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.. शा० का० समुच्चय .... 'दुःखं मा भूत्' इत्युदिश्य प्रवृत्तेर्दुःखाभाव एव पुरुषार्थः, तज्ज्ञानं त्वन्यथासिद्धमिति चेत ? सत्यम्, अवेद्यस्य तम्य ज्ञानादिहानिरूपानिष्टानुविद्धतया प्रवृत्त्यनि
हकत्वात् । एतेन 'वर्तमानोऽप्यचिरमनुभूयते' इति निरस्तम्, तथावेद्यताया मृच्छा. अवस्थायामपि सम्भवात् । ___यत्त 'अशरीरं वाव सन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः' इति श्रुतेर्मुक्तो मुखाभाषसिद्धिः, मुक्ति पने मात्र के लिये भी मनुष्य की प्रवृत्तिका होना सम्भव है,'-तो यह ठोक नहीं है, क्योकि प्रस्तुत विचार विवेकी मनुष्यों की प्रवृति के सम्बन्ध में है, न कि उन अविवेकी मनुष्यों की प्रवृत्ति के सम्बन्ध में है जो दुःख से कातर हो आत्मघान करने को प्रवृत्त होते है और यह नहीं सोच पाते कि 'आत्मघात उन्हे दुःखोंसे मुक्त नहीं कर सकेगा, अपितु स्वयं एक नया पाप होने के कारण नये जन्म में उनके लिये दुःख का कारण बनेगा' । इसलिये यह कहना सर्वथा उचित है कि
दुःखाभाव का यति अनुभव न हो, तो वह भी पुरुषार्थ -पुरुष को काम्य नहीं हो सपाया । यही कारण है कि भूच्छावस्था में दुःख का अभाव होने पर भो उसका अनुभव न हो सकने के कारण उस अवस्था के लिये कोई विवेकी मनुष्य प्रयत्नशील होता नहीं दिखाई देता।
यदि यह कहा जाय कि 'तुझ्न न हो' इस उद्देश्य से हो मनुष्य दुःख निराकरण के उपायों को आयस्त करने का प्रयत्न करता है, न कि 'दुःखाभाष का अनुभव हो' इस उद्देश्य से । अतः दुःख का अभाव हो पुरुषार्थ है, न कि दुःखाभाव का अनुभव । वह तो साधन मिलने पर अनुषङ्गतः हो जाता है, अतः वह पुरुषार्थ रूप नहीं है, किन्तु अन्यथा सिद्ध है, तो यह कथन आपाततः समीचीन प्रतीत होने पर भी उचित नहीं माना जा सकता, क्योंकि जो दुःखाभाव अवेद्य (अनुभव के अयोग्य) होगा, वह ज्ञान आदि इष्ट पदार्थों की सानिरूप अनिष्ट से मिश्रित होने के कारण मनुष्य को काम्य न होगा । फलतः उसके लिये मनुष्य की प्रवृत्ति न हो सकेगी।
यदि यह कहा जाय कि-'मोक्षकाल में दुम्खाभाव की अनुभूति होती ही नहीं, यह बात नहीं है, होती है अवश्य, किन्तु उस समय अनुभव साधनों के क्षणिक होने से क्षण भर के लिये ही होती है अतःक्षण भर के लिये भी आत्यन्तिक दुखाभाव का अनुभव पा सकने के. लोभ से उसके लिये मनुष्य की प्रवृत्ति हो सकती है,'-शो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि दुःखाभाव का क्षणिक अनुभव तो मू. के समय भी सम्भव है. अतः मोक्ष के महान प्रयास की सार्थकता यदि दुःखाभाष के क्षणिक अनुभव में ही मान्य हो सकती है, तो घह तो मूर्छा के समय भो सम्भव है, अतः इस स्थिति में मनुष्य के लिये यही उचित होगा कि वह महान श्रम से साध्य मोक्ष के लिये प्रयत्नशीट न होकर स्वल्पश्रम से साध्य मूच्छविस्था के लिये हो प्रयत्नशील हो।
यदि यह कहा जाय कि "अशरीर वाव सम्न प्रियाप्रिये न स्पृशत:'-शरोरहीन जीर को प्रिय और अप्रिय-सुख और दुःख स्पर्श नहीं करते' इस श्रुति से मोक्षकाल में