Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 274
________________ स्मा टीका पति... जि का संघलन छाया में नहीं होता कि मषिकसानपकासाह्यानोक कर संकलन होता है। अचसमस का यह लमग बिप्पान रोने पर दिन में प्राप शलोक के समय अषतमस की प्रसीत पवं उसके म्यवहार की आपसिनाती हो सकती। क्योंकि उस समय उपक्त प्रकार के नेमका जिसमा अमाच होता है उससे मधषा असो प्रतियोगि से भधिक सम्यक पायालोक दिन के प्रलोक के समय राता है। मत. पम उक्त समय में विमान उक्त प्रकार के तेजोऽभावों में उसकी अपेक्षा मथवा उसके प्रतियोगि को अपेक्षा म्यूमसाश्वयक वायाकोक का संपलम नही राता।" किन्तु यह कथन भी टीफ नही है । क्योंकि जिस दिन प्रकटालोक के समय अश्वनयस का भापावन करना है उस दिन केवल उस दिन केही कतिपय बायपालो का अमात्र नहीं है, अपितु उस विम से भिन्न अन्य भानगत दिनों के बाम मालोको का भी प्रमाण है। मता उस दिन जितने बाध्य पालोक का संपरुन उस मभाय मे है उनकी समस्या का प्रभावों अथवा उनके प्रतियोगियों से म्यून की। अतः अघसमस का प्रस्तुम-लक्षम स्वीकार करने पर भी हिनमें प्रकष्टालोक के समय मयतमास की प्रतीति भऔर उसने व्यवहार की भापति का परिहार नहीं हो सकता । और इसके अतिरिक्त दुसार योग याक यदि उक्त प्रकार के तलवतेय के प्रभाव को मन्नतमस आदि मामर जायला तो उस प्रकार के तलाशय की महानदशा में तसंडोभाय काबान न हो सकेगा । क्योंकि माशान में प्रतियोगिताघरकमकारक प्रतियोगिवान कारमा होता है। अतः उक कप की महादशा में तत्तेजोऽभाव का ज्ञान न हो सकने के कारण अग्नतमलत्व आदि प से भग्धकार के अनुभव की उपपत्ति गशम्य हो जापगा । सदोष तथा मप्रिम मोष के कारण इस रीति से भी भवताल गावि का लक्षण नहीं कर सकता कि... "रूपत्वमाइकोज से संघलित जो कपन्ययाध्यजाति के ग्राहक यावत्र का संसर्गाभाव बह अम्रतमल है। पर्व परवश्याप्यमासिक प्रारक तेज से संक्तिको प्रौढप्रकारकयाषनम का संसर्गाभाष पर छापा । तथा सपथग्राहक एवं पस्न्यायनातिपालक यावत्तेज का संसर्गाभाष अग्धतमस है।"-इन लक्षणों का भाघार यह मान्यता है कि कुछ सामान्यतेन इस प्रकार के होते हैं जिनसे पसामान्य का प्राण होता है किन्तु नीलरवपीसत्याविरूप में रूप का प्राण नहीं होता । मक तमल में घस्तु के रूपसामान्य का प्रत्यक्ष तो होता है किन्तु एस्तु की नोट-पीवि रूपता का प्रत्यक्ष नहीं होना एवं छाया में वस्तु की नील नीतादिरूपता का वर्शन होता है किन्तु घस्तु का प्रोद प्रकाश -मतिस्पट दर्शन नहीं होना । और अन्वतमान में षस्तु कपसामान्य काही प्रहण होता और न उसकी नोखपीसाविकपता का. ही प्रारपन होता, पर्ष न पहनु का ही चाक्षुष प्रत्यक्ष होता । परन्तु मयतमस आदि का यह निर्वचन भी दोषयुक्त नहीं है. क्योंकि जिस प्रकार के तेल के संसर्गाभाव का निवेश उक्त कक्षों में है उस उस तेग की अमानवशा में उसके अभाव का प्रण सम्भव न होने से अवतमसात्वादिकप से अन्धकार का प्रात्वंस म.हो सकेगा । पर्व उक्त लक्षणों में प्रतियोगिकी में धान का भी निवेश है और हाल बाभुष नहीं होता । म शानदिलप्रमियोगी के अचाक्षुष होमे सेमा

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