Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 278
________________ स्या० क० ठोका पहि० बि० 'नामालोकः किन्त्वन्धकारः' इति व्यवहारादष्या कामावाद भिन्नं तमः नात्र घटः किन्तु तदभावः' इतिषद् विवरणपता विनाऽपि स्वारसिकप्रयोगदर्शनात्, अपकटाळोकप्यन्धकारव्यवहाराच्च । अत एव उत्कृष्टालोका भावोऽन्धकार' इति चेत् ! न तदुम्कर्षप्रतियोग्यपकर्षशालितयैव तमसि द्रव्यत्वसिद्धेः । २३५ www प्रगति का अनुविधान बन्यच में बाधक नहीं है ] यदि यह कि - "तथ को दूव्य मान कर उस में स्वभाषिक गति मानने पर उसकी गति में भय की गति का अनुविधान होने का नियम टूट जायगा ।" तो यह टीक नहीं है, क्योंकि पथराग मणि की प्रभा में स्वाभाविक गति होने पर भी उसको गति में पद्मरा रूप आश्रय की गति का अनुविधान देखा जाता है इसलिये राम में स्वाभाविक गति मानने पर भी उसकी गति में आशय की गति के अनुविधान की उपपत्ति हो जाती। दीवार आदि भावरण का भ होने पर समय गतिहीन होने पर भी तम का प्रसार देखने से तम्र की गति में गाय की गति का अनुविधान न होने से उक्त नियम की अनुपपत्ति की शंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि यह शंका पद्मराग की मभा की गति के सम्बन्ध में भी समान है, पद्मराग की प्रभा भावरण का भंग होने पर पद्मराग के स्थिर रहते भी आगे और फैलती है अतः उक्त नियम को इस रूप में मान्यता देनी होगी कि मासित में स्वतन्त्ररूप से गति का उत्पादक न होने पर याति को गति आश्रय की गति का अनुविधान करती है, और यह प्रभा और छाया दोनों में समानरूप से मश्रुण्ण है। ये वासे 'समः खलु चलं०' इत्यादि कारिका में इस प्रकार वर्णित है कि तम गतिशील एवं नील है, घट परत्व अपरस्य और विभाग का आश्रय है, साथ श्री पृथिवी आदि फलन्त नम्र प्रयों से भिन्न है, अतः उसे अतिरिक्त दशम त्रभ्य के रूप में स्वीकार करना आवश्यक है । श्री रत्नप्रभसूर आदि जैन विज्ञानों का यह भी मत है कि 'घनतर' समः तमो निक तमो लहरी' इस रूप में व्यवहार होने के कारण भी तभ में यर श्री सत्ता ठीक उसी मकार स्वीकार करनी चाहिये, जैसे उसी कारण से फिरण आदि में दध्यस्थ की सा मानी जाती है । व्यवहार विशेष से अन्धकार में भाछोकाभावाभिन्नत्व की सिद्धि] 'यहाँ भालोक नहीं है किन्तु अन्धकार है इस व्यवहार से भी 'तम भालोकामा से भिन्न है, यह बात सिद्ध होतो है क्योंकि 'नाथ घर। किन्तु तत्रभाय यह घट नहीं है किन्तु उस का अभाव है इस व्यवहार में जिस प्रकार उत्तरभाग से पूर्व भाग कर विवरण अभिप्रेत होता है, उस प्रकार 'भावालोका किन्तु अन्धकारः इस व्यवहार में उत्तरभाग से पूर्व भाग का विवरण मभिप्रेत न होने पर भी घर व्यवहार होता है। अतः इस व्यवहार से अधकार की raiकाभाव भिन्नता निधिवार है । उसी प्रकार अपकृष्ट आलोक रहने पर भी अन्धकार का जो व्यवहार होता है उस मे भी अन्धकार आलोकाभाथ रूप नहीं है यह सिद्ध होना है, क्योंकि यदि मन्धकार आलोकाभावरुण होगा तो अपकर भालोक के समय मालोकाभाष न रहने से अन्धकार की प्रतीदिन

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