Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 348
________________ ...........३०५ स्थाका टोका व हि वि० भावः । अस्तु वार्ड पुष्टि, इस्पत बाद · नया क्रिययाऽन्येषा कर्माणूनो योगाभाषे = बन्धविरहे, अस्य :: आत्मनः पुतिः - उपष्टम्भकाणुसंवैधरूपा, कथं भवेत् ? एवं च पुष्टिइतुतया फर्मसिद्धिगवश्यकीत्याशयः | पर्याप पुष्टिरन्यत्र स्थास्य एवोपयुज्यते, तथाऽपि क्रियया न हेतुशल्याधान, हेतुमारे तत्वसङ्गाव, आत्मन्येव तदाधाने तु कर्मण एवं नामान्तरं तदित्यभिप्रायः ॥९८il [सुपात्रदानादि क्रिया से शक्ति का भाविर्भाव शश्व नहो । उस अपायक देतु मै मात्ममानासन्यस्य विशेषण है भोर मात्मातिरिक्त मला धारणकारणम्य विशेण्य, अ को अन्यचालिम करने वाली कगत शति में शुक्त विशेष्यभाग असिस होने ले उक्त आपत्ति असम्भव है-इस माक्षेप का प्रस्तुत कारिका [५८] से परिहार किया गया है.. 'कर्तगत शक्ति कर्ता की सुपात्रदान गादि क्रिया से उत्पश्म होती है अतः उस में आमा ले अतिरिक्त उनक्रियारूप असाधारणकारणजस्यत्व होने से उक आपावक हेतु से पूर्वोत. आपत्ति नहीं हो सकती'-पन बाहना ठीक नहीं है. क्योंकि उस क्रिया से कर्ता आत्मा की पुष्टि (अपचय) न होने पर उस में शक्ति का उलय नही हो सकता। जिस प्रकार कुलाल की क्रिया से कपालरूप में मिट्टी की पुष्टि होने पर ही उस में घटानकशक्तिका उम्मेप होता है उसी प्रकार का की सुनवाम भादि क्रिया से धोकृत आत्मा में ही सुम्मादिजनक शक्ति का उम्मेष उचित हो सकता है, अन्यथा महों 'उक्त क्रिया से आत्मा की पुषि होती है भौर उस पुष्ट आत्मा में हो कर्मफलजनक शकि का उम्मेष होता है'.- यह बात भी सम्भघ तभी हो सकती है ना क्रिया द्वारा का ओत्मा में कर्मरूप में परिणत होनेवाले भौतिक अणुगों का विशिष्टसंयोग माना जाय । यदि इस प्रकार का संयोग म होगा तो आत्मा की पुष्टि नहीं हो सकती, क्योंकि नये अणुओं का उपाटम्भक-विशिष्ठयोग को की पुष्टि कहा जाता है, तो इस प्रकार क्रिया से कर्ता की पुष्टि के लिए ही कियाअन्यगष्ट की सिजि आवश्यक है। का होती है क- अन्य पवाघों में पुष्टि का उपयोग तो उसे स्थूल बनाने में होता है जैसे मिले कपालरूप में पुष्ट होकर स्थूल पन माती है, पर कता मारमा में उस प्रकार की स्थूलता तो अपेक्षित महों तो फिर क्रिया द्वारा उसकी पुष्टि मानने का पपा उपयोग ? "-इस शंका के उत्तर में यह कहना है कि 'किया से की को पुष्टी की जो पात कहो गयी है उसका अभिप्राय यह है कि क्रिया से जिस शक्ति का उश्य मानकर अरगद को भायथासिल करना मभीए है उस शक्ति का उदय कत्ती में यदि इस लिये मामा जायगा कि यह क्रिया का एक हेतु अतः उसमें क्रिया से पाकि का अन्म होता है, तो किया के खन्य हेतुओं में भी उस के उदय को आपत्ति होगी, और यदि आत्मा में ही मियाजम्यशकि का सदय माना जायगा, तब पा को महसही होगा, 'कि' तो उसका नामाप्तरमाण होगा ॥२८॥ था. घा, ९

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