Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 343
________________ སྐོན. स्वात[समुच्चय-स्तक १० ५५ शेपसम्बन्धेनाश्वमेधत्वाविषवितस्यैव तथात्वात् अभ्यथा मयाऽश्वमेवाजपेयी कृती, मया वाजपेयज्योतिप्रोमो कृती' इत्पादिकीर्तन नाश्तावक्रेदकातिसिद्धी सां स्यापि सम्भवात् । अस्तु वा तत्कीर्तन भाव विशिष्ट तत्कर्मत्वेन हेतुषम् भयो न समूहालम्बनइरिगङ्गास्मरणजन्यापूर्वस्य गङ्गास्मृतिकीर्तनान्नाशे हरिस्मृतेरपि फलानापत्तिः, तज्जन्यापूर्वयोरेकतरस्य नाशेऽप्यपरस्य सत्ये गङ्गास्मृतेरपि वा फलावते, इति नैयाचिकमत साम्राज्यात् " इत्यत आह-यतः यस्मादेवीः, तत् कर्म आत्मनो व्यतिरिक्तं भिन्नaaranr oयवस्थितं तथा चित्रभाव फलवैचित्र्यनिवशिकवे चियाल मतम् अङ्गीकृतम् 'पारगतागमषेदिभिः । इति शेषः । प्रामाणिक है' मिलान्स असंगत है ।" किंतु विचार करने पर उक्त शंका उचित नहीं प्रतोत होती क्योंकि अमे आदि कर्मों से उत्पन्न होनेवाले अष्ट को स्वायतन्यतासम्वन्ध से अध्याद विशिष्ट रूप से तत्कर्मकीर्तन का धय भार लेने से एक कर्म के कीर्तन से स कर्म के माथ की आपस का परिहार हो जाता है भतः सवर्थ में जाति मेद की कल्पना अनावश्यक है । इतना ही नहीं कि अष्ट में कीर्तननादयतावच्छेदक जाति की कल्पना मनावश्यक प्रत्युत सपना से अतिसांकर्य को भी शायचि सम्भव है जैसे मेध मोर कमों के सदकोशन की नाइयतावच्छेदक एक जाति होगी और पाजपैथ पवं ज्योति प्रोम के लडकीवन को ताइयतावच्छेदक एक दूसरी जाति होगी हम में पहली जाति अभ्यमे अट में भी है किन्तु उस में दूसरीजाति नहीं है, दूसरी जाति ज्योतिष्टोमजस्य अट में है किन्तु उस में पहली जाति नहीं पर दोनों ज्ञातियां बा पेयजन्य भर में है क्योंकि उसका नारा उक्त दोनों ही लड़कीर्तन से होता है । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि कर्मों के कीर्तन से कर्मजस्य अष्ट कर नाश होता ही नहीं अतः अत्र में कोननाश्यतावच्छेक जाति की कल्पना के सम्बन्ध मैं कोई बात ही नहीं ऊ सकतो मन होगा कि 'यदि कीर्तन से कर्म अभ्यम का नारा नहीं होता तो कोर्तित कर्म से भो फलोदय क्यों नहीं होता? इसका उत्तर यह है कि कर्मकर्तनाभावविशिष्ट ही तत्तत्कर्म तत्तफलों का कारण होता है। अतः कर्म का कीन हो जाने पर कीर्तनाभाघ विशिष्ट कर्म न होने से उस का फल नहीं होता । ree को कोममाय मानने पर एक और आदि का सम्म है वह यह कि र और गंगा के स्मरण से जोबट उत्पन्न होगा: गङ्गास्मरण के कीर्तन से उस का नाश होने पर हरिश्रण का भी फल न हो सकेगा क्योंकि हरि और गङ्गा दो के सहस्मरण का द्वारभूत अन् एक ही था जो गणास्मरण के कोर्तन से हो गया। बंद कि "हरि और गहा के सदस्मरण से एक ही भट्ट की उत्पत्ति नोकर दो अष्टों की उत्पति होती है अतः स्मरण के कीर्तन से एक अदृष्ट का नाश हो आने पर भी दूसरे अरष्ट द्वारा इरिस्मरण के फलोदय में को war नो सकती" यह हः ठीक न होगा क्योंकि ऐसा मानने पर गा

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