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स्या० का टीका व हि वि०
मैत्रीच्यापारामाह मैत्रामिति--
मूलम् . मैत्री भावयतो नित्यं शुभो भायः प्रजायते ।
ततो भावोदकाजन्तोषाग्निरुपशाम्यति ॥८॥ मैत्रीमुक्तलक्षणां,नित्यं सर्वकालं,भावयतोऽभ्यस्यतः,शुभः प्रशस्त:, भावः साम्यलक्षणो जायते,यमन्ये ''प्रशान्तवाहिता' इत्याचक्षते । ततस्तस्मात् भावरूपादुदकात्, द्वेष लक्षणोऽग्निः उपशाम्यति समूलमुपयाति क्षयम् । एवं च शुद्धोपयोगलक्षणधर्म साम्यद्वेयोपशमद्वारा मैञ्युपयुज्यत इति फलितम् ॥८॥ आत्मीयग्रहमोक्षव्यापारमाह 'अशेषेति
मूलम्-अशेषदोषजननी निःशेषगुणघातिनी ।
__ यात्मीयग्रहमोक्षण तृष्णाऽपि विनिवर्तते ॥९॥ अशेषाणां दोपाणां हिंसाऽनृतादीगो हननीय न.लेव । गुणा त्यांना कर्मों का क्षयोपशम-विषाकोदयनिरोध होने से चारित्रधर्म की प्राप्ति होती है ॥७॥
इस कारिका में मैत्री का घर ध्यापार बताया गया है जिसके द्वारा मैत्री से धर्महेतुओं का सम्पादन होता है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है___ मैत्री, जिसे प्रत्युपकार निरपेक्ष प्रीति के रूप में लक्षित किया गया है, उसके निरन्तर अभ्यास से प्रशस्त भाव का-सर्व समत्व भाधना का उदय होता है, अथ मनुष्य प्राणीमात्र से, बदले में कुछ चाहे विना, विशुद्ध प्रेम करने लगता है तब समस्त प्राणियों में मात्मसास्य की पवित्र भावना का उसके मन में उदय होता है, जिसके फलस्वरूप
कार अपने प्रति उसका प्रेम निस्सीम और निःस्वार्थ होता है उसी प्रकार अन्य सभी प्राणियों के प्रति भी उसका प्रेम निस्सीम और मिस्वार्थ हो जाता है। इस साम्यभाव को अन्य विद्वानों ने प्रशान्तवाहिता' की संज्ञा प्रदान की है। समस्त प्राणियों में आत्मसाम्य का यह प्रशस्तभाव द्रष रूपी अग्नि के लिये जल के समान है। क्योंकि मनुष्य जप सभी प्राणियों को अपने जैसा मानने लगता है तब जैसे अपने प्रति उसके मन में कोई द्वेष नहीं होता उसी प्रकार अन्यों के प्रति भी उसके मन में किसी प्रकार का द्वेष नहीं उत्पन्न होता है । आत्मसाम्य की भावना द्वेष के मू भूत वैषम्यभावमा को मिटा देती है। इस प्रकार मैत्रो साम्य और द्वेषोपशम के द्वारा शुद्धोपयोगरूप अर्थात रागादि से अकवित-ज्ञानोपयोग यानी विशुद्ध चितपरिणाम-आत्मपरिणति स्वरूप धर्म को सम्पन्न करने में सहायक होती है. ॥८॥
इस कारिका में आत्मीयग्रहमोक्ष-बायसङ्गत्याग का यह व्यापार बताया गया है जिसके द्वारा बाह्य सङ्गत्याग से धर्महेतुओं का सम्पादन होता है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है१. तस्य प्रशान्तवाहिता मम्कारात् । यो, मू. ३-१० १२. दृष्टव्य-घोडशक (३-२) टीका 'चित्तं धर्मः' ।
शा, बा.८