Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 310
________________ क्या . टीका हिं. पि. २९७ म च 'अन प्रमेयमिति नानात्प्रवृत्यापत्तिः, इलायक दफे सद्भिन्ननिमुधर्माप्रकारफत्त्रविशेषणात् । न चेष्टनारच्छेदकप्रकारकवानस्य मुल्यविशेष्यनया प्रष्टत्ति हेतुल्लम्, 'बद्रनतम्, एवं द्रव्यम्' इमि लामात् प्रतिधारणाय प्रकृत्तिविषय विशेयकत्वावको देनेष्टताक्छेदकप्रकारफत्त्वस्य वास्यत्वे इष्टतावच्छेदकविशेषयकवायच्छेदेन प्रति विश्वप्रकारकत्वेनापि हेतुतायो परिमारिहार, पायगर रोग हेतुलौमिरन । वह यह है कि प्रकृति के प्रति समानविय कशान कारण मी दाता किन्तु प्रतापरक और प्रतिधिषय के वैशिष्टय (परस्पर सम्बन्ध) का मान कारण होता है, अतः मधिक विषयमान में प्रवृत्तियिषय में इष्टनापच्छेदक के शिष्य (सम्बन्ध) का भान होने से उसे प्रवृत्ति का जनक होने में कोई बाधा नहीं हो सकती। । 'मत्र प्रमेये इस ज्ञान से प्रवास आपत्ति की आशंका ] 'अब प्रमेयम् समान में 'श' का अर्थ है "शुको कि में'। 'प्रमेयम्' का अर्थ है 'रजसत्यम्'। इस प्रकार यह शान समय से भासमान शुकि गौर प्रमेयस्वरूप से भासमान रमतत्व के परस्पर सम्बाध का विषय करता है, इसहाम से रजतेन्द्र की प्रति घस्तुप्त नही होती है. किन्तु प्रवृत्ति के प्रति प्रवृत्तिविषय और प्रताप दक के परस्पर सम्बन्ध को विषय करने याले शाम को कारण मानने पर डाल नाम से रजतेन्छु की प्रवृत्ति को आपत्ति होगी। इस आपति का परिहार करने के लिये यह कहा जा सकता है कि- बही मान प्रवृत्ति का अनक होता है जो एतापलेषक से भिन्न में रहने वाफे धन का प्रतासक धर्म में प्रकारविधषा महण न करे । 'मय प्रमेयम्' यह गान तापक रजस्व में उसले निम्न शुरुत्व भादि में रहने वाले प्रमेयषधर्म को प्रकारविधया ग्रहण करता है, अत: सशान से रजतेकी असि की आपत्ति नहीं हो सकती। [प्रवृत्ति के प्रति मुनयविशेभ्यना से ज्ञान को देतुता का खंडन] 'अत्र प्रमेयम्' इस शान से प्रवृत्ति की आपसि का परिहार करने के लिपे पर भी कहा जा सकता है कि- 'मुक्यविशेष्यतासम्पन्ध से प्रवृति के प्रति इमामशेरकर्मप्रकारक भान मुख्यविशेषतालम्बन्ध से कारण होता है-'सन्न प्रमेयम्'साम में - सापच्छेवक रजतष प्रमेयस्यरूप से विशेष्य होकर भासित होता है और प्रवृत्ति का विषयभूस पार्थ उसमें माधैयनासम्बन्ध में प्रकार है, जो 'अम' शब्द से सूचित होता है, इस प्रकार यह काम न तो इवतापरावधमाकारक है और म यह मुग्यषिदो. प्यतासम्बन्ध में मवृसिविषय में विद्यमान है, अतः इससे पदार्थ में रजतेमा की प्रभूति की मापनि नही हो सकती"-किन्तु इस भापति के परिहारार्थ यह उपाय उचित नहीं है क्योंकि इष्टनावशेषकप्रकारकशान को मुफ्यविशेष्यतालम्बम्प से प्रवृति का

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