Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 338
________________ स्था० क० टोका० हिं०वि० अपरथाऽपि कार्यचियमाह २९५ मूलभूतथा तुल्येऽपि चारम्भे सदुपायेऽपि यो नृणाम् । फलभेदः स युक्तो न युक्त्या देवन्तरं दिना ॥९२॥ तथापि समानेऽपि च आरम्भे कुष्यादिमयन्ने, सदुपायेऽपि अकुण्ठित शुक्तिकर्तादितर याचत्कारणसहितोऽपि नृणां चैादन, फलभेदः = धान्यसम्पत्यसम्पतिरूपः स्वल्पबहुधान्यसम्पत्तिरूपो वा यः स युक्तया 'विचार्यमाण' इति शेषः । हेत्वन्तरं स्प्तकारणातिर अद्याववैषम्येऽप्युत्तर का ले सामग्री पम्पादेव कार्यवैपम्यमिति चेत् न सामग्रीवैपम्यस्यापि हेत्वन्तराधीनत्वात् । अथवा समानेऽप्यारम्भे एकजातीय दुग्धपानादी, यः फलमेवः रुषभेदेन सुखदुःखादितारतम्यलक्षणः, स हेवन्तरं बिना अतिरिक्तहेतुतास्तभ्यं बिना, न युक्त इत्यर्थः । न चात्रापि क्वचिद् दुग्वादेः फर्कदयादिचतु पिचादिरसोद्रोधादुपपत्ति, [ कार्ययिका उपपादक अष्ट इस कारिका में कार्यवैविध्य की उत्पति के लिये अकल्पना की आवश्यकता का प्रतिपावन एक अन्य प्रकार से भी किया गया है। कारिका का इस प्रकार है- त से मनुष्य कृषि आदि कार्य समानरूप से करते हैं. सभी की कृषि सामग्री भी समान रूप से समोबीन होती है, फिर भी ऋषि करने वाले मनुष्यों में किसी को धान्य की प्राप्ति होती है, किसी को नहीं होती, एवं एक दो प्रकार की कृषि से किसी को स्वाप धान्य की प्राप्ति होती है और किसी को अधिक धान्य को मात होती है तो कृषि के लिये समान प्रयत्न होने पर भी कृषकों को प्राप्त होनेवाले फल में जो मेद होता है वह ४ कारणों से तो हो नहीं सकता, क्योंकि कारण तो सभी के समान है, अतः इस फल मेद की उपपत्ति के लिये अहमेवरूप अतिरिक्त कारण की कल्पना आवश्यक है । यद यह कहा आप कि-"प्रारम्भ में विभिन्न मनुष्यों के कृषिप्रयत्न के समान होने पर भी बाद में उनकी कृषि सामग्री में वैवस्य हो जाने से धान्यातिप फल में वैश्य हो सकता है अतः उसके लिये हमे रूप कारणमेद की पना व्यर्थ है " तो ठीक है कि भवैषम्य के विना सामभीषम्य का असम्भव है । कारिका का एक दूसरा भी अर्थ हो सकता है जो इस प्रकार है [कारिका का वैकल्पिक अर्थ ] बहुत से मनुष्य समानरूप से कुवपान करते हैं, उनमें किसी को उससे विशेष सुख और किसी को अल्पसुख को प्राप्ति होती है, किसी किसी को तो हो जाने से दुःख भी हो जाता है। इस प्रकार एक हो ढंग के दुग्धपान से विभिन्न मनुष्यों को जो यह भिन्न फल प्राप्ति होती है यह अरू कारण के बिना नहीं हो सकती । यद यह कहा जान कि "मनुष्य का शरीर बात, पित्त और कफ इन धातुओं से बनता है उसमें ये तीनों धातु विद्यमान रहती है, तो जिस मनुष्य के पित्त का रस दुग्धपान से उमस जाता है उसे दुग्धपान से सुख नहीं होता और किसके पिच का रस पान

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