किये जाने से मीन आममनयोग की उपनि समय न होने से उस समय श्रात्मज्ञान की उत्पति की आपत्ति नहीं हो सकी।

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