Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 328
________________ स्था० क० टीका वह बि सुषुप्यनुकुलमनः क्रिययात्ममना संयोगनावाकाले उत्पन्नेन सुपुतिसमकालोत्पलिकमनोयोगसन परामर्शन गुप्तिद्वितीयक्षणेऽनुमित्यापत्तिरिति वाच्यं तत्काले परामर्शोपनौ मानाभावात् सरसामग्रीभूतव्याप्तिस्मृत्यादेः फलैक कल्प्यत्वात् । आत्मादिमान सोत्पत्तिः विशेषगुणोपधानेनात्मनो मानमिति वाभ्यम सविषयकप्रकारकात्ममानयत्वस्य मनोयोगादिजन्यतावच्छेदकत्वे गोश्वात्, न चनोयोगाभावादनापत्तिः तस्य जन्यज्ञानत्वावच्हेितुत्वाद्, अन्यथा रासनानुपतिका त्याचोत्पत्तेः । मानसस्यावच्छिन्नं प्रति तद्धेतुत्वे च त्वाचत्वान्निं प्रति पृथक कारण गौरवानि ו ९८५ का हो सकता कि मन की जिन क्रिया से पूर्ववर्ती योग के ना काल में जो परामर्श उत्पन्न होगा तथा सुपुष्यिकाल में श्री नचीन आत्मनयोग होगा उन दोनों सेपित के क्षण अनुमति की आप हो सकती है किन्तु इस शका का यह उत्तर दिया जा सकता है कि सुपुति को संपन्न करनेवाली मनः क्रिया से पूर्व मनः संयोग के नाशकाल में परामर्श उत्पन्न होने में कोई प्रमाण नहीं है, प्रत्युत उसके पूर्व व्याप्तिज्ञान आदि कारणमात्रो का सन्निधान न होने से उसकी उत्पत्ति सम्भव है । 'उक्तकाल में परामर्श की आपलि के लिए उससे पूर्व व्याप्तिज्ञान आदि को कम को मा सकती है- यह करना भी उचित नहीं हो सकता क्योंकि सामग्री की कल्पना कार्य के चल में की जानी है, तो फिर उक्तकाल में परामर्श की उत्पत्ति अब प्रामाणिक नहीं है तब उसके पूर्व परामर्श के कारण व्याप्तिज्ञान आदि की कल्पना कैसे को जा सकेगी ; | सुषुप्तिकाल में मानसप्रत्यक्ष क्यों नहीं होता !! इस सम् में इस शंका का सम्भव है कि "सुपुतिकाल में आत्मा का मानल प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता ? पर्थ्योकि उस समय आरमारूप विषय तथा उसका ग्राहक आत्म मनःसंयोग दोनों विद्यमान है और उसके मानसप्रत्यक्ष के लिये किसी अन्य ऐसे साधन की अपेक्षा नहीं है ओ सुषुदिन में सम्भव न हो सके इसके उत्तर में यह कहना ठीक नहीं हो सकता "आत्मा का मानसपत्यक्ष उसके किसी न किसी योग्य विशेषगुण के साथ ही होता है अतः सुपुप्ति के समय से गुण का अभाव होने से उस समय मा के समय को वाशि नहीं हो सकती" यांकि 'ज्ञान माहि विशेष के साथ ही मामा के मानसप्रत्यक्ष का नियम तभी हो सकता है जय सविषयकप्रकारक या योग्यविशेषगुणकारक आत्मविषयक मानसत्य अश्व को आत्मनः योग का कार्यावछेक माना जाय और यह माना नहीं जा सकता, क्योंकि मानव या गारमविषयक मानल की अपेक्षा उपमानसत्य गुरु होने से उसे कार्य मानने पर कार्यकारणभाव में गौरव होगा | काल में ममः संयोग होने से उस समय आत्मा के मानप्रत्यक्ष भी आपत्ति नहीं हो सकती-य में कहा जा सकता क्योंकि भ्यानमात्र के प्रति मनः संयोग के कारण न होने से आत्मा के मानसप्रस्थ के लिये व अन पेक्षित है अन्यथा यदि उसे जन्यज्ञानमात्र के प्रति कारण माना जायगा जो रासनप्रत्यक्ष

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